भारत भवन की स्थापना के साथ ही छा गया मध्यप्रदेश रंगमंडल

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Pratibha Rana
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भारत भवन की स्थापना के साथ ही छा गया मध्यप्रदेश रंगमंडल

पंकज स्वामी. Jabalpur. भारत भवन की पूरे देश में पहचान रंगकर्म के कारण रही है। भारत भवन की स्थापना के साथ ही मध्यप्रदेश रंगमंडल का गठन हुआ और इसमें पूरे मध्यप्रदेश के कुछ चुनिंदा कलाकारों का चयन हुआ। ये कलाकार आने वाले वर्षों में मशहूर भी हुए। इन्हीं कलाकारों में जबलपुर के गंगा मिश्रा रहे हैं। भारत भवन के रंगमंडल में उन्हें राम प्रसाद मिश्रा के नाम से पहचाना जाता था और जब वे मुंबई में फिल्मी दुनिया में प्रविष्ट हुए तो निर्देशक ऋषिकेश मुखर्जी ने आनंद मिश्रा नाम दिया। भारत भवन के शुरूआती नाटकों के मंचन की यह दिलचस्प कहानी है।



भारत भवन रंगमंडल में नाटक ‘घासीराम कोतवाल’ (Ghasiram Kotwal) की तैयारी शुरू हुई। भूषण दिल्लौरी नाना फड़नवीस की भूमिका निभाने वाले थे। मांगीलाल शर्मा (Mangilal Sharma) घासीराम कोतवाल का चरित्र। कोरस और अन्य किरदारों का दायित्व समस्त कलाकारों को दिया गया। गंगा को चोर ब्राहमण का किरदार मिला। बाबा कारंथ ने सेट डिजाइन का काम गंगा और जयंत देशमुख को सौंपा। दोनों ने बखूबी मंच सज्जा की। नाटक के आरंभ से अंत तक दृश्य के साथ गीतों का समावेश था। 



घासीराम कोतवाल के लिए सभी कलाकारों ने बाल मुड़वाए थे।



बाबा कारंथ के निर्देशन की विशेषता थी संगीत 



‘घासीराम कोतवाल’ का पूर्वाभ्यास आरंभ हुआ। संगीत के साथ नृत्य अभ्यास समस्त कलाकारों ने जी जान से करना शुरू किया। नृत्य के साथ-साथ कलाकारों को गाना भी था। लगातार घंटों की रिहर्सल हुआ करती थी। मंजीरे की ताल पर चलना और बजाने का अभ्यास प्रतिदिन सुबह से सारे कलाकार करते थे। गणपति बप्पा मोरया मंगल मूर्ति मोरया, नमो-नमो से गजवदन वंदना के गायन से नाटक का मंचन आरंभ हुआ करता था। सभी की नृत्य भंगिमाओं का एक जैसा होना अनिवार्य था। ‘घासीराम कोतवाल’ नाटक में राजनीति की बारीकियों को सूक्ष्म धागों में पिरोया गया था। नाना फड़नवीस घासीराम को किस प्रकार पद का प्रलोभन देता है। घासीराम, कोतवाल का पद हासिल करने के लिए किस हद तक गिर जाता है। ब्राम्हण समाज का छिपकर वेश्या के घरों में जाने के दृश्य, उनकी मानसिकता को दर्शाते हैं। यहां तक की घासीराम अपनी बेटी नाना फड़नवीस को सौंप देता है। नाटक तैयार हो गया। मंचन का दिन आ गया। 



भारत भवन के बहीरंग में हुआ मंचन 



भारत के समस्त जाने-माने कलाकारों का जमघट हुआ। नाटककार विजय तेंदुलकर भी शो देखने आए। उन दिनों भारत भवन का निर्माण चल रहा था। चार्ल्स कोरिया ने भारत भवन का डिज़ाइन किया था। बहिरंग भारत भवन भोपाल का ऐसा मंच है, जिसके पीछे भोपाल ताल दूर तक फैला हुआ दिखाई देता है। मंच पर उपस्थित कलाकारों को माइक की आवश्यकता नहीं होती। तकरीबन 800 दर्शकों तक सांस लेने की भी ध्वनि पहुंच जाती है। ‘घासीराम कोतवाल’ का सफल मंचन हुआ। अख़बारों ने सराहना की। सभी कलाकारों को दर्शकों की सराहना मिली। इससे सबका मनोबल ऊंचा हुआ। 



