एमपी में बीजेपी के पास वोटर को सीधे लाभ पहुंचाने का तंत्र, वादों और चुनावी समझौतों पर कांग्रेस का दारोमदार

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Rahul Garhwal
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एमपी में बीजेपी के पास वोटर को सीधे लाभ पहुंचाने का तंत्र, वादों और चुनावी समझौतों पर कांग्रेस का दारोमदार

BHOPAL. मध्यप्रदेश में विधानसभा चुनाव की तैयारियों का बिगुल बज चुका है। सत्तारूढ़ बीजेपी ने इसकी शुरुआत प्रदेश में 20 दिनों तक विकास यात्राएं निकालकर कर दी है, तो प्रतिपक्षी कांग्रेस को अभी भी 2018 के किसान कर्ज माफी जैसे किसी दमदार या कहें कि गेम चेंजर मुद्दे की तलाश है। लेकिन इस बार सत्ता की निर्णायक लड़ाई राज्य की 47 आदिवासी सीटों पर कब्जे की होने जा रही है, जिन्हें जीतने के लिए दोनों प्रमुख दलों ने पूरी ताकत झोंक दी है।



कमलनाथ सरकार गिरी और बीजेपी आई



उल्लेखनीय है कि मध्यप्रदेश में विधानसभा की कुल 230 सीटें हैं। 2018 के चुनाव में कांग्रेस को 114 और बीजेपी को 109 सीटें मिली थीं। 2 सीटें बसपा, 1 सपा व 4 निर्दलीयों ने जीती थीं। तब कांग्रेस ने कमलनाथ के नेतृत्व में बसपा, सपा और निर्दलीयों के समर्थन से राज्य में सरकार बनाई थी, जो बहुमत के हिसाब से बिल्कुल किनारे पर ही थी। बाद में कांग्रेस में दलबदल और ज्योतिरादित्य‍ सिंधिया ने अपने 22 समर्थकों के साथ बीजेपी के पाले में जाने से कमलनाथ सरकार गिर गई और पिछले दरवाजे से बीजेपी शिवराज सिंह चौहान की अगुवाई में फिर सत्ता में आ गई। उसी दौरान कोरोना की पहली लहर के बीच 28 सीटों पर हुए उपचुनाव में बीजेपी ने 19 सीटें जीतकर सरकार का टिकना पक्का कर लिया।



आदिवासी सीटों पर सर्वाधिक फोकस



मध्यप्रदेश में मुख्य रूप से दो दलीय प्रणाली ही बरसों से है। लिहाजा डेढ़-दो फीसदी वोट का हेरफेर भी सरकार बदल देता है। 2018 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी 41.02 प्रतिशत वोट लेकर भी 109 सीटें ही जीत पाई थी, जबकि कांग्रेस 40.89 फीसदी वोट लेकर बहुमत के करीब पहुंच गई थी। इस बार दोनों दल प्रदेश में आदिवासियों के लिए आरक्षित 47 सीटों पर ज्यादा फोकस कर रहे हैं। इनके अलावा 31 सीटें ऐसी हैं, जहां आदिवासी वोट निर्णायक प्रभाव डालते हैं। जो दल इनमें से अधिकाधिक सीटें जीत लेगा, वो सत्ता सिंहासन पर बैठ सकता है। राज्य में आदिवासी वोट करीब 22 फीसदी है। गौरतलब है कि 2018 के चुनाव में बीजेपी केवल 16 आदिवासी सीटें ही जीत सकी थी। जबकि कांग्रेस ने 30 सीटें जीत ली थीं। एक सीट कांग्रेस समर्थित निर्दलीय (जय आदिवासी संगठन) को मिली थी।



