RAIPUR. बस्तर से सरगुजा तक चुनावी यलगार हो, की बात पर कांग्रेस और बीजेपी में दो बातें समान हैं। पहला तो यह है कि दोनों ही दलों के शीर्षस्थ नेता यह नारा दे रहे हैं, और दूसरा यह है कि बीजेपी और कांग्रेस दोनों ही दलों के कार्यकर्ताओं में इस नारे का करंट नहीं दिख रहा है। कांग्रेस परंपरागत रूप से अपनी ही पनपाई समस्याओं के विकराल स्वरूप से दो चार होने को अभिशप्त सी है तो वहीं बीजेपी के कार्यकर्ताओं के भीतर अब भी यह मानस है कि रोटी को अच्छी तरह सेंकने के लिए पलटना जरूरी है। ठीक वैसे ही संगठन को आमूलचूल बदलना होगा।
बदलाव का मसला स्थानीय चेहरों पर ज्यादा है
बीजेपी के कार्यकर्ताओं की इस बात को इस रूप में समझना जरूरी है कि यह बदलाव का मसला स्थानीय चेहरों क्षत्रपों पर ज्यादा है। जहां तक बीजेपी के राष्ट्रीय टीम से भेजे गए रणनीतिकारों का मसला है तो वे लंबी बैठकें ले रहे हैं और भाषणों से पूरा सदन गूंजा रहे हैं, लेकिन बीजेपी के कार्यकर्ता का जो मानस है उसे नहीं समझ पा रहे हैं। बीजेपी जिसका आधार संगठन है और संगठन की प्राणशक्ति कार्यकर्ता है। इस दल को फिर सत्ता में पहुंचाने के लिए नित नए कार्यक्रम ला रहे बीजेपी के रणनीतिकार यह नहीं बता पा रहे हैं कि पंद्रह बरस की सत्ता और करीब-करीब पांच बरस के विपक्ष के दौरान कौन सी नई पीढ़ी सामने छांट ली गई है जो नेतृत्व करेगी, फिर वह मंडल का विषय हो या जिले का या प्रांत का।
एक कांग्रेस के भीतर कई कांग्रेस के मसले पर जूझ रही कांग्रेस
सत्ता का मार्ग सड़क पर संघर्ष से होकर गुजरता है, लेकिन हालिया दिनों तक भी ऐसा कोई आंदोलन सरगुजा से बस्तर तक बीजेपी के खाते नहीं है। प्रधानमंत्री आवास जैसे आंदोलन से जो ऊर्जा बीजेपी में दिखी भी वह फिर नदारद है। जहां तक कांग्रेस का मसला है तो कांग्रेस के भीतरखाने भी हालात कमोबेश समान ही हैं। एक कांग्रेस के भीतर कई कांग्रेस का मसला वह मसला है जिससे कांग्रेस हमेशा जूझती है। सत्ता में रहने पर यह आलम सर चढ़कर बोलता है। जाहिर है छत्तीसगढ़ इससे अछूता नहीं है। कांग्रेस सत्ता पर काबिज है। ढाई साल के वादे को खारिज करने के लिए अपने ही दल विरोधियों को सताने और परेशान करने की रणनीति अपनाई गई।
“शक्ति बस एक है” का हश्र कांग्रेस संगठन में भी दिखा
क्षत्रपों से लदकद कांग्रेस में “शक्ति बस एक है” का भाव साबित करने के लिए हर क्षत्रप के क्षेत्र में एक प्रतिनिधि स्थापित कर दिया गया। हश्र संगठन में भी दिखना ही था और वो दिखा भी। प्रदेश कांग्रेस की संगठन प्रभारी कुमारी सैलजा का शायद ही कोई ऐसा दौरा होगा जहां ब्लॉक अध्यक्ष से लेकर प्रदेश अध्यक्ष तक ने हलाकान करने वाले हालात से उन्हें रूबरू ना कराया हो। पंद्रह साल के बाद हासिल सत्ता लंबी टिकने के लिए जरूरी है कि, सत्ता कहीं एक केंद्रित ना हो और सारे लाभ “मैं और मेरे” पर टिके ना हो। लेकिन कांग्रेस में ऐसा हुआ ही इसके ठीक उलट। योजनाएं बनी और प्रचार भी खूब तामझाम से हुआ, लेकिन भ्रष्टाचार ने सब पर अपने सशक्त हस्ताक्षर किए हैं।
कांग्रेस की हर योजना पर बीजेपी सवाल खड़े कर रही है
कांग्रेस ने जिन योजनाओं को फ्लैगशिप योजना बताकर बैनर होर्डिंग से रंग दिया गया, उस हर योजना में बीजेपी सवाल खड़े कर रही है। “मैं मेरा और मेरे लोग” के गीत के बोल कितने गहरे है यह ईडी की कार्रवाई और उसके रिमांड नोट और चालान में दर्ज है। ईडी की कार्रवाई को बदले की कार्रवाई बताने की दलीलों पर मतदाता कितना ध्यान देगा उससे पहले कांग्रेस के सत्ताधीशों को यह देखना चाहिए कि, खुद उनके कार्यकर्ता इन छापों को लेकर क्या मानस रखते हैं। कर्नाटक चुनाव के बाद कांग्रेस में जो परिदृश्य बना, जिसके बाद संगठन प्रभारी कुमारी सैलजा को सीएम हाउस में बैठक हुई उसका केंद्र भी यही सवाल था कि, जिस भ्रष्टाचार के मसले पर कर्नाटक जीते वह तो यहां आरोपों के क्रम में सबसे उपर है आखिर इनका जवाब क्या है ?
तीसरी शक्तियों का क्षेत्र विस्तारित हो रहा है
छत्तीसगढ़ के नक्शे को देखें तो समझ आता है कि तीसरी शक्ति को खारिज करने की बात इस बार जल्दबाजी होगी। छजका के रूप में अजीत जोगी ने दम दिखाया। छजका सतनाम बाहुल्य सीटों पर बेहद तेजी से सक्रिय है। छजका का कार्यक्रम बस्तर में भी दिख रहा है। आम आदमी पार्टी जो अरसे तक छत्तीसगढ़ के निचले मैदानी इल्कों में सक्रिय थी वह तेजी से डोर टू डोर कैंपेन के जरिए प्रदेश के अन्य इलाकों में भी दिख रही है। वहीं बसपा जिसकी सीट किसी भी सूरत में दो से कम नहीं हुई वह अपने कैडर वोट के बीच बेहद तेजी से सक्रिय है। इन सबके साथ सर्व आदिवासी समाज के बैनर तले भानुप्रतापपुर उप चुनाव में धमाकेदार प्रदर्शन करने वाले आदिवासी समाज के भीतरखाने चल रही सक्रियता गौरतलब है। आदिवासी समाज के बीच सक्रिय और कभी कांग्रेस के कद्दावर आदिवासी नेता रहे पूर्व केंद्रीय मंत्री अरविंद नेताम यह कह चुके हैं आदिवासी समाज समाज के बैनर पर विधानसभा चुनाव लड़ेगा। जिस तरह की तैयारी है उससे यह साबित भी हो रहा है कि आदिवासी समाज के बैनर तले चुनाव लड़ने की बात केवल बात नहीं है।