GWALIOR : एक शहर में दो दिन होता है भुजरियां महोत्सव, जानें क्या है इससे जुड़ी कहानी

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Dev Shrimali
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GWALIOR : एक शहर में दो दिन होता है भुजरियां महोत्सव,  जानें क्या है इससे जुड़ी कहानी


GWALIOR. आज रक्षाबन्धन के साथ ही ग्वालियर, चम्बल ,बुंदेलखंड से लेकर विंध्य के अनेक हिस्सों में भुजरियों का उत्सव शुरू हो जाएगा। कहीं -कहीं इसे कजली भी कहते हैं। अब देश -प्रदेश के अनेक हिस्सो तक यह पर्व पहुंच गया है क्योंकि जहाँ इन क्षेत्रों के लोग पहुंचे वहां भुजरियां पहुंच गईं । लेकिन आपको यह जानकर बहुत आश्चर्य होगा की एक ही शहर में एक नगर पालिका सीमा के अंदर एक ही  त्यौहार दो अलग-अलग दिन मनाया जाता है। जी हाँ बात करते हैं रक्षाबंधन पर होने वाले भुजरिया महोत्सव की, आधे भिण्ड शहर  में रक्षाबंधन पर भुजरिया श्रावणी की पूर्णिमा के दिन विसर्जित  की जाती  है और बाकी आधे हिस्से में दूसरे दिन यानि पड़वा को।

यह अंतर क्यों है और इसके पीछे क्या कारण हैं? यह जानने के लिए हमने शहर के बुजुर्गों के साथ बातचीत की, तब यह पता चला कि यह प्रसंग आल्हा उदल और पृथ्वीराज की प्रसिद्ध भुजरिया की लड़ाई से जुड़ा हुआ है ?



यूं तो भिण्ड शहर का इतिहास वनखंडेश्वर महादेव मंदिर से शुरू होता शुरू होता है जिनकी स्थापना पृथ्वीराज चौहान द्वारा वनखंड में की की गई थी। वनखंडेश्वर मंदिर को यदि केंद्र माने तो शहर का पूर्वी हिस्सा जो लहार और उरई की ओर विस्तार लेता है एवं दूसरा हिस्सा अटेर तथा ग्वालियर की ओर विस्तार लेता है।



सदियों से पुराने भिण्ड में भुजरिया का महोत्सव रक्षाबंधन के दिन यानी पूर्णिमा के दिन ही होता है और शेष शहर में दूसरे दिन होता है। इसके पीछे बहन भाई के प्रेम और ऐतिहासिक युद्ध की कहानी है।  वीरगाथा काल के सुप्रसिद्ध कवि जगनिक द्वारा रचित परमाल रासो के नायक आल्हा और ऊदल के पराक्रम से जुड़ा यह प्रसंग आज भी त्याग और बलिदान की याद दिलाता है। आल्हा और उदल के शौर्य स्वाभिमान व मातृभूमि प्रेम की अनूठी मिसाल संजोए  यह प्रसंग सदियों से भिण्ड में दो संस्कृतियों के मेल की  अनूठी  मिशाल  कायम किए हुए हैं।



कितनी पुरानी है परम्परा



यहां रक्षाबंधन के एक दिन बाद मनाने की परंपरा 1182 ईस्वी के चंदेल शासन काल से चली आ रही है। 837 साल पहले महोबा के  चंदेल राजा परमाल के शासन से इसका जुड़ाव है।  1182 में राजा परमाल की पुत्री चंद्रावली अपनी 1400 सखियों  के साथ भुजरियों के विसर्जन के लिए कीरत सागर जा रही थी।  रास्ते में दिल्ली नरेश पृथ्वीराज चौहान के सेनापति चामुंडा राय ने आक्रमण कर दिया।  पृथ्वीराज चौहान की  चंद्रावली का अपहरण कर उसका विवाह अपने बेटे सूरज सिंह के साथ कराने और पारस पथरी पवन बछेड़ा (उड़ने वाले घोड़े) और नौलखा हथियाने की योजना थी।  