फिर मोहन राकेश का आधे—अधूरे 



भारत भवन रंगमंडल भोपाल की अगली प्रस्तुति की तैयारियां शुरू हो गई। इस बार मोहन राकेश की प्रसिद्ध नाट्य कृति ‘आधे-अधूरे’ को उठाया गया। ‘आधे-अधूरे’ का मंचन दिल्ली की नाट्य संस्था दिशांतर ने प्रथम बार किया था। ओम शिवपुरी ने इस नाटक में पांच भूमिका निभाई थी। इसके बाद देश भर में इसके कई प्रदर्शन हुए। गंगा मिश्रा ने उस ‘आधे-अधूरे’ को देखा था, जिसमें सत्यदेव दुबे ने अमरीश पुरी को निर्देश‍ित किया था। 



दो कश्तियों के सवार में गंगा मिश्रा



अलखनंदन के निर्देशन में तय हुआ नाटक 



नाटक में भारतीय समाज में कामकाजी महिलाओं की स्थिति साझा करती कहानी थी। परिवार से बाहर निकलने से बच्चों पर क्या प्रभाव पड़ता है। दोषी करार किसे दिया जाए। परिवार के सदस्यों को या समाज को ? या फिर दोषी स्त्री है ? इस प्रश्न पर अलखनंदन ने गहन विचार विमर्श किया। अंततः निर्णय लिया की दुनिया कुछ भी कहे- स्त्री समाज के सामने प्रश्न रखे की आप तय करें। नाटक के कलाकारों का चयन किया गया। आभा चतुर्वेदी सावित्री, जावेद ज़ैदी पुरुष एक, बेटा आलोक चटर्जी, शोभा चौरसिया (चटर्जी) किन्नी, बड़ी बेटी सरोज शर्मा, पुरुष दो जयप्रकाश शर्मा, पुरुष तीन राकेश बिदुआ, और पुरुष चार जुनेजा गंगा मिश्रा को चुना गया।



अंग संचालन में जरूरी है संतुलन

 



रियलिस्टिक अभिनय पर आधारित नाटक में अंग संचालन में संतुलन बेहद ज़रूरी होता है। लोक कलाकार के लिए इस तरह के नाटकों में अभिनय थोड़ा मुश्किल होता है। अभिनेताओं के लिए बेहद ज़रूरी है कि वे अभिनय की तमाम विधाओं की जानकारी रखें। स्लेपस्टिक, फ़ार्स, ब्लेक कॉमेडी, रियलिस्टिक,पीरियड, गायन, नृत्य, सात्व‍िक आहार्य, वाचिक, आंगिक सभी का ज्ञान प्राप्त करें। भारत भवन रंगमंडल की इस प्रस्तुति के लिए अलखनंदन ने नए स्थान को चुना। बहिरंग रंगमंच के नीचे मेकअप रूम था। वहां सेट लगना शुरू हुआ। महेन्द्रनाथ और सावित्री के परिवार की कलह, तंज और मान मनौव्वल के दृश्य बेहद प्रभावशाली बनने लगे। 



घासीराम कोतवाल के एक दृश्य में गंगा मिश्रा व शोभा चौरसिया चटर्जी



सिंघानिया जैसे किरदारों की नीयत दिखाती है आईना 



अशोक और किन्नी के माध्यम से नौजवानों की मानसिकता उभरने लगी। सिंघानिया जैसे किरदारों की नीयत समाज को आईना दिखाती है। अफ़सर महिला कर्मचारियों को किस नज़रिए से देखते हैं। पूर्व प्रेमियों की वर्तमान दशा कैसी हो जाती है। पति का मित्र जुनेजा सावित्री से किस प्रकार पेश आता है। मध्यमवर्गीय परिवारों के उलझनों को सूक्ष्म रूप से उजागर करती ‘आधे-अधूरे’ की कहानी सामने घटने लगी। मंचन का दिन आ गया। कारंथ जी ने इसमें आलाप के माध्यम से संगीतबद्ध किया। सावित्री की करुणा को दर्शकों तक सम्प्रेष‍ित करने में आलाप सहयोगी रहा। इस नाटक का प्रदर्शन सराहा गया। अखबारों में अच्छी समीक्षाएं छपी। ‘आधे- अधूरे’ नाटक के माध्यम से भारत भवन भोपाल में अभिरंग मंच की कल्पना साकार हुई।



