मध्यप्रदेश में डॉ. गोविंद सिंह को सौगात या कांटों का ताज ?

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Rahul Garhwal
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मध्यप्रदेश में डॉ. गोविंद सिंह को सौगात या कांटों का ताज ?

हरीश दिवेकर, Bhopal. कांग्रेस में जिस फेरबदल का लंबे समय से इंतजार था वो आखिर हो ही गया। मध्यप्रदेश के उपचुनाव में मिली करारी हार के बाद से ही कांग्रेस में ये मांग उठती रही कि कमलनाथ को एक पद छोड़ देना चाहिए। लेकिन उनके कद को देखते हुए शायद पार्टी आलाकमान भी सीधे आदेश देने में झिझकते रहे। अब कमलनाथ ने इस पद से इस्तीफा दिया है। उनकी जगह गोविंद सिंह ये पद संभालेंगे। गोविंद सिंह लहार से विधायक हैं। 7 बार विधायक रह चुके हैं। लेकिन जो पद उन्हें मिला है वो पार्टी के भीतर कुछ पावर और कुछ नई सहूलियतें लेकर ही नहीं आता। पद के साथ उन्हें कांटों भरा ताज मिला है। जिसे सिर पर सजाना उनकी मजबूरी है। जिसे उन्हें अपनी ताकत में बदलकर दिखाना है।





'पद मिलने से पंख नहीं मिलते-गोविंद सिंह'





गोविंद सिंह मध्यप्रदेश कांग्रेस के उपाध्यक्ष तो पहले से ही हैं। तकरीबन डेढ़ साल से चले आ रहे इंतजार के बाद कमलनाथ ने एक पद से इस्तीफा दिया। इस्तीफा बहुत गुपचुप हुआ लेकिन आलाकमान ने उसकी स्वीकार्यता सोशल मीडिया पर जाहिर कर दी। साथ ही बतौर विधानसभा नेता प्रतिपक्ष गोविंद सिंह के नाम का ऐलान भी कर दिया। गोविंद सिंह इस पद के लिए डिजर्विंग फेस भी हैं और कांग्रेस की जरूरत भी। मौजूदा विधानसभा में गोविंद सिंह दूसरे सबसे वरिष्ठ विधायक हैं। पहले नंबर पर गोपाल भार्गव हैं जो आठ बार चुनाव जीत कर विधानसभा पहुंचे हैं। राजनीति में रचे-पगे हैं इसलिए नई जिम्मेदारी के बाद शेखी बघारते नजर नहीं आए। बल्कि साफ कर दिया कि रुतबा बढ़ा है लेकिन जिम्मेदारी भी साथ लाया है। पहली प्रतिक्रिया यही दी कि पद मिलने से पंख नहीं लगते। ये इल्म शायद गोविंद सिंह को भी है कि ये पद उन्हें यूं ही नहीं मिला है। उनके नाम के बहाने कई समीकरण साधे गए हैं और अब यही उम्मीद उनसे भी है कि पद पाते ही वो कई चुनावी समीकरणों को कांग्रेस के पक्ष में साधेंगे।





गोविंद सिंह का सीधे सिंधिया से मुकाबला





गोविंद सिंह का रास्ता आसान नहीं है और इस रास्ते को नापने के लिए वक्त बहुत कम है। समय का तकाजा यही कहता है कि सबको साथ लेकर चलने में ही भलाई है। तजुर्बेकार गोविंद सिंह ने पद के बाद कहा कि वो पहले भी विपक्ष की भूमिका में थे और अब भी हैं। कमलनाथ के इस्तीफे पर भी नपी-तुली बात कि उन्होंने इस्तीफा नहीं दिया काम का बंटवारा किया है। उनके मार्गदर्शन में अब विपक्ष की भूमिका निभाऊंगा। जिस सहज अंदाज में गोविंद सिंह ने ये बात कही है क्या अपने क्षेत्र ग्वालियर चंबल में जाकर गोविंद सिंह इसी सहजता से राजनीति कर पाएंगे। शायद नहीं क्योंकि ग्वालियर चंबल में वो अब सिर्फ विधायक नहीं होंगे। बल्कि कांग्रेस के बड़े नेता होंगे। ऐसे नेता जिनका मुकाबला सीधे बीजेपी नेता और केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया से होगा। गोविंद सिंह को वो फिल इन द ब्लैंक भरना है जो सिंधिया के जाने के बाद से खाली पड़ा है।





