मध्य प्रदेश का वो मुख्यमंत्री, जिसके पास शेर पर सवारी गांठने का हुनर था!

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Atul Tiwari
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मध्य प्रदेश का वो मुख्यमंत्री, जिसके पास शेर पर सवारी गांठने का हुनर था!

जयराम शुक्ल. डॉ. गोविंद नारायण सिंह मध्य प्रदेश के सबसे पढ़े-लिखे और मेधावी राजनेता रहे। संविदकाल में जब वे मुख्यमंत्री बने तो उनके कई किस्से मशहूर हुए। आरसीवीपी नरोन्हा तब प्रदेश के मुख्य सचिव थे। नरोना साहब ने प्रशासनिक अनुभवों को लेकर एक दिलचस्प किताब लिखी- ए टेल टोल्ड बाय एन ईडियट। नरोन्हा अकादमी के महानिदेशक रहे इंद्रनील शंकर दाणी ने हिंदी में इसका जानदार अनुवाद किया है। 



पूर्व मुख्यमंत्री का जब हुआ बाघ से सामना



किताब में दर्ज एक वाकया है- मुख्यमंत्री गोविंद नारायण और नरोना साहब एक खुली जीप में सतपुड़ा के जंगलों की सैर पर निकले। सिंह साहब नरोन्हा को बाघों के शिकार के किस्से सुनाते हुए चल रहे थे। इस बीच नरोन्हा साहब ने पूछ लिया कि यदि अभी सामने कोई शेर आ जाए तो क्या करेंगे..? गोविंद नारायण ने कहा- क्या करेंगे, उसके पुट्ठे पर दो लात जमा देंगे..। इत्तेफाक से कुछ ही मिनटों बाद सड़क के किनारे एक बाघ बैठा मिला।



सिंह साहब ने ड्राइवर को जीप रोकने को कहा। फिर नीचे उतरे और बाघ के पास पहुंचकर उसके पुट्ठे पर एक धौल जमाई, वापस जीप पर बैठे और आगे बढ़ गए। नरोन्हा ने पूछा- बाघ से डर नहीं लगा..? गोविंद नारायण बोले- बाघ का डर मेरे डर से बड़ा था। हमला मैंने किया था...। अपने बचाव के बाद जब तक वो हमले की सोचता, तब तक मैं यहां अपनी जगह सुरक्षित। नरोना साहब लिखते हैं कि ये दृश्य देखकर मैं सन्न था। सिंह साहब का यह चतुराई भरा दुस्साहस मुझे झकझोर गया। यह मुख्यमंत्री के व्यक्तित्व को लेकर नौकरशाही के लिए निकला एक संदेश था। बीएचयू से डी.लिट डॉ.गोविंद नारायण सिंह मध्य प्रदेश के सबसे दुस्साहसी और जीनियस राजनेता यूं ही नहीं कहे जाते।



अर्जुन के तीरों से अफसर पस्त



दूसरा किस्सा अर्जुन सिंह का है। अर्जुन सिंह के बारे में कहा जाता था कि नौकरशाही उनके भौंहों के हिलने, नाक पर चश्मे की पोजीशन, नोटशीट पर दस्तखत की रेखाओं को पढ़कर अर्थ निकालती थी। कुंवर साहब (अर्जुन सिंह) बोलते बहुत कम थे, उनकी भावभंगिमाएं बोलती थी। पर मुख्यमंत्री बनने के शुरुआती दिनों में ऐसी बात नहीं थी। नौकरशाही ने उन्हें 'रिमहा धुर्र' समझते हुए घुमाने की कोशिश की। आईएएस जनप्रतिनिधियों पर अंग्रेजी को अस्त्र की तरह इस्तेमाल करते हैं। जल्दी ही कुंवर साहब ने इलाज खोज लिया। अफसरों की बैठकों में वे ऐसी फर्राटेदार अंग्रेजी बोलते कि शब्दों का अर्थ ढूंढने के लिए नौकरशाह डिक्शनरी रखने लगे।



पर अफसर तो अफसर..वे कहां मानने वाले। अगले महीने ही अखबार की सुर्खियों में छपा कि मध्य प्रदेश के मुख्यसचिव बर्खास्त। बस इसके बाद अफसरशाही उनके चरणों पर गलीचे के माफिक बिछ गई। वरिष्ठ पत्रकार एनके सिंह ने एक बार इंडियन एक्सप्रेस में लिखा- अर्जुन सिंह की खोपड़ी में कोई कील ठोके तो वह स्क्रू बनकर निकलेगी।