यह वह दौर था जब उरई के राजा मामा माहिल के चुगली करने के कारण आल्हा , उदल को राज्य से निष्कासित कर दिया गया था, और वह अपने मित्र मलखान के पास कन्नौज में रह रहे थे। रक्षाबंधन के दिन जब राजकुमारी चंद्रावल अपनी सहेलियों के साथ भुजरिया विसर्जित करने जा रही थी तभी पृथ्वीराज की सेना ने उन्हें घेर लिया। आल्हा उदल के ना रहने से महारानी मल्हना अपने मुंह बोले भाई आल्हा - उदल की  दी हुई तलवार स्वयं ले युद्ध में कूद पड़ी। दोनों सेनाओं के साथ भीषण युद्ध में राजकुमार अभई मारा गया और पृथ्वीराज की सेना चंद्रावल को साथ ले जाने लगी। इससे पूर्व महारानी मल्हना ने शारदा देवी को प्रार्थना की थी और स्वयं माई शारदा ने उदल को स्वप्न में जागृत करके महोबा की अस्मिता पर आए संकट के बारे में बताया। तब अपने राज्य के अस्तित्व और अस्मिता पर संकट की खबर सुन साधु वेशभूषा में आए वीर आल्हा, उदल ने अपने मित्र मलखान के साथ पृथ्वीराज की सेना का डटकर मुकाबला किया। चंदेल और चौहान सेनाओं के बीच हुए भीषण युद्ध में दोनों सेनाओं के हजारों योद्धा मारे गए। राजकुमारी चंद्रावल और उनकी सहेलियां अपने भाइयों को राखी बांधने की जगह उस दिन राज्य की सुरक्षा के लिए युद्ध भूमि में अपना जौहर दिखा रही थी। इसी वजह से उस दिन भुजरिया विसर्जन भी नहीं हो सका। दूसरे दिन अर्थात पड़वा को भुजरिया का विसर्जन किया गया और विजय का उत्सव मनाया गया तभी से वहां अगले दिन भुजरिया विसर्जित करने और रक्षाबंधन मनाने की परंपरा है।  महोबा की अस्मिता से जुड़े इस युद्ध में विजय



युद्ध में विजय पाने के कारण समूचे अंचल में इस दिन को विजय उत्सव के रूप में भी मनाया जाता है।  सावन माह में देहातों में लगने वाली चौपालों में आल्हा गायन सुनकर वीर बुंदेलों के आज भी 837 साल पहले हुई लड़ाई का जोश और जुनून ताजा हो जाता है।



भिण्ड में दो दिन क्यों मनाया जाता है?



उरई के राजा मामा माहिल के कहने पर राजा परमाल चंदेल ने में अपने दोनों सेनापतियों आल्हा और उदल को राज्य से निष्कासित कर दिया था। तब उन दोनों ने कन्नौज के राजा लाखन राणा के यहां शरण ली थी इसकी भनक लगते ही दिल्ली नरेश पृथ्वीराज ने महोबा पर चढ़ाई की थी।  भिण्ड ऐसा स्थान है जो उस दौरान वनखंड हुआ करता था तथा यहां पृथ्वीराज चौहान द्वारा वनखंडेश्वर मंदिर निर्माण करने से यहां की जनता का पृथ्वीराज से जुड़ाव रहा है तथा उरई लहार आदि स्थान पृथ्वीराज चौहान से संबंधित रहे हैं।  वही आल्हा उदल की मां ग्वालियर के यादव राजा की पुत्रियां थी । बक्सर के निवासी बनाफर राय वंश के वीर बलराज और बच्छराज बनाफर को ग्वालियर के राजा दलपत की पुत्री देवी (देंवल दे) बिरमा (बिरहमा)  की शादी हुई थी। तथा आल्हा उदल से संबंधित क्षेत्र कन्नौज, खुरहट, कालपी, खजुराहो, चरखारी,जाजमऊ, झांसी, दरिया (ग्वालियर)  दिल्ली,  महोबा इत्यादि क्षेत्र भिण्ड के आस-पास ही हैं ।  वनखंड होने के नाते यह मध्य का क्षेत्र था जहां चौहान और चंदेल दोनों संस्कृतियों का केंद्र बिंदु हुआ करता था। इस युद्ध में मातृभूमि पर आए संकट में चंदेल सेनानायक आल्हा ऊदल ने अपनी छोटी-सी टुकड़ी के साथ सामना किया और सावन की पूर्णिमा को लड़े गए युद्ध में चौहान सेना को बुरी तरह पराजित करते हुए ना सिर्फ खदेड़ दिया बल्कि पृथ्वीराज चौहान के दो पुत्रों ने भी इसमें वीरगति पाई थी।



