(जबलपुर इनपुट: ओ पी नेमा)
BHOPAL: द सूत्र अपनी खबरों में पहले ही बता चुका है कि किस तरह से मध्य प्रदेश की आंगनबाड़ियों में वजन और ऊंचाई मापने वाले ढाई लाख में से डेढ़ लाख उपकरण खराब पड़े हैं। और आखिर क्यों कुपोषण के मामले में मप्र पूरे देश में नंबर पर है? पर उसकी एक मुख्य वजह यह भी मानी जा सकती है कि सरकार आंगनबाड़ियों में जनभागीदारी यानी जनता की सहभागिता चाहती है। जिसके लिए सरकार ने कुछ वक़्त पहले एडॉप्ट एन आंगनबाड़ी योजना को बाकायदा दोबारा शुरू किया। इसमें तय किया गया था कि जिले के प्रमुख लोग जैसे कलेक्टर, विधायक, सांसद या मंत्री अपने अपने क्षेत्र की एक आंगनबाड़ी को गोद लेंगे और आंगनबाड़ी का कायाकल्प कर आम लोगों के सामने नजीर पेश करेंगे। लेकिन सरकारी अफसरों और नेताओं में ही इस योजना को लेकर कोई उत्साह नजर नहीं आता। ऐसा द सूत्र की पड़ताल में खुलासा हुआ है। साथ ही पोषण मटका आहार योजना के भी बुरे हाल है। पढ़िए द सूत्र की पड़ताल करती ये ग्राउंड रिपोर्ट।
भोपाल
आंगनबाड़ी केंद्र नंबर 783
- 6 नंबर स्टॉप, शिवाजी नगर में अंकुर स्पोर्ट्स काम्प्लेक्स के पास स्थित आंगनबाड़ी केंद्र में जब द सूत्र की टीम पहुंची तो वहां बिजली गुल थी।इस आंगनबाड़ी को किसी और ने नहीं बल्कि जिले के मुखिया यानी कलेक्टर अविनाश लवानिया ने गोद लिया है। मगर आंगनबाड़ी के हाल कुछ ख़ास अच्छे नहीं हैं।
आंगनबाड़ी केंद्र 767
- द सूत्र ने राजधानी भोपाल की दो और आंगनबाड़ियों का दौरा किया। एक आंगनबाड़ी केंद्र 767 में जब टीम पहुंची तो पीने के पानी की समस्या नजर आई। आंगनबाड़ी में पानी का कनेक्शन ही नहीं है। पानी बेहद दूर यादव मोहल्ले से लाना पड़ता है। -इस केंद्र को सहारा साक्षरता नाम के NGO के शिवराज कुशवाहा ने गोद लिया हुआ है। आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं से जब पूछा गया कि क्या गोद लेने के बार आंगनबाड़ी को कोई भी फायदा हुआ तो उनका जवाब था- नहीं। आंगनबाड़ी पुराने ढर्रे पर ही चल रही है।
आंगनबाड़ी केंद्र 730
- भोपाल के ही वार्ड 31 में शिवनगर, 74 बंगले स्थित बाणगंगा परियोजना के अंतर्गत आने वाली आंगनबाड़ी केंद्र 730 में भी द सूत्र की टीम पहुंची। केंद्र में टीन की छत, टूटी फर्श.. सबकुछ देखने को मिला। बच्चों को दूध नहीं मिलता और कब मिलेगा ये कार्यकर्ताओं को नहीं पता।
जबलपुर
आंगनबाड़ी केंद्र 75
भोपाल के अलावा जबलपुर में भी द सूत्र की टीम ने जायजा लिया। जब आंगनबाड़ी केंद्र 75 में सूत्र की टीम पहुंची तो इस आंगनबाड़ी को संचालित करने वाली कार्यकर्ता ने शिकायतों का पिटारा खोल दिया। केंद्र की कार्यकर्ता सीता सिपाही बतातीं हैं कि बच्चों के पास बैठने के लिए दरी तक नहीं हैं....खाने के बर्तन नहीं हैं। भवन की सीलिंग, जमीन और दरवाज़े टूटे हुए हैं....बारिश में पानी भर जाता हैं। इतनी अव्यवस्था देखकर तो हितग्राही ही पीछे हो जातें हैं। यह आंगनबाड़ी केंद्र भी एक NGO द्वारा ही गोद लिया गया है, जिसने गोद लेने की फॉर्मेलिटी निभाते हुए बच्चों को कुछ पुराने खिलौने भर बाँट दिए...बस।
आंगनबाड़ी केंद्र 80
जबलपुर के आंगनबाड़ी केंद्र 80 के भी यही हाल है। आंगनबाड़ी कार्यकर्त्ता उमा बनर्जी साफ़-साफ़ बताती है की कैसे आंगनबाड़ी गोद लेने के बाद भी उनके केंद्र में कोई ख़ास सुविधा नहीं प्राप्त हो पाई है। यहाँ बच्चों के बैठने तक की व्यवस्था नहीं है। एक NGO द्वारा केंद्र को गोद लेने के बाद बस खानापूर्ति के नाम पर शुरुआत में कुछ पुराने खिलौने और चॉकलेट्स बाँट दिए गए। उसके बाद से आज तक न ही NGO ने एक भी बार पलट कर आंगनबाड़ी केंद्र की सुध नहीं ली और न ही सरकार ने उस NGO से इस रवैये की वजह पूछने की जहमत उठाई।
