35 वर्षीय एक मध्यमवर्गीय व्यापारी था, जो पिछले कुछ महीनों से कई शारीरिक लक्षणों से जूझ रहा था। उसे बार-बार सिरदर्द, पेट में दर्द, थकावट और कभी-कभी अपने शरीर का अन्य हिस्सा सुन्न होने का अनुभव होता था। वह अपनी इस समस्या को लेकर कई डॉक्टरों से मिला। जैसे न्यूरोलॉजिस्ट, गैस्ट्रोएंटेरोलॉजिस्ट और हृदय रोग विशेषज्ञ, लेकिन सभी मेडिकल रिपोर्ट्स सामान्य निकलीं। इसके बावजूद, रमेश को यकीन था कि उसके शरीर में कोई गंभीर बीमारी छुपी हुई है। इस संबंध में कंसल्टेंट साइकेट्रिस्ट डॉ सत्यकांत त्रिवेदी ने बताया कि इस तरह की सोच शरीर में चिंता और तनाव के लक्षणों को और बढ़ाती है।
साइकेट्रिस्ट से दूरी
रमेश ने अपने इन शारीरिक लक्षणों के लिए बार-बार जांच करवाई, लेकिन डॉक्टरों ने जब उसे बताया कि उसकी सभी रिपोर्ट्स सामान्य हैं, तो वह निराश हो गया। हर डॉक्टर के पास जाने के बाद भी उसे शारीरिक राहत नहीं मिली। परिवार के सदस्यों और कुछ डॉक्टरों ने उसे साइकेट्रिस्ट से मिलने की सलाह दी, लेकिन वह इस विचार को नकारता रहा। उसे विश्वास नहीं था कि उसकी शारीरिक समस्या मानसिक तनाव या चिंता से जुड़ी हो सकती है। उसके मन में यह धारणा थी कि साइकेट्रिस्ट केवल मानसिक बीमारियों के लिए होती है, जबकि उसकी समस्या पूरी तरह से शारीरिक थी।
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साइकेट्रिस्ट से मिलने का फैसला
लंबे समय तक लक्षण बने रहने के बाद और कोई शारीरिक लक्षण न मिलने पर रमेश ने एक साइकेट्रिस्ट से मिलने का फैसला लिया। साइकेट्रिस्ट ने उसकी स्थिति को भांपा और पाया कि उसके अन्य शारीरिक लक्षणों का कारण एंजायटी, तनाव, और उसकी लो फ्रस्ट्रेशन टॉलरेंस थी। उसे डिसोसिएटिव डिसऑर्ड का रोगी बताया गया, जिसमें व्यक्ति मानसिक दबाव और आंतरिक संघर्षों से निपटने के लिए अपनी वास्तविकता से अलग महसूस करता है, जो कभी-कभी शारीरिक लक्षणों के रूप में सामने आता है।
इलाज की प्रक्रिया
रमेश के इलाज लिए प्लान तैयार किया गया, जिसमें दवाइयों और काउंसलिंग का संयोजन शामिल था। उसे सिखाया गया कि कैसे उसकी चिंता और तनाव उसके शारीरिक लक्षणों को बढ़ा रहे थे। धीरे-धीरे, नियमित साइकेट्रिस्ट सत्रों और दवाओं की मदद से, रमेश के शारीरिक लक्षण कम होने लगे। उसने यह भी महसूस किया कि पहले जिन लक्षणों को वह गंभीर शारीरिक बीमारी समझ रहा था, वे वास्तव में उसकी मानसिक स्थिति से उत्पन्न हो रही थी।
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