आधे-अधूरे’ नाटक के मंचन के दौरान हुई कई मुश्किलें



‘आधे-अधूरे’ नाटक के मंचन के दौरान कुछ घटनाएं हुईं। आभा चतुर्वेदी ‘आधे-अधूरे’ में सावित्री की भूमिका निभा रही थीं। मंचन से तीन दिन पहले वे बुखार से पीड़‍ित हो गईं, लेकिन वह प्रतिदिन पूर्वाभ्यास में आती रहीं। उनकी कमजोरी बढ़ती चली गई। जिस दिन नाटक का मंचन था, उस दिन भी आभा को तेज बुखार था। अलखनंदन ने आभा को शेक्सपियर की पंक्त‍ि शो मस्ट बी गो ऑन फुसफुसाई। अभिरंग खचाखच भरा हुआ था। आभा ने जो अभिनय किया, वह अद्भुत था। तालियों की गड़गड़ाहट से हॉल गूंज उठा। सारे दर्शक मेकअप रूम में जब आए, तो देखा वे अभिनेत्री शॉल ओढ़े खड़ी थी और दर्शक उसे बधाई दे रहे थे। इसी तरह एक नाटक के मंचन के दिन एक कलाकार के परिवार में किसी संबंधी की मृत्यु हो गई। वे कलाकार छुट्टी लेकर अपने परिवार के साथ दाह संस्कार से निवृत्त हो कर शाम को नाटक के मंचन में हाजिर हो गया। वह कलाकार थे-मांगीलाल शर्मा।‘आधे-अधूरे’ नाटक के मंचन दौरान रंगमंडल ने भारतीय नुक्कड़ मेले का आयोजन किया। मध्यप्रदेश संस्कृति विभाग और भारत भवन के सहयोग से ये नुक्कड़ मेला होना तय हुआ। 



बाबा कारंथ संगीत अभ्यास करवाते हुए



भारत के सभी राज्यों से नुक्कड़ नाटकों को किया गया आमंत्रित



बाबा कारंथ ने सभी कलाकारों को जब यह सूचना दी और विचार जन्मा कि नुक्कड़ नाटकों के प्रदर्शन कहां करवाए जाएं। भारत भवन के पीछे एक बड़ी सी जगह खाली पड़ी थी। बाबा कारंथ और अलखनंदन ने कलाकारों से कहा इस जगह पर क्यों न नुक्कड़ नाटक किए जाएं। सभी कलाकारों ने उस जगह की सफाई की योजना बनाई। फुर्सत के समय सभी कलाकार वहां गेंती,फावड़ा, तसला लेकर सफाई करते थे। आखिरकार एक ऐसी जगह मिली, जहां चारों तरफ़ चट्टानें थी। आहिस्ता-आहिस्ता सबने उस जगह से मिट्टी हटाकर एक मंच का निर्माण कर दिया। जमीन से 15 फुट नीचे एक 15X10 का मंच बना दिया गया। जब भारतीय नुक्कड़ मेला आरंभ हुआ तब देश भर से आए हुए कलाकारों में उस रंगमंच को लेकर बड़ा उत्साह देखा गया। 



बाबा ने रंगमंच का नाम रखा कूप रंगमंच 



कूप रंगमंच में प्रति‍दिन नुक्कड़ नाटकों के प्रदर्शन होते थे। उन्हें देखने सैकड़ों दर्शक आते थे। देश से आए नुक्कड़ नाटकों को देखकर गंगा मिश्रा को सीखने का अवसर मिला। नुक्कड़ नाटकों के विषय प्रासंगिक थे। वे भारत की अर्थव्यवस्था पर चोट करते थे, बेरोजगारी पर चोट थी। शिक्षा पर प्रश्न खड़े किए गए। गरीबी को राजनेता अपनी जीत और चुनाव में किस प्रकार उपयोग करते हैं, उस पर कटाक्ष था। मनोरंजन के साथ सामाजिक कुरीतियों को प्रहसन के माध्यम से प्रस्तुत किया गया। 