क्या है एडाप्ट एन आंगनबाड़ी योजना का मूल मकसद
- इस योजना का कान्सेप्ट ही यही था कि जो लोग भी आंगनबाड़ियों को गोद लेंगे वो एक ऐसा उदाहरण पेश करेंगे कि जिससे दूसरे लोग प्रेरित हो सके। एडॉप्ट एन आंगनबाड़ी योजना में तीन कैटेगरी बनाई गई थी: 1. आंगनबाड़ी का इन्फ्रास्ट्रक्चर बनाने एवं सुधारने में जनसहयोग। 2. बच्चों की पर्सनल जरूरतों को पूरा करने में सहयोग। 3. स्वास्थ्य एवं पोषण सेवाओं में सहयोग।
39398.53 लाख रुपए का बजट, फिर भी दोबारा फेल पोषण मटका कार्यक्रम
- सरकार ने जनभागीदारी से एक और कार्यक्रम शुरू किया था, जिसका नाम है पोषण मटका। इसके भी हाल कुछ ख़ास अच्छे नहीं हैं। दरअसल, करीब छह साल पहले पोषण मटका कार्यक्रम असफल हो जाने के बाद राज्य सरकार ने वर्ष 2020 में कुपोषण दूर करने के लिए पोषण मटका कार्यक्रम दोबारा शुरू किया था। यह कदम प्रदेश में राज्य पोषण प्रबंधन रणनीति 2022 जारी होए के तहत उठाया गया। पहली बार इसकी शुरुआत 6 साल पहले हुई थी लेकिन तब ये नाकाम हो गया।
क्यों फेल हो रहें जनसहभागिता वाले अडॉप्ट एन आंगनबाड़ी और पोषण मटका कार्यक्रम
- दरअसल दोनों ही योजनाओं को ही जनसहभागिता से चलाया जा रहा है। और दोनों का फेल होना ये साबित करता है कि सिर्फ जनता की सहभागिता है किसी स्कीम को सफल बनाने के लिए काफी नहीं है। सरकारी समर्पण भी जरुरी है। अब सवाल यह है कि हर साल आंगनवाड़ियों के लिए और पोषण आहार के लिए आवंटित बड़े बजट के बाद भी सरकार को अनाज मांगने की नौबत क्यों आ रही है? क्या आवंटित बजट कम पड़ रहा है? मगर ऐसा लगता तो नहीं!
बजट का सही तरीके से इस्तेमाल नहीं होता
असलियत यह है कि इन योजनाओं के लिए सरकार के पास करोड़ों का प्रावधान है। लेकिन इस बजट का सही तरीके से इस्तेमाल नहीं होता। इसलिए मजबूरन सरकार को ऐसे प्रोग्राम चलाने पड़ते हैं और जनता से मदद की गुजारिश की जाती है। इन्हीं सारे सवालों को लेकर द सूत्र ने विभाग के अधिकारयिों से जानना चाहा कि जनभागीदारी के ये प्रोग्राम फेल क्यों हैं? -सबसे पहले बात की परियोजना अधिकारी शुभा श्रीवास्तव से... शुभा श्रीवास्तव ने कहा डीपीओ सोलंकी से बात करें... डीपीओ सोलंकी से बात करने की कोशिश की तो सोलंकी ने फोन नहीं उठाया... इसके बाद द सूत्र ने संपर्क किया महिला एवं बाल विकास की जाॅइंट डायरेक्टर तृप्ति त्रिपाठी से... तृप्ति त्रिपाठी ने कहा पीआरओ से मिलिए... पीआरओ से मुलाकात की तो उन्होंने कहा कि सवाल बता दीजिए, अभी अधिकारी मीटिंग में व्यस्त हैं... तीन दिन बाद फिर पीआरओ से संपर्क किया तो डायरेक्टर रामराव भोंसले का मैसेज पीआरओ के जरिए मिला कि प्रमुख सचिव अशोक शाह से बात कीजिए...
एक हिंदी फिल्म का डायलॉग है तारीख पर तारीख। महिला बाल विकास विभाग के अधिकारियों पर यह फिट इस तरह से बैठता है कि मीटिंग्स पर मीटिंग्स। आखिर ये मीटिंग किस बात की करते हैं? जब जमीन पर कोई बदलाव नहीं है। हमने बड़े सिंपल सवाल किया था कि ये स्कीम क्या केवल औपचारिकता बनकर रह गई है... इसकी मॉनिटरिंग कौन कर रहा है? लेकिन इसका जवाब देना भी अधिकारियों ने मुनासिब नहीं समझा। क्योकि वो जानते हैं कि कागज पर योजना बेहद अच्छी है... जमीन पर हकीकत कुछ और।