BHOPAL: रसूखदारों की हवस से खत्म हुआ 390 एकड़ का जंगल, सरकारी सर्वे में डीम्ड फॉरेस्ट मानने से ही इनकार

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BHOPAL: रसूखदारों की हवस से खत्म हुआ 390 एकड़ का जंगल, सरकारी सर्वे में डीम्ड फॉरेस्ट मानने से ही इनकार

सुनील शुक्ला / राहुल शर्मा, BHOPAL. राजधानी भोपाल में हरे-भरे पहाड़ी जंगल-गुफाओं, कुदरती नदी-नालों और राष्ट्रीय पशु बाघ ( National Animal Tiger) और तेंदुए जैसे वन्य प्रणियों के विचरण के कारण प्राकृतिक रूप से सबसे खूबसूरत इलाके केरवा (kerwa) को रसूखदारों की काली नजर लग गई है। वन विभाग (Forest Department) की फाइलों में टाइगर मूवमेंट औऱ इको सेंसटिव जोन जैसे तकनीकी शब्दों से पहचाने जाने वाले इस इलाके में कोठियां, फार्म हाउस, रिसार्ट, स्कूल-यूनिवर्सिटी बनाने की हवस के चलते इस इलाके में बचे-खुचे फारेस्ट का वजूद भी संकट में आ गया है। द सूत्र की खास पड़ताल में जो कड़वा सच सामने आया है उसे सुनकर आप भी चौंक जाएंगे। दरअसल हम केरवा-कलियासोत डैम के आस-पास जिस सदाबहार घनी हरियाली (dense greenery) को डीम्ड फॉरेस्ट मानते आ रहे हैं दरअसल उसे अब सरकारी दस्तावेजों में फॉरेस्ट मानने से ही इनकार किया जा रहा है।





नष्ट हो रहा है भोपाल का सबसे बड़ा प्राकृतिक फेफड़ा 



अपनी हरियाली और तालाबों के लिए देशभर में मशहूर भोपाल शहर से सटे चंदनपुरा, मेंडोरा और छावनी इलाके का जंगल नॉन फॉरेस्ट एक्टिविटी (non forest activity) के कारण जंगल खत्म हो रहा है। वन विभाग की समरधा रेंज के तहत आने वाले इस इलाके में पिछले 15 सालों में रसूखदारों के अवैध निर्माण (illegal construction) और व्यावसायिक गतिविधियों के कारण जंगल तेजी से खत्म हो रहा है। आंखें खोलने वाला यह खुलासा केंद्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय (Union Ministry of Environment and Forests) ने 2018 में नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (National Green Tribunal) में केरवा इलाके में अवैध निर्माण के मामलों की सुनवाई में बकायदा एक रिपोर्ट पेश कर किया है। यह रिपोर्ट गूगल इमेजनरी के आधार पर तैयार की गई थी। इस रिपोर्ट के अनुसार राजधानी भोपाल का प्राकृतिक फेफड़ा कहा जाने वाला कलियासोत (Kaliasot) और केरवा इलाके का जंगल धीरे- धीरे खत्म हो रहा है।



एमओईएफ की रिपोर्ट की आड़ लेकर निकाला रास्ता 



केंद्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय की रिपोर्ट की आड़ लेकर राज्य सरकार के वन और राजस्व विभाग के अमले ने इलाके का एक ज्वाइंट सर्वे किया और चंदनपुरा, मेंडोरा और छावनी इलाके के जंगल को डीम्ड फॉरेस्ट मानने से इनकार कर दिया। सर्वे की यह रिपोर्ट सरकार को सौंपी जा चुकी है। सूत्रों के अनुसार केंद्र के एमओईएफ ने अपनी रिपोर्ट में केरवा इलाके के जिस 390 एकड़ पर जंगल खत्म होने की बात लिखी है दरअसल वहां बहुत ज्यादा और घने पेड़ थे ही नहीं। इस इलाके में प्रति हेक्टेयर 10 से 20 पेड़ ही थे, जिसके चलते संबंधित इलाका डीम्ड फॉरेस्ट की कैटेगिरी में नहीं आता है। इसी की आड़ लेकर राजस्व विभाग ने वन अमले पर दबाव डालकर राजधानी से सटे तीनों गांवों के आस-पास के जंगल को डीम्ड फॉरेस्ट घोषित करने से इनकार कर दिया। ये पूरा खेल इस इलाके की खूबसूरती पर मोहित और सत्ता के गलियारों में खासा दखल रखने वाले नौकरशाहों और रसूखदारों के इशारे पर किया गया। 