 पूर्व रंग की परम्परा को मिलने लगी सफलता 



रंगमंडल ने एक नई परम्परा आरंभ की पूर्व रंग। एनएसडी के पूर्व छात्र आलोपी वर्मा ने हर‍िशंकर परसाई के व्यंग्य ‘एक लड़की पांच दीवाने’ का नाट्य रूपांतरण किया। पूर्व रंग का प्रदर्शन भारत भवन बहिरंग मंच के करीब सीढ़ियों तले होता था। शाम चार बजे से पांच या साढ़े पांच बजे तक मुफ्त यानी बिना टिकट किया जाता था। भारत भवन में आदिवासी कला प्रदर्शनी, मूर्ति कला, पेंटिंग प्रदर्शनी, संगीत संग्रहालय, सिरेमिक कला, लाइब्रेरी इन्हें देखने वाले और भोपाल रंगमंच के सभी कलाकार आने लगे। पूर्व रंग की परम्परा को सफलता मिलने लगी। पूर्व रंग की अगली कड़ी थी-छत्तीसगढ़ की लोकगायन शैली पंडवानी। झाडूराम देवांगन का भारत भवन भोपाल आगमन हुआ। पंडवानी गायन महाभारत के किसी एक प्रसंग पर आधारित रहता है। द्वारका प्रसाद और अमर सिंह जैसे कलाकार हबीब तनवीर के निर्देशन में कार्य करने के उपरांत भोपाल आ जाते थे। उन्हें छत्तीसगढ़ी भाषा का अच्छा ज्ञान था। उन्होंने पंडवानी गायन को जल्दी पकड़ लिया। गंगा सहित सभी कलाकारों ने भी भरसक प्रयास किए किन्तु सम्पूर्ण ज्ञान ना पा सकें। कलाकारों ने पूर्व रंग में किसी तरह पंडवानी गायन किया, जिससे भरपूर प्रशंसा मिली। 

 

 



देश-विदेश के कलाकार भारत भवन आने लगे



इसके बाद सागर के राम सहाय पांडे बुंदेलखंड की लोक संस्कृति का हिस्सा राई-बरेदी के गायन-वादन और नृत्य भंगिमाओं का वर्कशॉप लेने रंगमंडल आए। गंगा ने महीनों की कड़ी मेहनत और गंभीरता से लोक गीतों का अभ्यास कर अहीर जाति की परंपरा को जीवित किया। भोपाल के दर्शक चकित रह गए। विभिन्न प्रादेशिक लोक कलाओं का प्रदर्शन करते हुए सभी कलाकारों का मनोबल ऊंचा हुआ। पूर्व रंग में बाबा कारंथ ने लोक गीतों की प्रस्तुति को प्रमुखता दी। देश में भोपाल रंगमंडल की प्रतिष्ठा बढ़ने लगी। देश-विदेश के कलाकार भारत भवन आने लगे। समस्त कलाओं का केन्द्र बन गया भारत भवन।



अवकाश में घर जाने के बजाए, भोपाल में नाटक का निर्देशन करने लगे गंगा

रंगमंडल में हर साल कलाकारों को एक माह का अवकाश मिलता था। गंगा ने अपने घर जबलपुर जाने के बजाए, भोपाल में शौकिया रंग कर्मियों के साथ एक नाटक का निर्देशन करने का मन बनाया। वे वहां के कलाकारों से भली-भांति परिचित थे। देखते ही देखते कलाकारों का जमावड़ा हो गया। हम सभी ने मिलकर एक नाटक तय कर लिया। मौलियर का नाटक ‘कंजूस’ करने की प्रक्रिया आरंभ हुई। एक सरकारी विद्यालय के हॉल में पूर्वाभ्यास आरंभ हुआ। आरंभिक दिनों में कुछ कम लोग आ रहे थे। किंतु फ़रीद बज़मी और भानू के सहयोग से कलाकारों की संख्या बढ़ने लगी। बंटी और जुल्फ़िकार की मदद से संगीत क्षेत्र संपन्न होने लगा। गंगा ने हारमोनियम और ढोलक खरीद लिए। सुबह से लेकर शाम तक गंगा के घर में ही संगीत का अभ्यास होता था। शाम को रिहर्सल करने लगे। आज हिंदी सिनेमा के जाने-माने लेखक और निर्देशक रूमी जाफ़री भोपाल के वाशिंदे हैं। कंजूस में नाटक में वे नायक की भूमिका में थे। बीस पच्चीस लोगों की टीम बन गई। नाटक आहिस्ता-आहिस्ता अपने रंग में आ रहा था। सारे कलाकारों ने नाटक के प्रत्येक गीत को कंठस्थ कर लिया था। कभी-कभी लोग बेसुरे हो जाते थे। ये बात सभी के लिए घातक थी। क्योंकि सभी भारत भवन रंगमंडल में बाबा कारंथ के शिष्य थे। यहां सभी को संगीत प्रधान नाटक करने का अनुभव था। गंगा सहित सभी को इस बात का इल्म था कि बाबा नाटक देखने अवश्य आएंगे। 