आदिवासियों को रिझाने में जुटीं दोनों पार्टियां



ऐसे में दोनों ही पार्टियां आदिवासी वोटों को रिझाने में पूरी ताकत से जुटी हैं। राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ मुख्य रूप से मालवा-निमाड़ की आदिवासी सीटों से गुजरी तो बीजेपी ने जनजातीय समाज का जीवन बदलने का संकल्प लिया। इसके तहत राज्य के आदिवासी ब्लॉकों में पेसा एक्ट लागू किया गया। प्रदेश के वर्तमान राज्यपाल मंगूभाई पटेल स्वयं आदिवासी हैं। पार्टी देश की पहली आदिवासी राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को बनाने का भी खूब प्रचार कर रही है। आदिवासियों को रिझाने शिवराज सरकार ने भगवान बिरसा मुंडा स्वरोजगार योजना, टंट्या मामा आर्थिक कल्याण योजना तथा मुख्यमंत्री अनुसूचित जनजाति विशेष योजनाएं लॉन्च कीं। महाकौशल में आदिवासी राजा शंकर शाह के शहीदी दिवस पर विशेष आयोजन हुए। भोपाल में अंतरराष्ट्रीय स्तर के हबीबगंज रेलवे स्टेशन का नाम गोंड रानी कमलापति के नाम पर रखा गया। बिरसा मुंडा की जयंती पर 15 नवंबर को सार्वजनिक छुट्टी घोषित की। केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने 24 फरवरी को सतना में शबरी माता जयंती पर आयोजित शबरी महाकुंभ में समारोह में हिस्सा लिया। इस मौके पर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कोल आदिवासी बहनों को 1 हजार रुपए प्रतिमाह देने का ऐलान किया। बीजेपी की पूरी कोशिश यह संदेश देने की है कि वही आदिवासियों को वो सम्मान दिला सकती है, जो कांग्रेस के राज में कभी नहीं मिला। लेकिन बीजेपी राज में आदिवासियों पर अत्याचार की कई घटनाएं भी हुई हैं। इसका गलत संदेश जा सकता है।



आदिवासियों को परंपरागत वोट मानती है कांग्रेस



उधर कांग्रेस आदिवासियों को अपना परंपरागत वोट बैंक मानती है। पार्टी यह जताने की कोशिश कर रही है कि आदिवासियों की सच्ची हितैषी वही है। साथ ही पार्टी सभी 47 आदिवासी विधानसभा क्षेत्रों में पार्टी सम्मेलन आयोजित कर रही है। कमलनाथ सरकार ने विश्व आदिवासी दिवस पर पहली बार राज्य में 9 अगस्त को सार्वजनिक छुट्टी घोषित की थी। उधर अ.भा. कांग्रेस ने अपनी राष्ट्रीय कार्य समिति में 50 फीसदी स्थान आरक्षित वर्ग के प्रतिनिधियों को देने का निर्णय‍ लिया है, जिसमें आदिवासी भी शामिल हैं। वैसे आदिवासियों के कल्याण का दावा करने वाली तमाम योजनाओं का आदिवासी वोटों पर कितना असर होगा, यह देखने की बात है क्योंकि आदिवासियों की मुख्य समस्या गरीबी, बेकारी और भुखमरी है।



जयस से खतरा



बीजेपी को आदिवासी सीटों पर कांग्रेस से ज्यादा जय आदिवासी युवा संगठन से खतरा है। वो बीजेपी के वोटों में सेंध लगा सकती है। इस संगठन से वो आदिवासी युवा जुड़े हैं जो सुशिक्षित हैं और जिनकी राजनीतिक आकांक्षाएं भी बड़ी हैं। माना जाता है कि कांग्रेस ने ही इस संगठन को खड़ा करवाया है। उसकी जयस से आपसी अंडरस्टैंडिंग है। कांग्रेस ने मनावर सीट से जयस के प्रमुख डॉ. हीरालाल अलावा का समर्थन किया था और वो जीते। अगर कांग्रेस का जयस से चुनावी समझौता हो गया तो बीजेपी को मालवा-निमाड़ क्षेत्र में मुश्किल हो सकती है। मालवा-निमाड़ की कुल 66 में से 22 सीटें आदिवासियों के लिए आरक्षित हैं। इस बार जयस ने 50 सीटों पर अपने प्रत्याशी खड़े करने का ऐलान किया है। ये किसे नुकसान पहुंचाएंगे, यह अभी कहना मुश्किल है।



किस पार्टी की बनेगी सरकार?



अगर आदिवासी वोट बैंक को कोर मुद्दा माना जाए तो राज्य में बीजेपी की सरकार बनने के 55 फीसदी और कांग्रेस की सरकार बनने के 45 फीसदी संभावना है। कारण कि बीजेपी के पास वोटर को सीधे लाभ पहुंचाने का तंत्र है और तगड़ी प्रचार मशीनरी है। कांग्रेस की उम्मीदों का दारोमदार वादों और अन्य आदिवासी संगठनों जैसे जयस और गोंडवाना गणतंत्र पा‍र्टी से समझौते या रणनीतिक समझ पर निर्भर करता है। हालांकि गोंडवाना गणतंत्र पार्टी की राजनीतिक ताकत पहले जैसी नहीं रह गई है। इस लिहाज से प्रदेश के वर्तमान चुनावी परिदृश्य में मैं भाजपा को 6 और कांग्रेस को 4 नंबर दूंगा।


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