ANAND BAKHSHI B’DAY SPECIAL: कागज पर लिखा अपनी जिंदगी का मकसद, जब पा लिया तो फिर एक इच्छा जताई, जानें

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ANAND BAKHSHI B’DAY SPECIAL: कागज पर लिखा अपनी जिंदगी का मकसद, जब पा लिया तो फिर एक इच्छा जताई, जानें

पंकज स्वामी, JABALPUR. 21 जुलाई को मशहूर गीतकार आनंद बख्शी का जन्मदिन होता है। 1930 में पाकिस्तान के रावलपिंडी में उनका जन्म हुआ था। 30 मार्च 2002 को मुंबई में उनका निधन हो गया। बख्शी आर्मी में थे, लेकिन उनका सपना कुछ और था। अपने सपने को उन्होंने बाकायदा लिखा था। सपना पूरा होने के बाद भी उसे कलमबद्ध किया। जानें, आनंद बख्शी साहब ने क्या लिखा था...





इस दुनिया में चाहे कोई गरीब हो या अमीर, उसका जिंदगी में एक मकसद होना चाहिए। एक आदमी जिसका जिंदगी में कोई उद्देश्य ना हो, वो वैसा ही रहेगा, जैसे रडार बिना कोई जहाज (शिप)। वो जहाज केवल हवाओं के भरोसे ही अपनी दिशा तय करेगा। बिना मकसद के जिंदगी कुछ भी नहीं है। मैं एपी बख्शी संगीत सीखने का इरादा रखता हूं। मैं जिंदगी में आर्टिस्ट बनना चाहता हूं। अगर मैं इसे पा लूंगा तो मैं फिल्म, रेडियो, थिएटर जॉइन करूंगा। मैं गायक, सॉन्ग कंपोजर, म्यूजिक डायरेक्टर या डायरेक्टर बनना चाहता हूं। ये बातें मशहूर गीतकार आनंद बख्शी ने 24 जनवरी 1950 को जबलपुर (तब जब्बलपुर) में लिखी थी।







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आनंद बख्शी ने अपनी जिंदगी के मकसद को बाकायदा शब्दों के रूप दिया और उसे अचीव किया।







इसके बाद उन्होंने 10 अक्टूबर 1988 को फिर कुछ लिखा। बख्शी ने लिखा- मेरा सपना पूरा करने के लिए भगवान को धन्यवाद। तो आखिर ये हो गया। मैं एक कामयाब गीतकार बन गया। मैंने पैसा, नाम, फ्लैट, कारें सबकुछ कमाया, लेकिन ना जाने क्यों जिंदगी की इस यात्रा में अपना आत्मविश्वास (सेल्फ कॉन्फिडेंस) खो दिया। मैं आनंद प्रकाश से आनंद बख्शी बन गया। मैं अब आनंद बख्शी से आनंद प्रकाश बनना चाहता हूं। मुझे लगता है कि मैंने एक बार कर लिया था। एक बार और कर लूंगा।







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फिल्मों में जाने से पहले आनंद बख्शी सेना में थे।







फौजियों के मनोरंजन के लिए लिखते थे





आनंद बख्शी फिल्मफेयर अवॉर्ड में 40 बार सर्वश्रेष्ठ गीतकार (बेस्ट लिरिसिस्ट) के लिए नॉमिनेट हुए थे, 4 बार उन्हें ये अवॉर्ड मिला। बख्शी ने युवावस्था में ही कविताएं लिखना शुरू कर दिया था, लेकिन इस बारे में किसी को बताया नहीं। बख्शी ने सेना भी जॉइन की थी। शुरुआत में जबलपुर में भी पोस्टेड रहे। इस दौरान वे कभी-कभार ही लिखते थे। लेकिन जब भी उन्हें वक्त मिलता, वे सिर्फ कविताएं ही लिखते थे। शुरुआत में वे अपनी ट्रूप (फौज) पर ही लिखते थे। सेना में रहने के दौरान वे अपने गाने बंबई (अब मुंबई) की फिल्मी दुनिया को भेजा करते थे। बख्शी ने 1975 में रिलीज हुई फिल्म शोले के लिए किशोर कुमार, मन्ना डे और भूपेंद्र सिंह के साथ मिलकर कव्वाली गाई थी, लेकिन ये फिल्म में नहीं डाली गई। इसके अलावा उन्होंने तीन फिल्मों महाचोर (1976), चरस (1976) और बालिका वधू (1976) में भी गाना गाया था।