भोपाल में  गंगा का पहला निर्देशन



अलखनंदन के साथ गंगा का सानिध्य जबलपुर विवेचना से ही था। अलखनंदन बेबाक व्यक्ति थे। गंगा ये नहीं चाहते थे कि मंचन में किसी भी प्रकार की कमी रह जाए। मंचन का समय नज़दीक आ रहा था। कॉस्टयूम, प्रॉपर्टी पर सभी लोग मेहनत से काम कर रहे थे। संगीत का अभ्यास प्रगति पर था। पूर्वाभ्यास में नाटक निखर कर सामने आने लगा। सभी कलाकारों का उत्साह बढ़ने लगा। इरफान भाई ने भी पूर्ण सहयोग दिआ। रवीन्द्र नाट्य भवन भोपाल को शो के लिए बुक कर लिया गया। अब पूर्वाभ्यास का समय बढ़ने लगा। चार घंटे लगातार कलाकार शिद्दत से अभ्यास करने लगे। पूर्वाभ्यास जब पूरे नाटक का हुआ। समय 2 घंटा 20 मिनट हो रहा था। सभी ने 10 मिनट कम समय करने के लिए कुछ दृश्यों का संपादन किया। अभिनेताओं के संवादों की गति को बढ़ाया। कुछ दृश्य में जो इंप्रोवाइजेशन थे, उन्हें कम किया। अंततः नाटक की अवधि 2 घंटे 10 मिनट की हो गई। सभी बहुत संतुष्ट थे। गंगा के मन में शो से पहले जो भय होता है वह भी था। आख़िर वह दिन आ ही गया। अगली शाम रवीन्द्र भवन में नाटक का मंचन था। पूर्वाभ्यास के उपरांत सभी ने बैठकर एक सौगंध ली। कल शाम सभी को अपनी जिंदगी का सबसे बेहतर प्रदर्शन करना है। सभी ने एक स्वर में हां कहा। दोपहर 12 बजे सभी कलाकार रवीन्द्र भवन में इकट्टे हो गए। सभी मंच सज्जा और लाइट करने में व्यस्त हो गए। लाइट डिजाइन हो चुकी थी। शो शाम सात बजे होना था। शाम चार बजे से एक पूर्वाभ्यास नाटक का आरंभ किया गया। पूर्वाभ्यास के पश्चात समस्त कलाकार मेकअप और वेशभूषा के लिए मेकअप रूम में चले गए। गंगा के हृदय की धड़कनें बढ़ी हुई थीं। बाहर जाकर गंगा ने देखा तो दर्शकों का आना शुरू हो चुका था। भोपाल शहर में ये गंगा मिश्रा का पहला निर्देशन था। गंगा ये बात अच्छी तरह से जानते थे कि भोपाल का दर्शक बुद्धिजीवी दर्शक है।



जब 7 बजने को 10 मिनट बचे थे तब गंगा मेकअप रूम में गए। सारे कलाकारों को मंच पर आने के लिए कहा। पहली घंटी बजी, दर्शक दीर्घा में दर्शकों का आना आरंभ हुआ। दूसरी घंटी होते ही गंगा ने दर्शकों को नाटक की जानकारी दी। तीसरी घंटी के साथ पर्दा खुल गया। मौलियर का नाटक ‘कंजूस’ जनता के समक्ष था। तालियों की गड़गड़ाहट के साथ मध्यांतर हुआ। सभी बहुत उत्साहित थे। गंगा की कल्पना के अनुरूप नाटक चल रहा था। दूसरा अंक आरंभ हुआ। छोटी मोटी त्रुटियों के साथ नाटक का समापन हुआ। बहुत सारे दर्शक मंच पर आकर सभी को बधाईयां दे रहे थे। एक नाटक की रचना अपने आप में एक संसार की रचना होती है। प्रेक्षक हमारा ईश्वर होता है। वह हमें हमारी गलतियों और अच्छाईयों से साक्षात्कार करवाता है। मानव जाति के विभिन्न आयाम कलाकारों को मंच पर जीवित करने पड़ते हैं। यह साधारण कार्य नहीं है। समय चक्र कभी रुकता नहीं। नाटकों, कहानियों, उपन्यासों, गीत, ग़ज़ल सभी में बदलते समाज का असर पड़ता है। एक निर्देशक होने के नाते काल परिस्थिति और समाज के परिवर्तन को ज़हन में रखकर ही नाटक का निर्माण करना पड़ता है। यह नाटक उर्दू ज़बान में किया गया था। वैसे भी भोपाल के वातावरण में वहां के परिवारों में उर्दू का चलन आम है।  सबसे अहम बात ये थी कि सारे ही कलाकार उर्दू ज़बान बहुत ही उम्दा बोलते थे। इस नाटक के मंचन से गंगा मिश्रा भोपाल के रंगमंच में प्रतिष्ठ‍ित हो गए।



