पंकज स्वामी. JABALPUR. भारत में क्लब फुटबॉल में सबसे पहले विदेशी खिलाड़ियों को खिलाने का श्रेय कलकत्ता के मोहन बागान, ईस्ट बंगाल या मोहम्मडन स्पोर्टिंग को नहीं है, बल्कि यह श्रेय जबलपुर के ब्लूज क्लब को है। ब्लूज क्लब के जनक प्रो. डॉ. राम चरण (आरसी) रजक की पारखी नज़र थी कि उन्होंने दो ईरानी फुटबॉल खिलाड़ियों माजिद बिस्कर व जमशेद नासीरी को परम्परा को ताक पर रख कर अपने फुटबॉल क्लब से खेलने के लिए आज से 42 साल पहले वर्ष 1979 में मैदान में उतारा था। पहले राम चरण रजक की बात कर ली जाए। राम चरण रजक को एक बार कलकत्ता के प्रसिद्ध फुटबॉल क्लब मोहन बागान ने अपनी ओर से खेलने का प्रस्ताव दिया था, लेकिन उन्होंने डॉ. जी. पी. अग्रवाल की सलाह को मानते हुए अकादमिक कैरियर को चुना। राम चरण रजक ने वर्ष 1962 से 65 तक जबलपुर विश्वविद्यालय का प्रतिनिधित्व किया। इसके बाद राम चरण रजक ने संतोष ट्रॉफी में मध्यप्रदेश का प्रतिनिधित्व किया। आईएफए शील्ड कलकत्ता, रोवर्स कप मुंबई, डीसीएम फुटबॉल टूर्नामेंट दिल्ली में वे खूब खेले। दो बार मध्यप्रदेश के कप्तान रहे। भारतीय, मध्यप्रदेश व जबलपुर के फुटबॉल सर्किल में वे राम चरण के नाम से लोकप्रिय व विख्यात हुए। फुटबॉल के शौकीन लोग उन्हें ‘फ्लाइंग गोल’ दागने से याद करते हैं।
जबलपुर फुटबॉल की रही धूम
जबलपुर की फुटबॉल की ख्याति देश भर में रही है। जबलपुर यूनिवर्सिटी की स्थापना के बाद वर्ष 1957 में यहां के विद्यार्थियों ने फुटबॉल में धूम मचा दी। उस समय के प्रसिद्ध कोच सीआर सिंकलेयर से प्रशिक्षण पा कर जबलपुर यूनिवर्सिटी की टीम ज़ोनल फाइनल में दो बार पहुंची और कलकत्ता यूनिवर्सिटी से हारी। फाइनल मैच पांच बार खेला गया, जिसमें तीन फाइनल मैच जबलपुर में और दो नागपुर में खेले गए। अंत में जबलपुर यूनिवर्सिटी की हार टॉस के कारण हुई।
फुटबॉल के साथ अकादमिक कैरियर
अकादमिक कैरियर चुनने के बाद राम चरण रजक डा. आरसी रजक के रूप में जाने व पहचाने गए। वे एक साधारण भारतीय परिवार से आते थे, जिस परिवार का विज्ञान की कोई पृष्ठभूमि नहीं थी। इसके बावजूद डॉ. रजक ने अपनी मेहनत व लगन से माइकोलॉजी (कवक विज्ञान) में महत्वपूर्ण योगदान दिया। उन्होंने कड़ी मेहनत व समर्पण से ‘फुंगी’ जैसे विषय पर हजारों विद्यार्थियों की रूचि जगा दी। डॉ. आरसी रजक ने मध्यप्रदेश के पब्लिक सर्विस कमिशन (पीएससी) परीक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त किया और उनकी जबलपुर के साइंस कॉलेज में बॉटनी विषय के व्याख्याता के रूप में नियुक्ति हुई। वर्ष 1972 में आरसी रजक ने बॉटनी में डॉक्टरेट की। अपने जीवन में उन्होंने चालीस पीएचडी और दो डीएससी पूर्ण करवाई। उनके दौ सौ रिसर्च पेपर छपे और चार पुस्तकों का संपादन किया।
माजिद व जमशेद कैसे जबलपुर के ब्लूज क्लब पहुंचे