खुद को प्रेरित करने के लिए कविता लिखी





जो तकदीरों से फिर जाए, वह तदबीरें नहीं होती।



बदल दे न जो तकदीरें, वह तदबीरें नहीं होती।





ये आनंद बख़्शी की लिखी पहली कविता है। 1956 में जब वे दूसरी बार बंबई में बतौर गीतकार अपनी किस्मत अजमाने आए थे, तब उन्होंने यह कविता खुद को प्रेरित करने लिखी थी। अपने सपने को साकार करने के लिए उन्होंने दूसरी बार फौज को छोड़ा था। उन्होंने कहा था-‘जब मैं फिल्मों में आया, तो मैंने खुद को प्रेरित करने के लिए ये कविता लिखी थी, इसने मुझे अपनी जद्दोजहद, काम और निजी जिंदगी में हमेशा प्रेरित किया।’ भारतीय फौज में बतौर आनंद प्रकाश भर्ती हुए। 1947 से 1950 के बीच फौज में नौकरी करते हुए आनंद प्रकाश ने पहली बार कविताएं लिखना शुरू किया, तो उन्होंने कविताओं के नीचे दस्तख़त किए- आनंद प्रकाश बख्शी। 1959 में अपनी पहली फिल्म ‘भला आदमी’ की रिलीज़ के बाद ही वे आनंद बख़्शी कहलाए।





परिवार को नाटक, फिल्में पसंद नहीं थीं





आनंद बख़्शी को गाने गाना और बैंजो बजाना बड़ा पसंद था। वे आसानी से रामलीला, सोहनी महिवाल, लैला मंजनू, नौटंकी और नाटकों के लिए संवाद व गीत लिख लेते थे। वे अपनी कविताएं अपने घर के बाहर की सड़क पर खड़ा हो कर गाते थे। मंच पर जा कर भी गा लेते थे। उस ज़माने में जब तक गाना नहीं आता हो, उसको अच्छे रोल नहीं दिए जाते थे। आनंद बख़्शी को हर नाटक में रोल मिलते थे। कई बार उन्होंने नाटकों में लड़कियों के कि‍रदार भी निभाए थे। आनंद बख़्शी को नाटक देखने या उसमें हिस्सा लेने पर उनके बाऊ जी छड़ी से पीटते थे। उनके घर में फिल्मों या नाटक के बारे में भी बात करने की मनाही थी। उनके परिवार में अध‍िकांश लोग फौज या बैंक में काम करते थे। सभी लोग नौकरीपेशा थे। यहां तक कि उनके परिवार में कारोबार करना भी अच्छा नहीं माना जाता था। ये कहा जाता था कि ये हमारे ख़ून में नहीं है। 





फौजी बने, पर तमन्ना एक ही थी





आनंद बख़्शी को रामायण की चौपाइंया या गीता के श्लोक या गुरू ग्रंथ साहब का पाठ या अज़ान की आवाज बड़ी मीठी लगती थी। उन्हें खेतों में काम करते किसानों के गाने भी पसंद थे। शायद यही वजह है कि वे इस तरह के गाने आसानी से लिख सके- मेरे देश में पवन चले पुरवाई या ल‍िखा है ये इन हवाओं में, लिखा है ये इन घटाओं में, मैं हूं तेरे लिए, तू है मेरे लिए। स्कूली दिनों में उनकी तमन्ना थी फिल्मों में गायक और अभ‍िनेता बनने की। 1947 में जबलपुर में फौज में भर्ती होने के समय उन्हें अहसास हो गया था क‍ि एक दिन उनके गाने रेडियो पर बजेंगे। वे सपना देखते थे कि एक दिन वे बंबई जाएंगे और उन्हें फिल्मों में काम मिल जाएगा। उन्हें यह नहीं पता था कि ये कब होगा और कैसे होगा। 





