GWALIOR: आखिर 57 साल बाद कैसे ढह गया बीजेपी का मजबूत सियासी किला ? मेयर हारी,पार्षद भी घटे

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Dev Shrimali
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GWALIOR: आखिर 57 साल बाद कैसे ढह गया बीजेपी का मजबूत सियासी किला ? मेयर हारी,पार्षद भी घटे

GWALIOR News. बीते 57 वर्षों से लगातार ग्वालियर नगर निगम में जीतती आ रही बीजेपी को सपने में भी नही लगता था कि यहां की मेयर की चेयर कभी उसके नीचे से खिसक सकेगी।  लेकिन इस बार कांग्रेस ने यहां कमाल कर दिया। विधानसभा चुनावों के लिए रणभेरी बजने से महज एक साल पहले बीजेपी को मिली इस करारी शिकस्त ने बीजेपी को ग्वालियर ,भोपाल ही नहीं बल्कि दिल्ली तक हिलाकर रख दिया है। हार इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि ग्वालियर देश में ग्वालियर इकलौता शहर है जहां से दो केंद्रीय मंत्री हैं। प्रदेश सरकार में दो मंत्री हैं। दो नेता निगम के अध्यक्ष बनकर केबिनेट मंत्री का सुख भोग रहें है और इनकी साझा ताकत भी अपनी सत्तावन साल पुरानी विरासत भी संभालकर नही रह सकी। पिछली बार एक लाख मतों से जीता मेयर का चुनाव इस बार उल्टे 28 हजार मतों के बड़े अंतर से हार गए। वह भी तब जब कॉंग्रेस के वरिष्ठ नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया के बीजेपी में शामिल होने के बाद उसके नेता आश्वस्त होकर बैठे थे कि इस क्षेत्र में सिंधिया ही कांग्रेस थे अब जब वे ही नहीं रहे तो कांग्रेस बची ही कहाँ? हालांकि बीजेपी अपनी इस शर्मनाक पराजय के कारणों की तलाश अवश्य करेगी कदाचित "द सूत्र"  प्रथमद्रष्टया हार के कारणों की तलाश अपने पाठकों और दर्शकों के लिए की । ये कुछ इस प्रकार हैं-





गुटबाजी के चलते आठ दिन बाद हो सका प्रत्याशी का चयन





अब तक बीजेपी में उम्मीदवार का चयन सबसे पहले और आसान ढंग से हो जाता था। जबकि गुटबाजी के चलते कांग्रेस में टांग खिंचाई के चलते यह अंतिम क्षणों तक लटका रहता था। लेकिन इस बार उलटा हुआ। कांग्रेस प्रत्याशी घोषणा से पहले ही अपने चुनाव प्रबंधन में जुट गए थे जबकि बीजेपी में महापौर उम्मीदवार के लिए यहां पर जमकर मंथन और चिंतन ही होता रहा इसके बावजूद महापौर प्रत्याशी का नाम फाइनल नहीं हो पा रहा था। यहां  दिग्गज नेता अपने-अपने समर्थकों को महापौर प्रत्याशी बनवाना चाहते थे।यही कारण था कि आठ दिन इसी में निकल गए लेकिन बीजेपी  ग्वालियर में अपने महापौर प्रत्याशी  का नाम फाइनल नहीं कर पाई। बीजेपी की तरफ से कई बार  कोर कमेटी की बैठक में हुई, लेकिन इसके बावजूद केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया और नरेंद्र सिंह तोमर अपने अपने समर्थक के नाम पर अड़े रहे।जब यह बात नेतृत्व के पास पहुंची तो जल्दबाजी में प्रदेश अध्यक्ष वीडी शर्मा ने ग्वालियर महापौर प्रत्याशी के रूप में सुमन शर्मा को फाइनल किया और इसके बाद इस नाम पर दोनों ही नेताओं की सहमति बन गई।





