सचिन त्रिपाठी, SATNA. आज राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की जयंती हैं। इस अवसर पर बापू के चरखे की चर्चा भी लाजमी है। बापू ने चरखा चला कर ही स्वावलंबन का ताना बाना बुना था। इस बात की अलख आज भी मध्य प्रदेश के एक गांव में जल रही है। ये गांव सतना जिले में है। जानिए इस गांव के स्वावलंबी बनने की कहानी ..
चरखे से ही जुड़ी है इस समाज के लोगों की रोजी रोटी
बाणसागर की अथाह जलराशि के एक किनारे बसा सुलखमां गांव और यहां का पाल समाज चरखा चलाना नहीं भूला है। इस समाज के लोगों के रोजी रोटी चरखे से ही जुड़ी है। महिला और पुरुष दोनों की दिनचर्या चरखा से ही शुरू होती है और शाम भी इसी में खत्म हो जाती है। सुलखमां सतना जिले के रामनगर ब्लॉक में आता है। जिला मुख्यालय से लगभग 90 किलोमीटर दूर बसे सुलखमां गांव में पाल समाज की जनसंख्या करीब 600 है। इनमें से 150 सौ लोग पांच पीढ़ियों से चरखा चला रहे हैं लेकिन परिवार की बढ़ती जरूरतें और घटती आमदनी के कारण नई पीढ़ी का मोह भंग होता जा रहा है।
30 साल से कर रहे ये काम
63 साल के गोपाल पाल बताते हैं कि सयानों को महात्मा गांधी ने सीख दी है। उसी का पालन करते चले आ रहे हैं। करीब 30 साल हो गए काम करते हुए। अभी भी चल रहा है लेकिन आमदनी नहीं है। गोपाल ने आगे बताया कि पाल समाज के लोग ऊन से कंबल और बैठकी बनाते हैं। यह ऊन हम लोग बाहर से लाते हैं।
जब समय ज्यादा, आमदनी कम
चरखा से ऊन का कंबल बनाने में समय ज्यादा लग रहा है। उस हिसाब से पाल समाज के लोगों को पैसा नहीं मिलता है। गोपाल ने द सूत्र से बात करते हुए कहा कि एक कंबल बनाने में कम से कम 10 दिन का समय लगता है। इस कारण नए लड़के इस काम को पसंद नहीं करते। खेती बाड़ी कम है इसलिए मजबूरी में यह काम चल रहा है।
पूंजी भी नहीं निकलती
आज की पीढ़ी ने चरखा चलाने से इसलिए भी तौबा कर लिया क्योंकि इसमें पूंजी निकलना मुश्किल हो रहा है। पाल समाज की बहू बन कर आई सुसीता पाल ने बताया कि मायके में अम्मा बाबू के साथ चरखा चलाने और ऊन बनाने का काम करते थे। ससुराल आए तो यहां भी शुरू कर दिया लेकिन इस काम में पूंजी निकालना मुश्किल से हो पाता है, इस लिए बाहर जाना पड़ता है।