डॉ. आरसी रजक ने अकादमिक रूप से सक्रिय होने के बाद खेलना तो छोड़ दिया लेकिन उन्होंने वर्ष 1952 में जबलपुर में स्थापित ब्लूज क्लब की बागडोर संभाल ली। उनके साथ केदार सिंह परिहार, रामपाल रजक जैसे खिलाड़ी साथ हो गए। डॉ. रजक ने सुबह-शाम साइंस कॉलेज मैदान, शिवाजी मैदान में फुटबॉल खिलाड़ियों को तराशना शुरू कर दिया। सातवें दशक के मध्य में ईरान, जॉर्डन, अफ्रीकी देश के विद्यार्थी अध्ययन की दृष्टि से जबलपुर में आना शुरू हो गए थे। दो ईरानी खिलाड़ी माजिद बिस्कर (भारत में इनके सरनेम का गलत उच्चरण बस्कर किया जाता रहा है) व जमशेद नासीरी कॉलेज की प्रारंभिक शिक्षा के लिए वर्ष 1979 में जबलपुर पहुंचे। डॉ. आरसी रजक की पारखी नज़र में दोनों फुटबॉल खिलाड़ी आ गए। माजिद व जमशेद फुटबॉल के दीवाने थे। माजिद ने ईरान के एक स्थानीय क्लब ‘रस्ताखिज़ खोर्रमशहर’ से अपने फुटबाल कैरियर की शुरूआत की थी।
यह क्लब वर्ष 1976 के ईरान क्लब के सेमीफाइनल तक पहुंचा। माजिद को वर्ष 1975 में ईरान की बी राष्ट्रीय टीम में चुना गया। ईरान में उस समय तक इस्लामिक क्रांति शुरू हो गई थी और ऐसे समय माजिद अपने युवा शार्गिद जमशेद नासीरी के साथ उच्च शिक्षा लेने की दृष्टि से भारत रवाना हो गए। उनसे पहले कुछ ईरानी विद्यार्थी जबलपुर विश्वविद्यालय में अध्ययनरत थे। उनके सम्पर्क के चलते दोनों जबलपुर आ गए। उस समय दोनों के मन में फुटबॉल खिलाड़ी बनने का कोई सपना नहीं था। जबलपुर में डॉ. आरसी रजक ने दोनों को फुटबॉल में रूचि देखते हुए अपने ब्लूज क्लब में शामिल कर लिया। डॉ. रजक ने दोनों खिलाड़ियों को पहले इंटर कॉलेज फुटबॉल प्रतियोगिता में खेलने के लिए प्रेरित किया। माजिद व जमशेद ने उत्कृष्ट खेल का प्रदर्शन किया। दोनों को इंटर यूनिवर्सिटी में खेलने वाली जबलपुर यूनिवर्सिटी टीम में शामिल कर लिया गया। माजिद व जमशेद खेल कौशल व दमखम में अद्भुत थे।
अपने समय के फुटबॉल के अच्छे खिलाड़ी, नामी छात्र नेता और अब एडवोकेट संजय श्रीवास्तव ‘दद्दा’ बताते हैं कि जब वे लोग जबलपुर के साइंस कॉलेज मैदान में यूनिवर्सिटी की टीम प्रेक्टिस करते थे तब माजिद व जमशेद साथ में ही खेला करते थे। दोनों खिलाड़ी अपने स्टेमिना को बनाने के लिए अन्य खिलाड़ियों को कंधे पर बैठा कर पाट बाबा की बाजू वाली पहाड़ी पर दौड़ते हुए जाते थे। ब्लूज क्लब से संबद्ध केदार सिंह परिहार भी अपने समय के बेहतरीन फुटबॉल खिलाड़ी रहे हैं। वे कहते हैं कि माजिद बिस्कर व जमशेद नासीरी के ब्लूज क्लब से खेलने और उनके स्थानीय प्रतियोगिता में भाग लेने से जबलपुर के फुटबॉल का स्तर काफ़ी सुधरा। परिहार ने जानकारी दी कि माजिद आक्रमक मिड फील्डर थे और 4-2-4 के फार्मेशन में फारवर्ड खिलाड़ी के रूप में खेलते थे। जमशेद नासीरी फारवर्ड खिलाड़ी थे।
जबलपुर से कलकत्ता के ईस्ट बंगाल क्लब की यात्रा
डॉ. आरसी रजक इंटर यूनिवर्सिटी टूर्नामेंट में जबलपुर यूनिवर्सिटी टीम के मैनेजर व कोच बन कर गए। जबलपुर यूनिवर्सिटी की ओर से माजिद बिस्कर व जमशेद नासीरी दर्शकों के साथ कलकत्ता के क्लबों का दिल जीत लिया। उस समय कलकत्ता के मोहम्मद स्पोर्टिंग के पदाधिकारी इंटर यूनिवर्सिटी का मैच देखने और खिलाड़ियों को अनुबंधित करने की दृष्टि से वहां मौजूद थे। उस समय तक कलकत्ता के ईस्ट बंगाल व मोहन बागान क्लब अपनी परंपरा से बंधे हुए थे और वे विदेशी खिलाड़ियों को अपने क्लब से अनुबंधित करने में हिचकिचाते थे, परन्तु मोहम्मद स्पोर्टिंग विदेशी खिलाड़ियों को अनुबंधित करने की पहल में लगी हुई थी।
