जयराम शुक्ल, rewa. कुछ साल पहले जब यह खबर आई कि राजकपूर (Raj Kapoor) के बेटों ने तय किया है कि वे अब आरके स्टूडियो (RK Studio) बेच देंगे तो यह अनुमान लगाने लगा कि बेटों के इस निर्णय से कृष्णा कपूर (Krishna Kapoor) पर क्या गुजरी होगी..? आरके स्टूडियों का बेचा जाना एक ग्रेट शो मैन के सपनों का बेचे जाने जैसा है, मजबूरी कैसी भी हो। राज साहब को फिल्मी दुनिया (film world) में सपनों का सौदागर कहा जाता था, उनके सपनों को बुनने का काम कृष्णा कपूर ने किया था। सपनों के बुनावट की प्रक्रिया में अंगुलियां ही नहीं दिल भी लहूलूहान हुआ होगा। सपनों का बिक जाना उम्मीदों के मर जाने जैसा है। ग्रेट शोमैन के सपनों की बुनकर कृष्णा जी भी अब परलोक चली गईं। आया है सो जाएगा राजा, रंक, फकीर।
यह संतोष की बात है कि आरके स्टूडियो की जब सौदेबाजी चल रही है उससे पहले ही उनका सपना, उनकी स्मृति के रूप में बॉलीवुड (bollywood) से हजारों किलोमीटर दूर रीवा में भव्य आकार पा चुका है, एक सांस्कृतिक केंद्र (cultural center) के रूप में। जिसे आज कृष्णा राज कपूर ऑडिटोरियम (krishna raj kapoor auditorium) के नाम से जाना जाता है। राज कपूर को ग्रेट शोमैन के रूप में गढ़ने का योगदान रीवा को है। उनकी पत्नी कृष्णा यहीं पली, बढ़ीं और पढ़ीं। उनके निधन के बाद जो संस्मरण पढ़ने को मिल रहे हैं उनमें एक मूल स्वर यही है। कृष्णा ही वो शख्सियत हैं जिन्होंने राजकपूर को सपने को गढ़ना सिखाया, शिखर तक पहुंचाया।
आह और आग फिल्मों का थीम था रीवा
बॉलीवुड में रील लाइफ रियल लाइफ को ढक लेती है। कृष्णा कपूर ने इस मिथक को तोड़ा। वे अपने समकालीन अभिनेत्रियों से कई-कई गुना बड़ी और प्रभावशाली सेलिब्रिटी थीं। उनको रीवा के संस्कार मिले थे इस गर्वानुभूति को उन्होंने कई तरीके से व्यक्त किया और राज साहब को इसके लिए प्रेरित किया। जब वे रीवा में थीं तब इस इलाके को रीमा राज्य कहा जाता था। रीवां के नाम का चलन आजादी के बाद शुरू हुआ। स्मृतियों को सहेजे रखने की ही गरज से कृष्णा और राज साहब ने बेटी का नाम रीमा रखा, ऐसा उनके पारिवारिक मित्र जयप्रकाश चौकसे भी मानते हैं। 1953 में "आह" फिल्म की केंद्रीय थीम में रीवा था। "आग" में भी रीवा को दोहराया।
संयुक्त परिवार की मजबूत कड़ी थीं कृष्णा
संयुक्त परिवार के संस्कार उन्हें रीवा से ही मिले थे। आज भी रीवा-सतना में संयुक्त परिवार और नाते रिश्तेदारियों के सहज उदाहरण हैं। अपनी एकांत दुनिया में सितारा बनकर खोए रहने वाले बॉलीवुड में वर्षों तक कपूर परिवार सांझे चूल्हे की अनूठी मिसाल बना रहा। वैसी ही किस्सागोई वैसी ही चौपाल और वैसे तीज-त्योहार। सही मायने में कृष्णा कपूर ने बॉलीवुड की चकाचौंध में भी हमारी संस्कृति को जीया। यहां के माटी की सुगंध जीवन पर्यंत उनके अवचेतन में बसी रही।
जब रणधीर कपूर ने रुमाल में बांध ली इस घर की मिट्टी
ये दो साल पहले की बात है जब कृष्णा राजकपूर आडिटोरियम के भूमिपूजन के लिए 14 दिसम्बर 2015 को रणधीर कपूर आए तो लौटते में उस आंगन की मिट्टी को अपनी रुमाल में बांधकर ले गए। बताया मम्मा (कृष्णा) ने मंगाया है। वे उस पीपल के पेड़़ को भी तजवीजते रहे जिसके किस्से सुनाकर उनकी मां ने उन्हें रीवा (Rewa) भेजा था। उस घर में जहां कृष्णा कपूर का जन्म हुआ और राजकपूर के साथ परिणय के बाद उनकी डोली उठी आज वहीं पर उन्हीं के नाम से भव्य आडिटोरियम है। बॉलीवुड या अन्य कहीं शायद ही राजकपूर की स्मृति को सहेजने का ऐसा काम हुआ हो जो मध्यप्रदेश की तत्कालीन सरकार की सदाशयता और उसके मंत्री रहे राजेन्द्र शुक्ल के संकल्प के चलते रीवा में हुआ है। मेरे लिए भी यह सौभाग्य की बात रही कि इस पूरे प्रकरण की पटकथा तैयार करने का अवसर मिला।
