पंकज स्वामी, Jabalpur. जबलपुर की नई पीढ़ी विनीत टॉकीज (Vineet Talkies) नाम को नहीं जानती। पुराने लोगों की याद में अभी भी विनीत टॉकीज है। करमचंद चौक से नौदराब्रिज जाने वाली सड़क में बाएं और विनीत टॉकीज मौजूद थी। टॉकीज अब एक व्यावसायिक काम्प्लेक्स में परिवर्तित हो गई। मुझ जैसे लोगों के लिए विनीत टॉकीज इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि आज से 44 साल पहले जब मैं 10 साल का था, तब विनीत टॉकीज में डॉन फिल्म देखी थी। आज 13 मई से एक दिन पहले यानी 12 मई 1978 को डॉन फिल्म रिलीज हुई थी। तब जबलपुर में हिन्दी फिल्म एक सप्ताह बाद रिलीज होती थी, लेकिन डॉन ऑल इंडिया रिलीज के साथ विनीत टॉकीज में लगी थी।
12 मई 1978 को एक नए निर्देशक की फ़िल्म ‘डॉन’ (don) आई। किसी को अंदाज़ा नहीं था कि ये एक फ़िल्म इस निर्देशक को हमेशा के लिए मशहूर कर देगी। ना ही कोई ये जानता था कि वे इसके बाद कभी भी इस कामयाबी को दोहरा नहीं पाएंगे। अमिताभ बच्चन (Amitabh Bachchan) ने भी उस दौर में इस फ़िल्म को चुनकर बाकायदा एक रिस्क लिया था। वे नए निर्देशक मनोज कुमार (Manoj Kumar) के सहायक थे। जाने-माने छायाकार नरीमन ईरानी ने फ़िल्म को प्रोड्यूस किया था। इस फिल्म की योजना ‘रोटी कपड़ा और मकान’(roti Kapda aur makan) की शूटिंग के दौरान बनी थी। जिसके छायाकार नरीमन ईरानी ही थे।
कर्ज उतारने के लिए बनाई थी फिल्म
उन दिनों ईरानी साहब काफी निराश थे। उनपर काफी क़र्ज़ चढ़ा हुआ था। ये फिल्म असल मे नरीमन ईरानी को उनकी पिछली फिल्म ‘ज़िंदगी ज़िंदगी’ के पिटने से आये आर्थिक संकट से उबर पाएं। सलीम-जावेद के पास एक स्क्रिप्ट थी ,जिसे कई प्रोड्यूसर ठुकरा चुके थे। अमिताभ, ज़ीनत, इफ्तेखार सभी खुशी-खुशी इस प्रोजेक्ट में अपना सहयोग देने को राजी हो गए। लेकिन नरीमन ईरानी फिल्म की कामयाबी को देखने के लिए ज़िंदा नहीं रह पाए। उनकी शूट के दौरान एक दीवार गिरने से मौत हो गई। महान फिल्में ऐसे अपने पीछे कहानियां छोड़ जाती हैं। वे नए निर्देशक थे चंद्रा बारोट। फिल्म थी ‘डॉन’..जिसकी गिरफ्त से हम आज तक बाहर नहीं आ पाए। आज भी जहां कहीं ये फिल्म चलती नज़र आती है, हम अटक जाते हैं। देखी हुई फिल्मों को दोबारा देखने की चाहत का मनोविज्ञान क्या होता होगा।
विनीत की पहली फिल्म असली-नकली थी
विनीत टॉकीज जबलपुर की पुरानी टॉकीजों में से थी। 26 मार्च 1963 को इसके उद्घाटन के समय देव आनंद की 'असली नकली' लगी थी। विनीत टॉकीज के मालिक शिखर चंद जैन थे। इस परिवार का सिनेमा के व्यवसाय से करीब 100 साल पुराना संबंध है। इस परिवार ने जबलपुर की सेंट्रल टॉकीज का संचालन किया है। ये टॉकीज बाद में पंचशील टॉकीज के नाम से जानी गई। शिखर चंद जैन के मामा की रायपुर में बाबूलाल टॉकीज प्रसिद्ध रही है। जबलपुर की विनीत टॉकीज की एक खासियत यहां मराठी फिल्मों का प्रदर्शन रहा। यह उस समय जबलपुर का एकमात्र सिनेमाघर था, जहां मराठी भाषा की फिल्म सुबह के शो में लगती थी। इसलिए जबलपुर के मराठी समाज का इस टॉकीज से अपनत्व रहा। 1991 में 'माहेरची साड़ी' चार शो में विनीत टॉकीज में सफलता के साथ चली थी। जबलपुर के सिनेमा इतिहास में ये पहला मौका था, जब हिन्दी के अलावा अन्य दूसरी भारतीय भाषा की फिल्म चार शो में लगी थी।
कुछ खास है विनीत में
विनीत टॉकीज की विशेषता इसकी लेडीज क्लॉस रही है। बालकनी को विभक्त कर एक्सक्लूसिव लेडीज क्लॉस बनाया गया था। महिलाओं की सुरक्षा को ध्यान में रखकर बुकिंग से लेकर एंट्री तक की व्यवस्था बिल्कुल अलग से रखी गई थी। विनीत टॉकीज में राज कपूर की 'मेरा नाम जोकर' और दिलीप कुमार की मुगले आजम' जैसी फिल्में शान से चलीं। 2002 में सिंगल स्क्रीन वाली विनीत टॉकीज का अध्याय समाप्त हो गया, लेकिन विनीत टॉकीज के भीतर पान की दुकान वाले चूरामन शिवहरे का विनीत टॉकीज से ऐसा मोह रहा कि उनकी पान की दुकान आज भी विनीत टॉकीज के गेट के बाजू में मौजूद है। अब उनके पुत्र गजानंद गज्जू इस दुकान को चलाते हैं और पुरानी यादों में खो जाते हैं।