 कुंवर साहब की मेधा और तेज दिमाग का इससे बढ़िया आंकलन कुछ हो ही नहीं सकता था। अपने मुख्यमंत्रित्व काल में अर्जुन सिंह ने नौकरशाही पर रेगिस्तान के ऊंट की तरह नकेल कसकर रखी। और इसके बाद तो हर काम और नियुक्तियां- 'लोकहित में समस्त नियमों को शिथिल करते हुए' होने लगीं। 



तब पता लगी स्पीकर की ताकत



श्रीनिवास तिवारी जैसा शक्तिमान स्पीकर इतिहास में नहीं हुआ। 10 साल उन्होंने मुख्यमंत्री की बराबरी की हैसियत में सत्ता का उपभोग किया। वल्लभ भवन, संभाग, जिला के मुख्यालयों में उनके फोन का ऐसा आतंक था कि कई अफसर तो केबिन में ही खड़े होकर- यस सर, जी सर करने लगते थे। तिवारी को भी शेर की सवारी गांठने का हुनर मालूम था। वे जनता को जनार्दन मानने वाले आखिरी नेताओं में से एक थे। वे संविधानिक और कानूनी मामलों के कीड़े थे। यही उनका सबसे बड़ा अस्त्र था। 



एक बार का वाकया है.. उनका अमहिया दरबार सजा था (अमहिया, रीवा में उनके मोहल्ले का नाम, अर्जुन सिंह ने अमहिया सरकार नाम दे रखा था)। उनके क्षेत्र के कुछ लोगों ने रोते-बिसूरते हुए फरियाद की- दादा, ये अफसर लोग काम करना तो दूर ऊपर से दुत्कारते हैं। 



तिवारी ने अपने स्टाफ के जरिए आईजी, डीआईजी, एसपी, कमिश्नर, कलेक्टर को अमहिया तलब किया। मुझे याद है कि वह अप्रैल की चिलचिलाती दोपहर थी। सभी अफसर पहुंचे। अमहिया में उनके घर में लोगों का मेला लगा था, तिवारी अपने कमरे में थे। स्टाफ ने उन्हें खबर दी कि सबके सब आ गए। तिवारी ने कहा कि उन लोगों को 15 मिनट जनता के बीच ही खड़े रहने देना, इसके बाद गेस्ट रूम में बैठा देना।



अफसरान तलतलाते पसीने में पब्लिक के बीच खड़े रहे। तिवारी ने कहा कि आज से इन्हें जनता गंधाया (बदबू) नहीं करेगी। तिवारी ताउम्र अफसरशाही की आंखों की किरकिरी बने रहे, लेकिन उन्होंने लोकशाही की प्रतिष्ठा के साथ समझौता नहीं किया। विधानसभा अध्यक्ष के रूप में विपक्ष को जितना संरक्षण और सम्मान तिवारी ने दिया, वह वहां की कार्यवाहियों में दर्ज होगा। 



विधायक विपक्षी ही क्यों ना हो, तिवारी उसके साथ थे



विपक्ष के तौर पर बीजेपी सड़कों पर प्रदर्शन करती। जब भी कभी किसी विधायक की एसपी-कलेक्टर के साथ भिड़ंत होती, तब वे विधायक का ही पक्ष लेते, जबकि वह विपक्षी दल का होता था। कई घटनाओं का तो उन्होंने सदन में स्वत: संज्ञान लिया। बीजेपी के वरिष्ठ नेता हरसूद विधायक कुंवर विजय शाह का मामला अब भी याद होगा, जब वहां के एसपी से उनकी झड़प हो गई थी। लाठी, डंडे भी चले थे।



मामला 1993-98 के कार्यकाल के बीच का है। जहां तक कि मुझे स्मरण है कि एसपी कोई पटेल थे। तिवारी ने सदन में सत्ता पक्ष को कठघरे पर खड़ा किया और कहा कि किसी भी माननीय सदस्य के साथ पुलिस और नौकरशाही का ऐसा बर्ताव बर्दाश्त से बाहर है। सदन में ही मुख्यमंत्री को निर्देश दिया कि ऐसे एसपी को तत्काल हटाकर सदन को सूचित करिए। एसपी को जिले से हटना पड़ा। जबकि कुंवर विजय शाह के अराजक आचरण के शिकार एक बार खुद स्पीकर तिवारी ही हुए थे।



तब विपक्ष के नेता गौरीशंकर शेजवार के नेतृत्व में भाजपा विधायकों ने स्पीकर को उनके चेंबर में नजरबंद कर दिया था। कुंवर विजय शाह सबसे सक्रिय और गाली-गलौज में सबसे आगे थे। प्रतिक्रिया की बजाय बेपरवाह तिवारी कहते थे- मेरी चमड़ी गेंडे की तरह मोटी है...इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। कलेक्टर लोकसेवक हैं, संघ लोकसेवा से चुनकर आते हैं लेकिन व्यवहार में ये नए युग के सामंत हैं। 