घासीराम कोतवाल में गंगा मिश्रा



बैरी जॉन करेंगे रंगमंडल के लिए दो नाटकों का निर्देशन 



छुट्टियां खत्म हो गई। पुनः वही प्रातःकाल संगीत का अभ्यास। शारीरिक अभ्यास और फिर चाय का ब्रेक। एक दिन जब सब एकत्रि‍त हुए, तब बाबा और अलखनंदन के साथ जाने-माने निर्देशक बैरी जॉन थे। बाबा ने सभी से बैरी जॉन का परिचय कराया। बातचीत में जानकारी मिली कि बैरी जॉन रंगमंडल के लिए दो नाटकों का निर्देशन करेंगे। सभी कलाकारों ने तालियां बजाकर उनकाअभिवादन किया। बैरी जॉन ने 15 दिनों के वर्कशॉप की शुरुआत की। अलग-अलग लोगों के साथ मिरर एक्सरसाइज, एनिमल एक्सरसाइज, एकल अभिनय, ग्रुप इंप्रोवाइजेशन विभिन्न प्रकार से उन्होंने सभी को परखना शुरू किया। कुछ दिनों बाद नाटकों के दृश्य जावेद भाई सभी कलाकारों को बांट दिया करते थे। उन दृश्यों में जितने पात्र होते थे। इतने लोगों का ग्रुप बना दिया जाता था। फिर कलाकारों में से ही किसी एक को उस दृश्य का निर्देशक नियुक्त किया जाता था। ये प्रक्रिया कई दिनों तक चलती रही। गंगा के लिए सबसे अद्भुत अनुभव ये रहा कि उनके साथ सभी को गालियां बकने को कहा गया। गंगा सहित सभी कलाकार नर्वस हो गए। दरअसल उन्होंने बताया एक नाटक में गालियों का प्रयोग होना है। नाटक पुलिस स्टेशन के वातावरण में है। एनएसडी के पूर्व छात्र संजीव दीक्ष‍ित बैरी जॉन के सह निर्देशक थे।



 बैरी जॉन हिंदी समझते थे, लेकिन बोलते नहीं थे



बैरी जॉन हिंदी समझते थे, लेकिन बोलते नहीं थे। संजीव दीक्ष‍ित उनके आदेशानुसार सभी को उनकी मन: स्थिति से अवगत कराते रहते थे। बैरी जॉन बेहद खामोश प्रवृत्त‍ि के व्यक्ति थे। एक दिन उन दोनों नाटकों की घोषणा की गई। एक नाटक था-दो कश्तियों का सवार और दूसरा नाटक था-एक आतंकवादी की मौत (Accidental Death of an Anarchist) । दो कश्तियों का सवार के पात्रों का चयन हुआ। द्वारका प्रसाद, शोभा, सरोज, शरद शबल, आलोक चटर्जी, अमर सिंह, वकार फारूकी, आभा, कमल जैन, महेंद्र रघुवंशी, दीक्षित और अन्य कलाकार। बाबा उस नाटक का संगीत कर रहे थे। सुरेश भारद्वाज ने प्रकाश व्यवस्था का भार उठाया था। आलोपी वर्मा वेशभूषा और मेकअप की जिम्मेदारी निभा रहे थे। जयंत देशमुख ने मंच सज्जा का निर्वाह किया। उसके पूर्वाभ्यास में जो लोग एक आतंकवादी की मौत में अभिनय कर रहे थे, उन्हें गायन मंडली में शिरकत करनी पड़ती थी।‘एक आतंकवादी की मौत’ में गंगा मिश्रा को मुख्य भूमिका दी गई। राजकुमार कामले, भूषण दिलौरी, कश्यप, राकेश बिदुआ, शोभा और अन्य कलाकार उसके पूर्वाभ्यास में जुट गए।



