उफ ये सियासत… इस तीन शब्दों में ही बीते 15 दिनों का राजनीतिक घटनाक्रम समाया हुआ है। बजरंगियों पर लाठीचार्ज ने बीजेपी सरकार को ना उगलने और ना निगलने वाली स्थिति में पहुंचा दिया है। पुलिस का पक्ष लें तो विश्व हिंदू परिषद जैसे बड़े हिंदू संगठन की नाराजगी मोल लेना होगी और यदि पुलिस पर सख्ती से 70 हजार पुलिसकर्मियों से सीधे बुराई। साथ ही उनके घरवाले, दोस्त-यार के साथ ही दूसरे सरकारी विभाग इन सभी में विरोधी लहर का सीधा खतरा है। अब उफ ये सियासत पर आते हैं, पुलिस ने खाकी का भी तो मान है ना अभियान चलाया तो बजरंग दल ने भी चरणबद्ध आंदोलन के पोस्टर चला दिए… इन सभी के बीच एक टिव्ट निकला कांग्रेस से, जिन्होंने सीधे घोषित कर दिया कि सरकार बनी तो वह लाठीचार्ज करने वाले पुलिसकर्मियों को पुरस्कृत करेंगे। अब कांग्रेस सीधे बजरंग दल का तो साथ दे नहीं सकती लेकिन उसने अपने पुराने वोट बैंक सरकारी विभाग के अधिकारी-कर्मचारी पर नजर कस दी है। बीते चुनाव में याद हो तो सरकार भले ही कांग्रेस की बनी हो लेकिन वोटिंग प्रतिशत बहुत ही मामूली अंतर से बीजेपी का ज्यादा था। सिर्फ एक-दो फीसदी वोट प्रतिशत के इधर-उधर हो जाने से ही मप्र में कमल मुरझा सकता है या फिर पंजा खाली हाथ रह सकता है।
भगवा गढ़ में ही कैसे नाराज करोगे हिंदू संगठनों को
यह सारी स्थिति बीजेपी के लिए ठीक नहीं है, क्योंकि संघ, विहिप से लेकर अन्य सभी हिंदू संगठनों की सबसे ज्यादा पकड़ ही मालवा प्रांत में हैं। विधानसभा की 230 सीट में से 66 सीट मालवा-निमाड़ मे ही मौजूद हैं। इन संगठनों के बिना बीजेपी के लिए चुनाव की नैय्या पार कराना उतना ही मुश्किल है जितना ही ज्योतिरादित्य सिंधिया का अब वापस कांग्रेस में आना। साल 2013 के चुनाव में यहां 57 सीट जीतने वाली बीजेपी 29 सीट पर ही सिमट गई थी और अब इस बार वह इससे सबक लेते हुए यहां वह कोई चूक करने के मूड में नहीं है। इसके लिए धीरे-धीरे वह वरिष्ठ नेताओं, कार्यकर्ताओं की मान-मनोव्वल करने के साथ ही संगठनात्मक तैयारियों में भी लगी थी। लेकिन यह भगवा विरुद्ध खाकी के विवाद ने उसे उलझा दिया है। उधर विहिप की 30 जून से दो जुलाई तक इंदौर में मालवा प्रांत की बैठक हो रही है, जो अगले छह माह की रणनीति तय करेगी। ऐसे में सरकार को जल्द से जल्द यह मुद्दा सुलझाना ही होगा।
बीजेपी भी समझ रही मुद्दा, चुपचाप सुलझाना था लेकिन विजयवर्गीय जो पहुंच गए
बीजेपी भी इस संवेदनशील मुद्दे को समझ रही थी, इसलिए घटना के बाद उनकी ओर से कोई प्रतिक्रिया नहीं आई, इंदौर में केवल विधायक मालिनी गौड़ अपने हिंदुत्व चेहरे के कारण मुखर हुई (वह भी एक ही बयान आया), वहीं प्रदेशाध्यक्ष वीडी शर्मा भी एक ही बार बोले। लेकिन, नगराध्यक्ष गौरव रणदिवे रात को बजरंगियों से मिलने पहुंचे और जो जमकर नारे सीएम और बीजेपी के खिलाफ लगे उसने