यद्यपि इनमें भी अपवाद हैं, कई वास्तव में आम जनता के दुख-दर्द को समझते हैं। लेकिन ऐसे लोग उस व्यवस्था में फिट नहीं हैं जिन्हें चुने हुऐ सत्ताधारी नेता हांकते हैं। लोकसेवकों को निरपेक्ष रहने ही नहीं दिया जाता। जब तबादले और पोस्टिंग का आधार सत्ताधारी दल के प्रति प्रतिबद्धता होगी तो उसका परिणाम यही होगा।



जिन्होंने अफसरों पर कसी नकेल 



सरकारें जब बदलती हैं तो पहले-पहल प्रशासनिक अधिकारियों को ताश के पत्तों की तरह फेंट डालती हैं। इससे साफ संदेश यह निकलता है कि अच्छी पोस्टिंग के काबिल वही है जो पार्टी वर्कर की भांति काम करेगा। 



पिछले पच्चीस वर्षों में मुख्यमंत्री के तौरपर दिग्विजय सिंह ने लोकसेवकों का जैसा राजनीतिक उपयोग किया, उसे शिवराज सिंह ने दोगुनी रफ्तार से आगे बढ़ाया। कमलनाथ ने वही परंपरा जारी रखी। जिसने जो बोया वही अब काट रहा है। कांग्रेस के मुख्यमंत्रियों व स्पीकर के किस्से ऊपर बता चुके हैं, बीजेपी के कई मुख्यमंत्रियों ने भी नौकरशाही पर अच्छे से लगाम लगाकर रखी। 



दुबली काया के वीरेन्द्र कुमार सखलेचा के वल्लभ भवन में कदम रखते ही सन्नाटा खिंच जाता था। उनकी हिटलरी मूंछों से बड़े-बड़े तुर्रमखाँ नौकरशाह खौफ खाते थे। सुंदरलाल पटवा के आगे भी किसी की हिम्मत नहीं पड़ती थी कि वे अपने अनुरूप घुमा सके। अल्पकालिक मुख्यमंत्री बाबूलाल गौर को बीजेपी के सबसे कुशल प्रशासक-मुख्यमंत्री के तौर पर गिना जाता है। लेकिन नौकरशाहों और लोकसेवकों के राजनीतिक इस्तेमाल के मामले में शिवराज सिंह ने पूर्ववर्ती दिग्विजय सिंह की परंपरा को विस्तार दिया।



जिन्होंने अफसरों का इस्तेमाल किया



दिग्विजय सिंह ने आईएएस की एक ऐसी कोटरी तैयार की थी, जिसका काम कांग्रेस के हिसाब से राजनीतिक विमर्श करना था। उसी के परिणाम स्वरूप दलितों का भोपाल डिक्लेरेशन सामने आया। दिग्गी राजा ने अपने प्रतिद्वंद्वियों को निपटाने में भी इनका उपयोग किया। सत्यव्रत चतुर्वेदी इसके उदाहरण हैं। उनके खिलाफ किस तरह एक कलेक्टर को लगा दिया गया था, जिससे आजिज आकर चतुर्वेदी ने विधायक पद से इस्तीफा ही दे दिया था। 



शिवराज के उत्तरार्द्ध काल में यही नौकरशाह बीजेपी का राजनीतिक एजेंडा सेट करने में लगे रहे। यही लोग पार्टी के स्वयंभू रणनीतिकार भी बन गए। हद तो यह कि आईएएस  कार्यकर्ताओं को विधिवत प्रबोधन देने पार्टी कार्यालय जाने लगे थे। यह सब हुआ, हम सबने यह देखा। मैक्स वेबर कहते हैं- नौकरशाही, प्रशासन की ऐसी व्यवस्था है, जिसमें विशेषज्ञता, निष्पक्षता, मानवता का अभाव होता है, जबकि भारतीय संघ में लोकसेवा को लेकर आग्रह इसके सापेक्ष है। 



विधायिका और कार्यपालिका लोकतंत्र के रथ में नधे हुए ऐसे अश्व हैं जिनकी लीक अलग-अलग और समानांतर है। दोनों यदि एक ही जुएं को खींचने लगेंगे तो रथ चरमरा के ढेर हो जाएगा। राजनीतिक खुदगर्जी से ऊपर उठकर सोचना विचारना होगा वरना कल से चौराहों पर आपका वोटर, आपकी जनता जनार्दन आपको(नेता+ नौकरशाह) चोर-चोर मौसेरे भाई..एक थैली के ही चट्टे-बट्टे कहना शुरू कर देगी।

इसके बाद लोकतंत्र के प्रति घर करती हुई अनास्था की भावना को दूर करना मुश्किल हो जाएगा भले ही उसे कितने भाषण और प्रबोधन पिलाते रहें।


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