इंटर यूनिवर्सिटी मैच के बाद मोहम्मद स्पोर्टिंग के पदाधिकारी माजिद व जमशेद के पीछे लग गए, लेकिन दोनों अनुभवहीन होने के कारण कोई निर्णय नहीं कर पाए। उस वक्त डॉ. रजक ने दोनों खिलाड़ियों को सलाह दी कि फुटबॉल के कैरियर को देखते हुए उन्हें अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में दाखिला ले लेना चाहिए। इस जोड़ी को इस तथ्य से और प्रोत्साहन मिला कि साथी ईरानी फुटबॉलर महमूद खब्बासी पहले से ही अलीगढ़ में पढ़ रहे थे। उसी वर्ष अलीगढ़ विश्वविद्यालय ने नॉर्थ ज़ोन इंटर यूनिवर्सिटी चैंपियनशिप की मेजबानी की और तीन ईरानियों के साथ वे अजेय थे। नोवी कपाड़िया दिल्ली विश्वविद्यालय की टीम के कोच थे और ईरानियों ने उनकी निगाहें पकड़ ली।
नोवी कपाड़िया ने अपनी पुस्तक ‘बेयरफुट टू बूट्स’ में यही लिखा था-‘’दिल्ली पहुंचकर, मैं ईस्ट बंगाल के स्थानीय प्रबंधक और उत्साही प्रशंसक एचएस मामिक के दरियागंज के घर में पहुंचा। उन्होंने तुरंत कलकत्ता में क्लब से सम्पर्क किया और जल्द ही वह और क्लब के अधिकारी तीनों खिलाड़ियों को अनुबंधित करने के लिए अलीगढ़ रवाना हो गए। यहीं से कलकत्ता के फुटबॉल क्लबों में विदेशी खिलाड़ियों को खिलाने की शुरूआत हो गई, लेकिन जबलपुर के ब्लूज क्लब को यह श्रेय जाता है कि उसने कलकत्ता के क्लबों से पूर्व विदेशी खिलाड़ियों को अपने क्लब से मैदान में उतारने की परंपरा की शुरूआत की।
ईस्ट बंगाल के सिरमौर बनने की कहानी
इसके बाद कलकत्ता के फुटबॉल क्लबों का इतिहास बदल गया। तीन विदेशियों को देखने की नवीनता, उनमें से एक का विश्व कप के अनुभव और पहले अभ्यास सत्र में बड़ी भीड़ को आकर्षित करते हुए माजिद, जमशेद व खब्बासी मैदान में उतरे। तीनों ने ईस्ट बंगाल के चाहने वालों की बैचेनी को शांत करने के लिए काफ़ी कुछ किया। ईस्ट बंगाल के पास पहले से अनुभवी सुधीर कर्मकार व मोहम्मद हबीब थे और डिफेंस में मनोरंजन भट्टाचार्य थे। चतुर पीके बनर्जी उनके कोच थे। मोहम्मद या मोहन बागान जैसी अच्छी टीम न होने के बवाजूद ईस्ट बंगाल के पास अब जूझने का मौका था। तीनों को कलकत्ता के मैदान के साथ ढलने के लिए ज्यादा समय नहीं मिला। 1980 का फेडरेशन कप आने ही वाला था। ईस्ट बंगाल से उम्मीदें मौन थीं और कलकत्ता के अन्य दिग्गजों को खिताब उठाने के लिए पसंदीदा माना जाता था। अंत में 1980 का फेडरेशन कप माजिद बिस्कर व जमशेद नासीरी ने भारतीय फुटबॉल परिदृश्य में विस्फोट कर दिया।
इनके दिल में अभी भी जबलपुर धड़कता है
वर्तमान में माजिद ईरान के खुज़ेस्तान प्रांत के खोर्रमशहर में और जमशेद नासीरी कोलकाता में रहते हैं। जमशेद नासीरी का पुत्र कियान नासीरी मिड फील्डर के रूप में मोहन बागान से खेलता है। माजिद बिस्कर और जमशेद नासीरी दिल में अभी भी जबलपुर और यहां के साइंस कॉलेज मैदान, शिवाजी ग्राउंड, गैरीसन ग्राउंड धड़कते हैं। क्या जबलपुर उनकी धड़कनों को सुन पा रहा है?