जहां हुआ कृष्णा का जन्म वहीं बना आडिटोरियम
पवित्र संकल्प के साथ जब कोई काम शुरू होता है तो उसका पथ प्रशस्त स्वमेव होता जाता है। रीवा में सांस्कृतिक केन्द्र की जरूरत और कृष्णा राजकपूर के स्मृति प्रसंग एक साथ उठे। पुनर्घनत्वीकरण की योजना के तहत जो भूमि चिंन्हांकित की गई संयोग से वही थी जहां कभी रीमा राज्य के पुलिस प्रमुख करतारनाथ सिंह मल्होत्रा का बंगला था। जयप्रकाश चौकसे ने यह जानकारी दुरुस्त की कि कृष्णा का जन्म भी इसी घर में हुआ था। जब एक भव्य सांस्कृतिक परिसर और आडिटोरियम के निर्माण की रूपरेखा को अंतिम रूप मिला तो स्थानीय साहित्य व संस्कृति कर्मियों के आग्रह पर इसका नाम राजकपूर से जोड़ना सुनिश्चित हुआ। कृष्णा कपूर सिर्फ चर्चाओं तक ही सीमित रहीं। इसी बीच विश्वविद्यालय के एक कार्यक्रम में व्याख्यान देने जयप्रकाश चौकसे आए। उन्होंने आडिटोरियम देखने की इच्छा व्यक्त की। इसी बीच उनका यह सुझाव आया कि कृष्णा जी को जोड़े बिना यह अधूरा ही रहेगा। इस तरह जिस आडिटोरियम का राजकपूर होना था उसमें कृष्णा जोड़ दिया गया। यह संतुष्टि की बात है कि उनके जीवन के रहते ही इस यश के भागीदार बनने का सुख उन्हें मिला होगा।
शो मैन की जयंती पर आडिटोरियम का लोकार्पण
कृष्णा राजकपूर आडिटोरियम को लोकार्पित करने की तिथि उनके विवाह की तिथि 12 मई निर्धारित की गई (विवाह 1946 में इसी दिन हुआ था)। कुछ ऐसा व्यतिक्रम आया कि वह तिथि अनजाने ही आगे खिसककर 2 जून हो गई। यह बाद में जाना कि 2 जून राजकपूर के महाप्रयाण का दिन भी है। और इसतरह जिस तिथि को राजकपूर का यथार्थ स्मृति में बदला उसी तारीख को उनके नाम से बने आडिटोरियम का लोकार्पण हुआ। इस मौके पर सभी की यह आकांक्षा थी कि कृष्णाजी उपस्थित रहें। पर वे अस्वस्थ थीं। चौथेपन में उन्हें भी वही संस का रोग था, जिसने राजसाहब की जान ली। यही रोग इनकी भी मृत्यु का निमित्त बना। लोकार्पण के मौके पर ज्येष्ठ पुत्र रणधीर कपूर तो आए ही करतार नाथ के पौत्र, प्रेमनाथ के पुत्र प्रेमकिशन भी पहुंचे। यह भी लोगों ने उसी दिन जाना कि प्रेम चोपड़ा की पत्नी उमाजी का भी जन्म यहीं इसी घर में हुआ, वे कृष्णा जी की बहन हैं। प्रेम-उमा चोपड़ा दोनों ही आए।
लता-किशोर की तरह कृष्णा कपूर के नाम पर हो पुरस्कार
बॉलीवुड में स्नेह, संवेदनाएं और जीवन मूल्य सिर्फ रील लाइफ में ही देखी जा सकती हैं। यहां रियल लाइफ मरुभूमि की तरह बंजर है, रिश्ते भावनाओं के नहीं सूचनाओं के विषय हैं। सो कृष्णा राजकपूर की तीसरी पीढी जिसका प्रतिनिधित्व करिश्मा, करीना और रणवीर वगैरह करते हैं शायद ही दादा-दादी से शुरू हुई इस रिश्तेदारी और उनसे जुड़ी हुई स्मृतियों को सहेज कर रख सकें। पूर्व मंत्री राजेन्द्र शुक्ल की पहल पर मध्यप्रदेश सरकार के समक्ष एक और महत्वपूर्ण प्रस्ताव लंबित है, वह है राजकपूर के नाम पर प्रतिवर्ष एक राष्ट्रीय पुरस्कार जो क्रमशः वर्ष के श्रेष्ठ अभिनेता और निर्देशक को दिया जाए। संस्कृति विभाग इस प्रस्ताव का परीक्षण कर रहा है। उम्मीद की जाना चाहिए कि जैसे लता मंगेशकर के नाम से इंदौर में किशोरकुमार के नाम से खंड़वा में प्रतिवर्ष समारोह पूर्वक पुरस्कार दिए जाते हैं उसी क्रम में राजकपूर से जोड़कर रीवा में भी शुरू हो जाएगा। कृष्णा की स्मृतियों को नमन।