 इस नाटक में गंगा के थे कई किरदार



इस नाटक में गंगा के पांच अलग-अलग किरदार थे। पहली बार इतनी बड़ी भूमिका निभाते हुए गंगा के मन में अनेक प्रश्न उठते थे। लेकिन बैरी जॉन अपनी कॉपी लिए बैठे रहते थे। कभी कोई सलाह नहीं दिया करते थे। गंगा के ज़हन में अकुलाहट होने लगी थी। कुछ दिनों के पश्चात गंगा को महसूस हुआ कि अजीब निर्देशक है...कुछ बताता ही नहीं। बैरी जॉन की प्रक्रिया शायद गंगा को समझ में नहीं आ रही थी। गंगा ने अपने किरदारों को अपने अंदाज़ में रचना आरंभ किया। शायद बैरी जॉन भी यही चाहते थे। मेहनत रंग लाने लगी। दोनों नाटक पूरी तरह तैयार हो चुके थे। ‘दो कश्तियों का सवार’ का मंचन भारत भवन के बहिरंग में होना था और ‘एक आतंकवादी की मौत’ का मंचन अंतरंग में। पहली बार कलाकारों को पूर्वाभ्यास के दौरान नाटक का सेट तैयार मिला। एक आतंकवादी की मौत एक बॉक्स सेट में हो रहा था और दो कश्तियों का सवार भी बहुत बड़े सेट के साथ हो रहा था। इसी नाटक के दौरान इतने बड़े सेट देखने का मौका गंगा को मिला। हालांकि गंगा ने जबलपुर में जब राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के दो नाटक मध्यप्रदेश विद्युत मंडल में आए थे, तब ऐसे सेट देखे थे। यह नाटक थे- बेगम का तकिया और सैंया भए कोतवाल। बेगम का तकिया नाटक रंजीत कपूर के निर्देशन में किया गया था। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की ड्रामा रेपर्टरी में उस समय उत्तरा बावकर, सुरेखा सीकरी, केके रैना, राजेश विवेक, जोसलकर, रघुवीर यादव जैसे कलाकारों का अभिनय देखना गंगा के लिए यादगार रहा।

 

दो कश्तियों का सवार का पहला मंचन जब बहिरंग में हुआ तब भोपाल के दर्शक मंत्र मुग्ध हो गए। भोपाल के दर्शक नाटक को देखने परिवार के साथ आते थे। नाटकों के गीत इतने शानदार बने थे कि दर्शक गुनगुनाते हुए घरों को जाते थे। द्वारका ने जिस नौकर का किरदार निभाया था। वे यादगार किरदार बन गया था। उस नाटक की चर्चा गली-गली में होने लगी थी। कहा जाए तो रंगमंडल भोपाल की यादगार प्रस्तुति बन गई। एक आतंकवादी की मौत का मंचन भारत भवन के अंतरंग में हुआ। लगातार 8 शो हुए। पहले शो में अभिरंग खचाखच भरा हुआ था। जैसे ही नाटक बढ़ने लगा और पुलिस वालों  के किरदार निभाते कलाकारों ने गाली गलौज शुरू किया, दर्शक भौंचक्के रह गए। मंच पर इस तरह की भाषा का प्रयोग वे पहली बार देख रहे थे। नाटक समाप्त हुआ। गंगा मिश्रा के जीवंत अभ‍िनय ने प्रशंसा बटोरी। नाटक को बहुत सराहना मिली, किन्तु उस समय के मुख्यमंत्री स्वयं इस नाटक को देखने आए थे। उन्हें इस भाषा से आपत्ति हुई। कुछ समय पश्चात सरकारी आदेश आया कि इस नाटक के प्रदर्शन रोक दिए जाएं। भारत भवन संस्कृति विभाग के अधीन था यानी कि सरकारी धन से चल रहा था। आदेश का पालन करते हुए नाटक रोक दिया गया। लेकिन दो कश्तियों का सवार के प्रदर्शन से भारत भवन में चहल-पहल बढ़ गई।


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