कुप्रबंधन का शिकार रहा मेयर का चुनाव





ग्वालियर नगर निगम के चुनाव में पहली बार देखा गया कि बीजेपी में जिस तालमेल और प्रबंधन के साथ चुनाव लड़ा जाता है वैसा इस चुनाव में नहीं देखने को मिला।इस चुनाव में बीजेपी के की तरफ से कोई रणनीति देखने को नही  मिली और यही हार का सबसे बड़ा कारण रहा।इसके साथ ही बताया जा रहा है कि ग्वालियर की कमान बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष वीडी शर्मा के समर्थकों ने अपने हाथ  में ले ली थी लेकिन न तो उन्हें चुनाव का अनुभव था और न सियासी परिपक्वता। उन्होंने पुराने कार्यकर्ताओं को तबज्जो नही दी बल्कि  पूरा चुनाव आत्मकेंद्रित कर लिया। स्वयं सुमन शर्मा ने भी यह घोषणा कर इस अव्यवस्था को और मजबूत कर दिया कि जिन्होंने टिकट दिलाया है चुनाव का संचालन भी वही करेंगे। टिकट वीडी शर्मा के खाते का था ।यही कारण है कि उन्होंने अपने चेहते नेताओं को ग्वालियर नगर निगम की कमान सौंप दी, जिनकी अंचल में कोई पकड़ नहीं थी और ना ही कोई पहचान थी।इस कारण इस चुनाव में कुप्रबंधन देखने को मिला।





तोमर ने पहले ही कह दिया था - सुमन कमजोर प्रत्याशी





मीडिया में कहा जा रहा है कि मेयर उम्मीदवार श्रीमती सुमन शर्मा  केंद्रीय कॄषि मंत्री नरेंद्र तोमर की पसंद थी । लेकिन बीजेपी के अंदरूनी और जिम्मेदार सूत्र इसे पूरी तरह गलत बताते है । उनका कहना है कि सुमन तो तोमर की खुली नापसंद थीं। जब उनका नाम आया तो तोमर ने दिल्ली से लेकर भोपाल तक के सभी आला नेताओं को बता दिया था कि सुमन सबसे कमजोर केंडिडेट हैं और हार सकती है। हालांकि तोमर और सिन्धिया पूर्व मेयर को टिकट देने के पक्ष में थे लेकिन पार्टी तय कर चुकी थी कि सामान्य सीट पर पिछड़े को टिकट नही देंगे। तोमर ने अपनी समर्थक हेमलता भदौरिया का नाम आगे बढ़ाया लेकिन चली सिर्फ भोपाल की और सुमन शर्मा ही फायनल हो गईं।





सिंधिया और तोमर के बीच गुटबाजी





केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया और नरेंद्र सिंह तोमर के समर्थक नेता भी इस चुनाव में खुलकर मैदान में नहीं दिखाई दिए और ना ही वह प्रचार प्रसार के दौरान नजर आए। इसके साथ ही जिन सिंधिया समर्थकों को टिकट नहीं मिल पाया,उनकी भी नाराजगी देखने को मिली।वहीं राजनीतिक गलियारों में यह चर्चा चलती रही  कि ग्वालियर महापौर का चुनाव  सिंधिया की साख का सवाल है  इस कारण न केवल  नरेंद्र सिंह तोमर के समर्थक बल्कि बीजेपी का मूल कार्यकर्ता ने  भी इस चुनाव में सक्रियता न दिखाते हुए प्रचार से दूरी बना कर रखी। मतलब इस पूरे निकाय चुनाव में सिंधिया और तोमर के बीच गुटबाजी हावी रही। सिंधिया समर्थकों की हर वार्ड में हिस्सेदारी को बीजेपी कार्यकर्ता पचा पा रहे । वे पहली बार ऐसी सरकार देख रहे हैं जो सरकार तो बीजेपी की है लेकिन प्रशासन सुनता सिंधिया और उनके समर्थकों की है । बड़े नेता भी बगलें झांकते है जब सिंधिया कहते है कि अब वे आ गए हैं ,क्षेत्र का विकास अब होगा। यही बजह रही कि गुटबाजी ग्रास रुट तक पहुंच गई और कार्यकर्ता ने वोटर को बूथ तक लाने में कोई रुचि नहीं ली । त्रिदेव कागजी साबित हुए और बीजेपी को इतिहास की सबसे शर्मनाक पराजय का सामना करना पड़ा।