युद्ध के दूसरे दिन समूचे महोबा राज्य में विजय उत्सव मनाया गया । बहनों ने भाइयों को राखी बांधी और राजकुमारी चंद्रावल ने सखियों समेत भुजरिया विसर्जन किया तब से भिण्ड शहर में भी दूसरे दिन भुजरिया महोत्सव मनाया जाता है जबकि पृथ्वीराज चौहान के प्रभाव वाले क्षेत्र में अर्थात पुरानी भिण्ड में बन खंडेश्वर मंदिर के पूर्व की ओर गर्ल्स स्कूल की गली, किला रोड, चित्रगुप्त गंज, इमामबाड़ा, परशुराम धर्मशाला, पुरानी बस्ती, माधवगंज हॉट, लहार रोड, राधा कॉलोनी, हाउसिंग कॉलोनी, कृष्णा कॉलोनी,  पुलिसलाइन, चतुर्वेदी नगर, वीरेंद्र वाटिका, देहात कोतवाली से लेकर उमरी, रौन, मिहोना, लहार, चकरनगर, लखना, आदि पृथ्वीराज चौहान के प्रभाव क्षेत्र बाले क्षेत्रों में आज भी पूर्व की भांति रक्षाबंधन के दिन ही भुजरिया उत्सव होता है। तथा वनखंडेश्वर मंदिर से पश्चिम की दिशा की ओर शेष क्षेत्र में जहां आल्हा उदल का प्रभाव रहा है वहां दूसरे दिन भुजरिया महोत्सव होता है।



रूठों को मनाने का दिन भी है यह



भुजरिया का पर्व ऐसा पर्व है जिस दिन यदि सामने से दुश्मन भी आ रहा है तो उसको भुजरिया भेंट करके उसकी आयु और ओहदे के अनुसार गले मिलकर अथवा पैर छूकर शत्रुता समाप्त हो जाती थी।



सत्तर साल से इस परंपरा के साक्षी महावीर सिंह  कहते हैं कि- भुजरिया के पर्व का सम्बंध मान - सम्मान मातृभूमि प्रेम के लिए त्याग और बलिदान से जुड़ा है इसलिए  परंपरा पूर्व में आल्हा का गायन होता था और इस उत्सव पर मेलजोल के और साहसिक खेलों के आयोजन होते थे। शिकार खेलने की परंपरा थी। कुश्ती, दंगल, नाल उठाना,  मटकी फोड़, हाई जंप, लॉन्ग जंप आदि प्रतियोगिता होती थी। जिसमें सभी जातियों के लोग सामाजिक समरसता के साथ भागीदारी करते थे। यह उत्सव भाईचारा बढ़ाने और अवसर भी होता था पूर्व में चली आ रही दुश्मनी को भुजरिया भुजरिया देकर गले मिलकर एक दूसरे के पैर छूकर आपसी मनमुटाव समाप्त करके का भी अक्सर होता था।



वही  अभिभाषक रामदास सोनी कहते है -भिण्ड में पूर्व में हर घर में गौरी तालाब से मिट्टी लाकर 8 दिन पूर्व भुजरिया बोई जाती थी। जिनको पवित्रता के साथ खीर मालपुआ,पूड़ी आदि से पूजन करके रक्षाबंधन के दिन गौरी सरोवर के पूर्वी तट पर विसर्जित किया जाता है। तथा फिर एक दूसरे को शौर्य और प्रेम की प्रतीक भुजरिया भेंट करके प्रेम स्नेह और सम्मान प्रदर्शित किया जाता है।  वही गौरी सरोवर के पश्चिमी तट की ओर दूसरे दिन वनखंडेश्वर से पश्चिम दिशा में शहर के निवासी भुजरिया विसर्जन करते हैं यह परंपरा सदियों से चली आ रही है।


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