पहले समझिए..डीम्ड फॉरेस्ट होता क्या है



सुप्रीम कोर्ट में टीएन गोधावर्मन WT202/1996 के केस की सुनवाई करते हुए कोर्ट ने जंगल को परिभाषित करने के लिए जो आदेश दिया उसमें डीम्ड फॉरेस्ट शब्द का उपयोग किया गया था। विशेषज्ञ मानते हैं कि सुप्रीम कोर्ट के इसी आदेश की बदौलत आज उत्तराखंड में प्राकृतिक संपदा और संसाधन बचे हुए हैं। दरअसल टीएन गोधावर्मन WT202/12-12-1996 के मामले में आए आदेश से यह बात स्पष्ट हो गई थी कि यदि कोई जगह देखने में जंगल लगे, एक हेक्टेयर में 200 पेड़ लगे हों और 10 हेक्टेयर पर पेड़ों का घना पैच दिखाई देता हो उसे डीम्ड फॉरेस्ट ही माना जाएगा। भले ही वह निजी भूमि ही क्यों न हो। भोपाल के चंदनपुरा इलाके पर सुप्रीम कोर्ट का यह परिभाषा सटीक बैठती है। 



20 साल पहले रची गई डीम्ड फॉरेस्ट को खत्म करने की साजिश



शायद ये हकीकत ज्यादा लोगों को पता नहीं हो लेकिन भोपाल के आसपास के इलाकों से डीम्ड फॉरेस्ट शब्द को खत्म करने की साजिश की शुरूआत 20 साल पहले ही हो चुकी है। एक भरोसेमंद और जिम्मेदार अधिकारी ने द सूत्र को बताया कि 1996 में गोधावर्मन केस के बाद सुप्रीम कोर्ट ने सभी राज्यों से स्टेटस रिपोर्ट मांगी थी। 2002 में मध्यप्रदेश के तत्कालीन चीफ सेक्रेटरी की ओर से कोर्ट में जो रिपोर्ट सबमिट की गई थी उसमें भोपाल में डीम्ड फॉरेस्ट जीरो दर्शाया गया था। यह तथ्य उस समय के अधिकारियों के एफेडेविट में दर्ज है। जबकि 2018 में एनजीटी में केरवा केस की सुनवाई के दौरान एमओईएफ ने जो रिपोर्ट सबमिट की, उसमें डीम्ड फॉरेस्ट शब्द का कई जगह उपयोग हुआ है।    



रसूखदारों ने डेम के अंदर तक घुसकर किए अतिक्रमण



भोपाल के प्रकृतिक फेफड़े कहे जाने वाले केरवा-कलियासोत इलाके को लेकर राजधानी का प्रशासन कितना संवेदनशील है, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि कलियासोत के सहायक नदी-नाले अतिक्रमण की चपेट में है।  कलियासोत व केरवा डैम के कैचमेंट एरिया में रसूखदारों के अवैध निर्माण हो रहे हैं। द सूत्र की खास पड़ताल से जुड़ी खबरों की सीरीज में हम आपको आगे बताएंगे कि कैसे भोपाल के लोगों को कुदरत से विरासत में मिले जंगल, हरियाली और जल संरचनाओं को बर्बाद करने का नंगा नाच चल रहा है। आखिर कौन हैं इसके गुनाहगार और क्यों आंखों पर पट्टी बांधे बैठे हैं जिम्मेदार अधिकारी। लेकिन यह सब खुलासा करने से पहले आइए आपको बताते हैं  कि आखिर केंद्र के एमओईएफ की रिपोर्ट के अनुसार 2003 से 2015 तक यानी 13 सालों में कैसे 390 एकड़ की फॉरेस्ट लैंड का कत्ल किया गया।



