BHOPLA.द सूत्र .
विदिशा विधानसभा सीट 1957 में बनी। 1962 में यह सीट अजा के लिए आरक्षित थी।। 1967 के चुनाव में यह सीट सामान्य हुई। इस सीट का राजनीतिक चरित्र गैर कांग्रेसी ज्यादा रहा है।बीते 14 विस चुनावों में कांग्रेस यहां से केवल 3 बार ही जीत पाई है। बाकी समय हिंमस, जपा और भाजपा प्रत्याशी जीते हैं। यह सीट मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान का प्रभाव क्षेत्र भी है। 2013 का चुनाव उन्होंने यहीं से जीता था। इस सीट पर सर्वाधिक चार बार भाजपा के ठाकुर मोहरसिंह और एक बार उनकी पत्नी सुशीला ठाकुर जीती। पूर्व मंत्री राघवजी यहां से एक बार जीते। वर्तमान में यह सीट कांग्रेस के शशांक भार्गव के पास है।
विधानसभा क्षेत्र:
विदिशा सीट जिले की दक्षिण इलाके की सीट है। इसके अंतर्गत विदिशा और गुलाबगंज तहसील के गांव तथा विदिशा शहर भी आता है।
महिला मतदाता: 95917
पुरुष मतदाता: 1 लाख 7 हजार 101
कुल मतदाता: 2 लाख 3 हजार 16 ।
साक्षरता का प्रतिशत: 85:16%
धार्मिक समीकरण: हिंदू बहुल क्षेत्र। दांगी ठाकुर और ब्राह्मण वोट निर्णायक।
आर्थिक समीकरण: कृषि और पर्यटन मुख्य व्यवसाय
विधानसभा सीट पर मतदान का ट्रेंड कब और कितना (सर्वाधिक और न्यूनतम मतदान): सर्वाधिक 2018: में 75.22 %, न्यूनतम 1957: 41.92 %
विधानसभा क्षेत्र का इतिहास:
1957 में बनी सीट पहले विस चुनाव में यह दोहरे प्रतिनिधित्व वाली सीट थी। उस वक्त आरक्षित वर्ग से कांग्रेस के हीरालाल पिप्पल और सामान्य वर्ग से कांग्रेस के ही अजय सिंह विजयी रहे। 1962 के चुनाव में यह अजा के लिए आरक्षित हो गई। यहां से हिंदू महासभा के गोरेलाल ने कांग्रेस के हीरालाल पिप्पल को हराया था। 1967 में हिंदू महासभा के मदनलाल कांग्रेस के कृष्ण भार्गव को हराकर जीते। 1972 में कांग्रेस के सूर्य प्रकाश ने भाजपा के राघवजी को हराया। 1977 में जनता पार्टी के नरसिंह गोयल ने कांग्रेस के ह्रदयमोहन जैन को हराया। भाजपा के मोहरसिंह यहां से 1985, 1990, 1993 में जीते। 1998 में उनकी पत्नी सुशीला ठाकुर जीती।2003 में भाजपा के सिख प्रत्याशी गुरूचरण सिंह ने कांग्रेस के नारायण सिंह दांगी को हराया। 2008 में भाजपा ने राघवजी कांग्रेस के शशांक भार्गव को हराकर जीते। 2013 में मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान ने कांग्रेस के शशांक भार्गव को हराया। जबकि 2018 में शशांक भार्गव ने भाजपा के मुकेश टंडन को पराजित किया।
विधानसभा क्षेत्र की खास पहचान: हेलियोडोरस का स्तम्भ और उदयगिरी की गुफाएं
2003 से 2018 तक के विधानसभा चुनाव में कौन जीता-कौन हारा: पिछले चार विस चुनावों में भाजपा 3 बार और कांग्रेस 1 बार जीती
विधानसभाा क्षेत्र का राजनीतिक मिजाज: इस क्षेत्र का राजनीतिक मिजाज गैर कांग्रेसी और भाजपाकेन्द्रित रहा है। बीते 14 विधानसभा चुनावों में भी कांग्रेस केवल तीन बार यहां से चुनाव जीत सकी है। इसका मुख्य कारण भी भाजपा की अंतर्कलह ज्यादा है। हालांकि जातीय ध्रुवीकरण भाजपा के पक्ष में अधिक दिखाई देता है।
विधानसभा क्षेत्र की बड़ी चुनावी उठा-पटक:
पहली बड़ी चुनावी उठा पटक 2013 के विधानसभा चुनाव में हुई, जब मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान अपनी परंपरागत बुधनी विधानसभा सीट के साथ साथ भाजपा की सुरक्षित सीट मानते हुए विदिशा सीट से भी चुनाव लड़ा। लेकिन वो यह सीट 17 हजार वोटों से ही जीत पाए। बाद में उन्होंने यह सीट छोड़ दी और उपचुनाव में भाजपा के कल्याणसिंह ठाकुर जीते। लेकिन 2018 के विधानसभा चुनाव में जब शिवराज ने अपने करीबी मुकेश टंडन को टिकट दिलाया तो वो कांग्रेस के शशांक भार्गव से हार गए। परोक्ष रूप से यह मुकाबला शिवराज सिंह चौहान और कांग्रेस नेता सुरेश पचौरी के बीच माना गया। टंडन की हार को शिवराज की हार ही माना गया।
विधानसभा क्षेत्र के मुद्दे :
विदिशा विधानसभा क्षेत्र को आदर्श बनाने की घोषणा पर अमल नहीं, क्षेत्र में एक भी बड़ा उद्योग नहीं, सिंचाई के लिए पानी और बिजली की समस्या, बेरोजगारी
पिछले चुनाव (2018) में समीकरण:
2018 के विस चुनाव में मुकाबला कांग्रेस के शशांक भार्गव और मुख्यदमंत्री शिवराज के करीबी मुकेश टंडन के बीच था। मुकेश चुनाव हार गए। कारण उनकी खराब छवि और भाजपा में भीतरघात रहा। जबकि शशांक भार्गव दो चुनावो में लगातार हारने के बाद पहली बार विधायक बनने में कामयाब रहे।
2023 चुनाव का संभावित समीकरण:
कांग्रेस शशांक भार्गव को फिर प्रत्याशी बना सकती है, क्योंकि इस सीट पर ब्राह्मण वोट काफी हैं। भाजपा से अभी तय नहीं है। लेकिन जो भी होगा, शिवराज की पसंद का ही होगा। हालांकि जिले में भाजपा मुकेश टंडन और मनोज कटारे खेमे में बंटी है। एक संभावित प्रत्याशी राकेश जादौन भी हैं। जबकि कांग्रेस में पूर्व विधायक निशंक जैन को पार्टी की कमान सौंपने से कांग्रेस मजबूत हुई है। यहां मुकेश टंडन श्याम सुंदर शर्मा की जोड़ी चर्चित रही है।
चुनाव से जुड़े मशहूर किस्से: पिछले चुनाव में मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान ने मुकेश टंडन के पक्ष में खूब प्रचार किया था, लेकिन उन्हें नहीं जिता सके।