बीजेपी के कई बड़े नेताओं में दिखी नाराजगी





 ग्वालियर नगर निगम महापौर प्रत्याशी को लेकर बीजेपी में शुरुआत से ही गुटबाजी देखने को मिली। यही कारण है कि सबसे अंतिम मुहर महापौर प्रत्याशी पर लगी।महापौर प्रत्याशी सुमन शर्मा का नाम घोषित होने के बाद सबसे बड़ी नाराजगी पूर्व मंत्री अनूप मिश्रा में देखी गई।क्योंकि कहा जा रहा था कि पूर्व मंत्री अनूप मिश्रा अपनी बहू को महापौर प्रत्याशी बनाने के लिए एड़ी - चोटी का जोर लगा रहे थे और इनके नाम पर सिंधिया भी सहमत थे, लेकिन केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर सहमत नहीं थे।इसके बाद प्रचार प्रसार के दौरान पूर्व मंत्री अनूप मिश्रा लगातार नाराज दिखे. उन्हें बीजेपी के मंच पर जगह नहीं दी गई। इसके बाद वे कार्यक्रम छोड़कर चले आये । इसके बाद सुमन शर्मा का उनके सामने रोते हुए का वीडियो वायरल हुआ । इससे भी पार्टी की गुटबाजी सड़क पर आ गई।





ग्वालियर में बीजेपी की हार के ये हैं प्रमुख कारण





- अंचल के दोनों दिग्गज नेता केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर और ज्योतिरादित्य सिंधिया के बीच गुटबाजी । बर्चस्व की जंग।



-  गुटबाजी के कारण महापौर प्रत्याशी के नाम की घोषणा में हुआ अनावश्यक बिलम्ब।



- बीजेपी के नेता और कार्यकर्ताओं में नाराजगी



- ग्वालियर में पहली बार इस निकाय चुनाव में बीजेपी की तरफ से कुप्रबंधन । प्रबंधन का जिम्मा अस्तित्वहीन और अपरिपक्व हाथों में जाना।



- भाजपा महापौर प्रत्याशी सुमन शर्मा की कार्यकर्ताओं में पकड़ न होना ।



- मेयर प्रत्याशी की आम जनता के बीच कोई पहचान नहीं और सक्रियता की कमी ।



- बीजेपी महापौर प्रत्याशी में चुनाव लड़ने का कोई भी अनुभव नहीं । पच्चीस वर्ष पहले एक बार पार्षद का चुनाव लड़ीं,उसमे में चौथे नम्बर पर रहीं।





विधानसभा चुनाव जीतना बड़ी चुनौती





अब राजनीतिक गलियारों में चर्चा है कि सत्ता के इस सेमीफाइनल के बाद आगामी साल विधानसभा का चुनाव होना है।विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की जीत का बड़ा असर देखने को मिल सकता है क्योंकि जिस तरीके से ग्वालियर- चंबल अंचल में बीजेपी के दिग्गज नेताओं में गुटबाजी हावी है,ऐसे में अगर यह गुटबाजी ऐसे ही जारी रही तो इसका असर आगामी विधानसभा में देखने को मिलेगा।



 केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया और नरेंद्र सिंह की वर्चस्व की लड़ाई के बीच कई ऐसे बीजेपी के नेता हैं,जिन्हें पार्टी से दरकिनार कर दिया है और यह नेता अंदर ही अंदर बीजेपी का विरोध कर रहे हैं या फिर वे निष्क्रिय हो गए हैं ।इसके साथ ही कांग्रेस छोड़कर बीजेपी में शामिल हुए दर्जनभर सिंधिया समर्थक नेता भी विधानसभा टिकट की आस में बैठे है इससे बीजेपी के पुराने दावेदार चिंतित है। जिस तरह से सिंधिया समर्थक डेढ़ दर्जन वार्ड में बीजेपी के परंपरागत प्रत्याशियों को धकेलकर पार्षद का टिकट पा गए वैसे ही विधानसभा चुनाव में न हो जाये,इस भय से भी नेता सक्रीय कम दिखे।



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