चंदनपुरा में 217.3 एकड़ का जंगल खा गए रसूखदार



भोपाल वन मंडल की समरधा रेंज के 18 हजार हैक्टेयर में फैले जंगल में सबसे ज्यादा जंगल चंदनपुरा इलाके में खत्म किया गया है। 2018 में एमओईफ की रिपोर्ट के अनुसार 5 जनवरी 2003 से 30 जनवरी 2018 के बीच चंदनपुरा गांव के आसपास के इलाके में 87.94 हेक्टेयर यानी 217.3 एकड़ जंगल रसूखदार हजम कर गए। मिंडोरा गांव में 44.51 हैक्टेयर यानी 109.98 एकड़ के जंगल को ये रसूखदार खा गए। वहीं मिंडोरी गांव में में 24.35 हैक्टेयर यानी 60.17 एकड़ और छावनी गांव में 1.25 हेक्टेयर यानी 3 एकड़ की फॉरेस्ट लैंड पर नॉन फॉरेस्ट एक्टिविटी शुरू हो गई। इसमें फार्म हाउस से लेकर बड़ी-बड़ी कोठियां, रिसोर्ट से लेकर स्कूल और यूनिवर्सिटी तक शामिल हैं।  



52.65 एकड़ पर संस्कार वैली और 49.79 एकड़ पर बना जेएलयू 



केरवा के पहाड़ और जंगल के बीचों बीच चंदनपुरा में 21.31 हेक्टेयर यानी 52.65 एकड़ में दैनिक भास्कर समूह का संस्कार वैली स्कूल चल रहा है। यह फॉरेस्ट लैंड था, जिसका उपयोग अब नॉन फॉरेस्ट एक्टिविटी का रूप में हो रहा है। इसी तरह जंगल के बीच में 20.15 हेक्टेयर यानी 49.79 एकड़ पर जागरण लेक यूनिवर्सिटी यानी जेएलयू संचालित हो रही है। इसी तरह चंदनपुरा के आसपास की वन भूमि पर 35.36 एकड़ पर रिसोर्ट, 68 एकड़ पर फॉर्म हाउस, 6 एकड़ पर प्राइवेट हाउस और 4.67 एकड़ पर एप्रोच रोड बना दी गई। 



मिंडोरा में 39 एकड़ पर फार्म और 29 एकड़ पर रिसोर्ट



मिंडोरा में फार्म हाउस बनाकर खेती करने के लिए 15.83 हेक्टेयर यानी 39.12 एकड़ फॉरेस्ट लैंड को खत्म किया। वहीं घर बनाकर खेती कर 16.77 हेक्टेयर यानी 41.43 एकड़ के जंगल को खत्म कर दिया गया। इनके अलावा प्रायवेट रिसोर्ट बनाकर खेती करने से 11.91 हेक्टेयर यानी 29.43 एकड़ का जंगल खत्म हुआ। 



मिंडोरी में 60 एकड़ पर बिल्डिंग, 3 एकड़ पर एप्रोच रोड



मिंडोरी और छावनी इलाके में भी 2003 से लेकर 2018 तक जंगल को खत्म किया गया। मिंडोरी गांव में बिल्डिंग और खेती के कारण 24.35 हेक्टेयर यानी 60.17 एकड़ फॉरेस्ट लैंड खत्म हो गई। वहीं छावनी गांव में एप्रोच रोड बनाने के कारण 1.25 हेक्टेयर यानी करीब 3 एकड़ का जंगल खत्म हुआ। 



5 लाख लोगों को आक्सीजन दे सकता था खत्म हुआ जंगल  



जानकारों के मुताबिक 15 सालों में इस इलाके में जितने क्षेत्र से जंगल खत्म हुआ है, उतना जंगल 5 लाख लोगों को आक्सीजन दे सकता था। पर्यावरणविद सुभाष पांडेय बताते हैं कि ऐसा माना जाता है कि एक पेड़ को लगने के लिए 100 वर्ग फीट जगह की जरूरत होती है। हालांकि यह पेड़ की प्रकृति और स्वरूप पर निर्भर करता है, लेकिन इसे मान लिया जाए तो 390.55 एकड़ पर करीब 1 लाख 70 हजार पेड़ लगे होंगे। एक पेड़ से औसतन 5 लोगों को आक्सीजन मिलती है। यानी 158.05 हेक्टेयर का जो जंगल खत्म हो गया उससे 5 लाख लोगों को आक्सीजन मिल सकती थी। पांडेय ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा एक पेड़ की कीमत 74 हजार 500 रूपए वार्षिक आंकी गई है। इससे यह अनुमान लगाना कठिन नहीं होगा कि केरवा के जंगल का कत्ल करने वाले इन गुनहगारों ने प्रकृति का कितना बड़ा नुकसान किया है। 

 


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