15 नवम्बर 1947 में आनंद बख़्शी जब जबलपुर में फौज के सिग्नल कोर में भर्ती हुए, तब उनकी उम्र थी केवल 17 साल। उन्हें सिग्नल मैन का रेंक मिला था। जबलपुर में उन्होंने कविताएं लिखना शुरू कर दी थीं। तब तक उन्हें पता चल गया था कि वे जो गाने गाते हैं, उन्हें किन गीतकारों ने लिखा है। उन्हें यह भी पता चल गया था क‍ि संगीतकार और निर्माता का क्या काम होता है। आनंद बख़्शी अपनी कविताओं को मीटर में गानों की तरह लिखते और अपने बैरक में अपने फौजी साथ‍ियों व अफ़सरों के सामने गाते। उन्हें जब अफ़सर शाबासी देते तो ये अहसास बड़ा गहरा होता कि उनके भीतर एक हुनर है। धीरे-धीरे वे वार्ष‍िक थ‍िएटर के आयोजनों या बड़ा खाना में भी अपनी पेशकश देने लगे। फौज की चौक‍ियों या कैंप में, सब जगह राष्ट्रीय पर्वों के मौके पर बड़ा खाना आयोजित किया जाता था।





आमतौर पर एक यूनिट यानी कोई बटालियन या रेजीमेंट ‘यूनिट लाइन’ में एक साथ रहती है। ये एक परिसर होता है जिसमें आमतौर पर टुकड़‍ियों के लिए बैरकें बनी होती है। खेल का मैदान, हथ‍ियार घर, दफ्तर की इमारतें और ट्रेनिंग सेंटर होता है। हर यूनिट का एक छोटा सा स्कूल होता है, जहां जवानों और बिना कमीशन वाले अफसरों के लिए क्लासें चलायी जाती हैं। उन्हें अलग-अलग परीक्षाओं के लिए तैयार किया जाता है। यहां जवानों की दैनिक जीवनचर्या नियोजित रहती थी। यहां सुबह उठने से लेकर दिन भर के काम, शाम को खेलकूद और रात को दस बजे बिगुल बजने का संकेत होता था कि बत्त‍ियां बुझा दी जाएं। सारे जवानों को बिस्तर चले जाना पड़ता था। एक फ़ौजी की जिंदगी का हर घंटा एकदम सख्त और तयशुदा होता था। बिगुल की आवाज़ से तय होता था कि उन्हें आगे क्या करना है। आनंद प्रकाश यानी कि आनंद बख़्शी का फौज में शामिल होने का इकलौता मक़सद था-‘आत्मनिर्भर बनना, अपने भरोसे रहना।‘ अपने परिवार चलाने के लिए पैसे कमाना।’ सिग्नल कोर में यूनिट के अंदरूनी टेलीफोन एक्सचेंज में हर ऑपरेटर को एक कोड नाम दिया जाता था। फ़ौजी आनंद बख़्शी का कोड नाम था-आज़ाद। ये नाम ट्रेनिंग में भी रहा और आगे चल कर अमन के दौरान पोस्ट‍िंग में भी। 





अपने अंदर के कलाकार को जिंदा रखा





आनंद बख़्शी ने रोज़ की परेड और मेहनत के बीच भी अपने भीतर के कलाकार को ज़‍िंदा बनाए रखने के तरीके खोज लिए थे। ब्रेक के दौरान अपनी नज़्में लिखते थे। 1949 में राज कपूर और नर्गिस के अभ‍िनय वाली ‘बरसात’ फिल्म को बीस बार देखा था। आनंद बख़्शी को फिल्म के गाने पसंद आए थे। उन्होंने कुछ ही महीनों में ‘बरसात’ के गानों को अपनी तरह से लिख लिया था। मानो वे उस फिल्म के गीतकार ही हों। वे इन गीतों को अपने साथ‍ियों के लिए गाते थे। सबको उनके गाने पसंद आते थे। आनंद बख़्शी सब के बीच लोकप्रिय हो गए। जब वे देशभक्त‍ि के या रूमानी गाने लिखते तो फ़ौजी दोस्त उन्हें सुन कर तालियां और सीटियां बजाते। 





कविताएं और गाने लिखना और उन्‍हें गाकर अपने साथ‍ियों का मनोरंजन करना, ये एक सहारा था जिसने ज़ोरदार ट्रेनिंग, घर और बीजी से दूर रहने में आनंद बख़्शी की बड़ी मदद की। जबलपुर मे फ़ौज में रहने के दौरान आनंद बख़्शी ने सभी नाटकों में हिस्सा लिया। जल्दी ही यूनिट के बाहर के सीनियर भी उन्हें पहचानने लगे। आनंद बख़्शी का परिचय कुछ इस तरह करवाया जाता-‘’ये है वो फ़ौजी जो नज़्म ल‍िखता है, गाता भी है और नाटकों में अभ‍िनय भी करता है।‘’ इसके बाद उनको अहसास गहरा होने लगा कि उन्हें अपनी बाक़ी ज़‍िंदगी फ़ौज में नहीं बितानी है। आनंद बख़्शी को लगा कि जो वे चाहते हैं, वह उन्हें यहां (फ़ौज में) तो करने नहीं मिलेगा। 