ग्वालियर चंबल की राजनीति के अलग ध्रुव गोविंद सिंह





वैसे ग्वालियर चंबल का इतिहास इस बात का गवाह है कि एक ही पार्टी में रहते हुए भी ज्योतिरादित्य सिंधिया और गोविंद सिंह कभी एक नहीं रहे। ग्वालियर चंबल की राजनीति के ये दो अलग-अलग ध्रुव रहे हैं। कहते हैं पानी में रहकर मगरमच्छ से बैर नहीं करना चाहिए। लेकिन गोविंद सिंह तो वो सियासतदां रहे जो पानी में भी पूरे दम से रहे और मगरमच्छ से बैर भी खूब रखा। माधवराव सिंधिया के जमाने से ही उन्होंने कभी महल में हाजिरी नहीं लगाई। बल्कि उनकी राजनीति ने महल का रूख कभी किया ही नहीं। शायद इसलिए वो सिंधिया की बजाए दिग्विजय सिंह के नेता कहलाते रहे। हालांकि कांग्रेस की गुटबाजी और खेमे की पहचान से इतर भी गोविंद सिंह अपनी अलग पहचान रखते हैं। वो ऐसे जमीनी नेता हैं जिन्होंने अपनी पहचान और अपनी साख खुद बनाई है। अब सवाल भी इसी साख को बचाए रखने का है। अब तक सिंधिया कांग्रेस में ही थे। शायद गोविंद सिंह को उस वक्त पंख फैलाने का मौका नहीं मिला। लेकिन अब खुलकर सिंधिया की मुखालफत कर सकते हैं। जिनकी कमी को पूरा करने का दारोमदार अब गोविंद सिंह के कंधे पर ही है।





ग्वालियर चंबल के दम पर सत्ता में वापस आई थी कांग्रेस





साल 2018 के चुनाव में बीजेपी को सत्ता से बेदखल कर कांग्रेस सरकार बनाने में कामयाब रही थी तो उसका काफी हद तक श्रेय ग्वालियर और चंबल को भी जाता है। साल 2018 में ग्वालियर चंबल के 8 जिलों की कुल 34 सीटों में 26 कांग्रेस के खाते में गई थीं जबकि भाजपा को 7 और बसपा को एक सीट मिली थी। वहीं अकेले चंबल संभाग के तीन जिलों की 13 सीटों में 10 कांग्रेस के पाले में आई थीं। कांग्रेस की जीत का आलम कुछ ऐसा था कि रुस्तम सिंह, लाल सिंह आर्य जैसे नेता जो शिवराज कैबिनेट में मंत्री रहे थे वो भी अपनी सीट बचाने में नाकाम रहे थे। इस जीत का सेहरा ज्योतिरादित्य सिंधिया के सिर सजा था जिन्हें उस वक्त कांग्रेस की जीत का पोस्टर बॉय तक बताया गया। उन्हीं सिंधिया ने एक झटके में कांग्रेस की सरकार के लिए मुश्किल खड़ी कर दी। खुद तो पार्टी बदली ही अपने साथ 16 विधायकों को भी ले गए जिसमें सबसे ज्यादा ग्वालियर चंबल के ही विधायक थे। उसके बाद पार्टी बदलने का सिलसिला शुरू हुआ और 28 सीटों पर उपचुनाव हुआ। 2018 में जो सीटें कांग्रेस ने अपने नाम की थी वो वापस बीजेपी की झोली में चली गईं।





गोविंद सिंह को दिखाना होगा करिश्मा





अब गोविंद सिंह को नई जिम्मेदारी मिली है तो जाहिर तौर पर उन्हें ग्वालियर चंबल में करिश्मा तो दिखाना ही होगा। गोविंद सिंह के नाम के जरिए पार्टी ने शायद असंतोष को साधने की कोशिश भी की है। कमलनाथ को शायद ये अंदेशा रहा होगा कि वो सज्जन सिंह वर्मा, विजय लक्ष्मी साधो या बाला बच्चन को नेता प्रतिपक्ष बनाते तो अंसतोष बढ़ सकता था। लेकिन गोविंद सिंह के कद के आगे सब शांत रहेंगे। वैसे ग्वालियर चंबल में सिंधिया की कमी पूरी करने की कांग्रेस पहले भी कोशिश करती रही है। खुद कमलनाथ ने ये ऐलान किया था कि अब ग्वालियर चंबल की फिक्र करना उनका काम है। कुछ दौरे भी किए लेकिन बात नहीं बन सकी। तकरीबन दो महीने पहले कांग्रेस ने जन आक्रोश रैली भी निकाली। लेकिन अब तक वो जादू नहीं चला जो सिंधिया के रहते नजर आता था। शायद अब नए पद के साथ गोविंद सिंह कोई ऐसी छड़ी घुमा सकें कि ग्वालियर चंबल में कांग्रेस फिर पुरानी जीत की उम्मीद कर सके।



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