बीजेपी के कान खड़े कर दिए। राजनीतिक गलियारे में तो यह भी चर्चा है कि इस होशियारी के लिए रणदिवे को बाद में संगठन ने तबीयत से समझा दिया, कि वहां जाने की क्या जरूरत थी। लेकिन चलो रणदिवे तो संभल जाएंगे, इसके दो दिन बाद तो बीजेपी के राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय ही बजरंगियों से मिलने अस्पताल पहुंच गए और ट्वीट भी कर दिया कि दोषी पुलिसकर्मियों को बख्शा नहीं जाएगा। मजबूरी में सीएम और गृहमंत्री को भी फोन पर बात कर बजरंगियों को बताना पड़ा कि सरकार को उनकी चिंता है। दरअसल सरकार पूरे मामले को लो प्रोफाइल रखते हुए बचकर निकलना चाह रही थी। लेकिन, विजयवर्गीय की मुलाकात ने मामले को फिर से हाईप्रोफाइल बना दिया और सरकार उलझ गई। विजयवर्गीय मालवा-निमाड़ प्रांत में हिंदुत्व का सबसे बड़ा चेहरा हैं और वह खुद बोल चुके हैं कि वह विधानसभा चुनाव में इस क्षेत्र में सक्रिय रहेंगे, तो फिर वह इस बड़े मामले में नहीं बोलें यह संभव ही नहीं था, उन्हें तो सभी को साध कर ही अपने चेहरे के अनुकूल राजनीति करना ही थी।
अब बात दबे-छुपे चल रहे सबसे बड़े मुद्दे जयस जयस यूसीसी की
केंद्र सरकार ने यूसीसी (यूनिफार्म सिविल कोड) का प्रस्ताव जारी कर दिया है, इस प्रस्ताव ने आदिवासी नेताओं खासकर जयस के लिए नया मोर्चा खोल दिया है। जयस की ओर से कांग्रेस के टिकट पर विधायक बने डॉ. हीरालाल अलावा ने इस प्रस्ताव को आदिवासियों के लिए खतरा बता दिया है। अभी इस बात को बीजेपी और कांग्रेस दोनों को ही भनक नहीं है कि आदिवासी हल्कों में जयस इसे किस स्तर पर नीचे तक ले जा रही है और इसे अपनी संस्कृति के लिए सीधे हमला बता रही है। आदिवासियों की संस्कृति और यूसीसी में जमीन आसमान का अंतर है और बात सीधे जयस उन्हें समझाने में जुट गई है। बीजेपी द्वारा आदिवासियों के लिए किए जा रहे काम, पेसा एक्ट, यह सभी इस समझाइश के आगे घुटने टेक देंगे और सब धरा रह जाएगा, क्योंकि आदिवासी समाज अपनी संस्कृति से किसी तरह का समझौता नहीं करेगा।
सीधे 30 सीटों पर डालेगा असर
यूसीसी का यह मामला मालवा-निमाड़ की 22 आदिवासी सीटों के साथ ही कम से कम आठ और आदिवासी बाहुल्य सीटों पर प्रभाव डालेगा। यानि बीजेपी की मुश्किल बढ़ेंगी लेकिन यह तभी होगा जब कांग्रेस और जयस के बीच सीधा समझौता हो जैसा कि छिंदवाड़ा एरिया में गोंडवाना गणतंत्र पार्टी के साथ हुआ है। यदि जयस को साधने मे कांग्रेस कामयाब होती है तो फिर बीती सफलता 22 आदिवासी सीटों में से 15 पर जीत, से भी आगे निकल सकती है। खासकर धार, झाबुआ, अलीराजपुर, बड़वानी जिलों की 14 आदिवासी सीटों पर यह सबसे अहम साबित होने वाला है। बाकी खंडवा, बुरहापुर, देवास और खरगोन जिलों में भी आदिवासी प्रभाव है, यहां पर विधानसभा की 17 सीटें हैं। यह सभी सीटें फिर से चुनाव में निर्णायक साबित होने वाली हैं।