1950 में फौज छोड़ी और बंबई पहुंच गए





18 जून 1949 को आनंद बख़्शी सिग्नल ट्रेनिंग सेंटर जबलपुर में स्व‍िच बोर्ड ऑपरेटर क्लास थ्री बन कर निकले। इसके बाद उन्हें फ़ौज की नौकरी छोड़ने का विचार आने लगा। परिवार के लोग उनके इस निर्णय से सहमत नहीं थे। आनंद बख़्शी जबलपुर में सिग्नल कोर की नौकरी में 1947 से 1950 तक रहे। इसके बाद वे बैंगलोर में जलहल्ली पूर्व में 1951 से 1953 तक रहे। इसके बाद आनंद बख़्शी जम्मू और दूसरी डिवीजन में तैनात रहे। जबलपुर में आला अफ़सर जनरल दुबे ने आनंद बख़्शी को का हौंसला बढ़ाया कि वे फ़ौज छोड़ें और बंबई जा कर फिल्मों में अपना भाग्य अजमाएं। इससे आनंद बख़्शी का उत्साह बढ़ा। जबलपुर पदस्थापना के समय 25 मार्च 1950 को प्रत‍िष्ठ‍ित ‘सैनिक समाचार’ में उनकी दूसरी कविता छपी। पहली कविता तब छपी थी जब वे रावलप‍िंडी में थे। 10 अप्रैल 1950 को उन्होंने फ़ौज को छोड़ दिया और बंबई फिल्मी दुन‍िया किस्मत अजमाने चले गए।





1958 में पहली बार फिल्मों में लिखा और फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा





आनंद बख्शी को पहली बार बृजमोहन की फिल्म भला आदमी (1958) में गाने लिखने का मौका मिला। इसमें भगवान दादा एक्टर थे। उन्होंने इस फिल्म के लिए 4 गाने लिखे। उनका पहला गाना धरती के लाल, ना कर इतना मलाल 9 नवंबर 1956 को रिलीज हुआ था। बख्शी को कामयाबी 1962 में (फिल्म मेहंदी लगी मेरे हाथ) मिली। इसमें म्यूजिक कल्याणजी-आनंदजी का था। 1965 में आई फिल्म हिमालय की गोद में जबर्दस्त सफलता मिली। बख्शी के लिखे गानों ने तूफान मचा दिया। 





1965 में ही आई जब जब फूल खिले (एक्टर शशि कपूर-नंदा) और 1967 में आई मिलन (एक्टर- सुनील दत्त) के गाने भी सुपरहिट रहे। गायक के तौर पर उन्हें पहला ब्रेक 1972 में फिल्म मोम की गुड़िया के लिए मिला। इसमें उन्होंने लता मंगेशकर के साथ बागों में बहार आई, होठों पे पुकार आई गया। इसमें लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल का संगीत था। इसी फिल्म में उन्होंने एक सोलो सॉन्ग मैं ढूंढ रहा था सपनों में गाया था।





आनंद बख्शी ने लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल, आरडीबर्मन, कल्याणजी-आनंदजी, एसडीबर्मन, अनु मलिक, राजेश रोशन और आनंद-मिलिंद जैसे संगीतकारों के साथ काम किया। उनके लिखे गानों से कई सिंगर्स शैलेंद्र सिंह, कविता कृष्णमूर्ति, कुमार सानू ने करियर की शुरुआत की। बख्शी ने अपने करियर में 638 फिल्मों में 4 हजार से ज्यादा गाने लिखे।





आनंद बख्शी ने मशहूर फिल्मों के लिए गाने लिखे





आराधना (1969), जीने की राह, मेरा गांव मेरा देश, आए दिन बहार के, आया सावन झूम के, सीता और गीता, शोले, धरमवीर, नगीना, लम्हें, हम, मोहरा, दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे, परदेस, हीर रांझा, दुश्मन, ताल, मोहब्बतें, गदर- एक प्रेम कथा, यादें (2001)



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