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GWALIOR देव श्रीमाली. आज कक्का डोंगर सिंह की पुण्यतिथि है और ग्वालियर -चम्बल अंचल में अनेक जगह उनके लिए श्रद्धांजलि सभाएं और बैठकें चल रही है। कक्का डोंगर सिंह अंचल के सबसे चर्चित और प्रतिष्ठित स्वतंत्रता सेनानी तो थे ही बल्कि उन विरले लोगों में थे जिन्हें राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के साथ रहने और उन्हीं की रीति - नीति सीखने का सौभाग्य मिला था। उनका सानिध्य पाकर लौटे तो फिर पक्के गांधीवादी होकर। जमींदार परिवार से होने के बावजूद उन्होंने अपना जीवन सादगी और खादी के लिए समर्पित कर दिया। आज़ादी की जंग में कूद पड़े। कई दशकों तक घर छोड़कर कांग्रेस कार्यालय में रहकर फर्श पर सोये और घर में तमाम साधन होने के बावजूद नब्बे वर्ष की आयु तक सायकिल पर ही चले और सड़क पर चलते हुए कचरे में से जरूरी सामान बीनकर उसे साफ़ करके जरूरतमंद लोगों में बांटते रहे।
महासमर के योद्धा
कक्का डोंगर सिंह के जीवन पर लिखी पुस्तक महासमर के योद्धा में ऐसे अनेक चौंकाने वाले घटनाक्रम और मध्यभारत में स्वाधीनता आंदोलन से जुड़े रोचक और मर्मान्तक किस्सों का उल्लेख है। डोंगर सिंह थाटीपुर गाँव में एक जमींदार परिवार में पैदा हुए उस समय ग्वालियर सिंधिया रियासत के अधीन था। किशोरवय में थे तभी मुरार में स्थित एक नाई जिनका नाम गणेश राम था की दूकान पर कटिंग करवाने गए तो उसके मुंह से गाँधी जी के बारे में सुना तो वे गांधी जी से मिलने के लिए लगभग बेताव हो गए। तब न तो इतने साधन थे न संसाधन लेकिन मिलने की जिद थी। पता किया गांधी जी कहाँ रहते है तो पता चला कि इस समय वर्धा आश्रम में हैं। डोंगर ने अपनी ताई से कहा कि - मुझे तीन सौ रुपये चाहिए। इतनी बड़ी रकम सुनकर वे चौंक पड़ीं। लगभग नब्बे साल पहले यह सचमुच बड़ी रकम थी। उन्होंने इतने पैसे की वजह पूछी तो डोंगर ने स्कूल किताबें और फीस के लिए जरूरत बताई। हालाँकि पैसे बहुत थे लेकिन ताई उन्हें बहुत प्यार करती थीं सो उन्होंने कहाकि - तुम मन लगाकर पढ़ो,किताब ,कॉपी ,फीस की चिंता मत करो। पैसों का आश्वासन मिलते ही डोंगर अपनी तैयारी में जुट गए। ताई ने दूसरे दिन उन्हें रुपये दे दिए। डोंगर थैले में कपडे और एक अंगौछा डालकर सीधे स्टेशन की तरफ भागे और अपने दोस्तों से आग्रह किया कि तलाश होने पर मेरे घर वालों को बता दें कि में कहीं भागा नहीं हूँ वर्धा गया हूँ। स्टेशन से भोपाल की ट्रेन पकड़ी क्योंकि यहाँ से वर्धा की कोई रेल नहीं थी और अनेक गाड़ियां बदलते हुए आखिरकार वर्धा पहुँच गए। ग्वालियर से भोपाल का किराया लगा नौ रूपये और नौ रुपये ही भोपाल से नागपुर का लगा।
महनायक के सामने देख रौंगटे खड़े हो गए
कक्का डोंगर सिंह ने लिखा है कि, यह 1938 की बात है। मैं जब वर्धा आश्रम पहुंचा तो बड़ा रोमांचित था। मैं वहां पहुंचकर बापू के निज सचिव महादेव भाई देसाई से मिलाऔर बापू से मिलने के लिए समय माँगा। महादेव भाई ने आश्रम के अनुशासन के बारे में बताया कि आश्रम में समय का कड़ा अनुशासन है अगर दिए गए समय से एक मिनिट भी लेट हुए तो फिर तत्काल अगले को बुला लिया जाएगा। उन्होंने सोचा ,भला मैं क्यों देर करूंगा क्योंकि मेरा मन तो उनसे मिलने को पहले से ही उतावला है। आश्रम उनके बारे में सारी जानकारी लिखी गयी।
पहले दिलाया ग्यारह सूत्रीय संकल्प
अपनी आत्मकथा में कक्का ने लिखा है कि, मैं जब आश्रम में पहुंचा तब एनी बिसेन्ट भी वहीं रुकीं हुईं थीं। वहां ठहरे हर व्यक्ति को पहले सबको गांधी जी ग्यारह सूत्रों का संकल्प दिलाया जाता था जो सर्व विदित हैं। कक्का लिखते हैं कि जब पहली बार सामने बापू को पाया तो उनकी सहजता,सादगी,चेहरे का तेज और विनयशीलता देखकर उन सारे सवालों को भूल गया जिन्हे पूछने के लिए वह वर्धा पहुंचे थे। इसके बाद लगभग दो सप्ताह तक कक्का आश्रम में रहे। यहाँ की दिनचर्या बड़ी अनुशासित थी। गाँधी जी सहित सभी आश्रमवासी बरहम मुहूर्त में यानी सवा चार बजे बिस्तर छोड़ देते थे। सभी एक साथ प्रात : भ्रमण पर निकलते थे। लौटकर प्रार्थना शिविर,सर्वधर्म सम्मेलन ,प्रवचन और चरखा यज्ञ की चर्चा होती थी। शाम को हाजिरी सभा के बाद रात्रि विश्राम हो जाता था। सभा कक्ष में तीन पीढ़े लगते थे। एक गाँधी जी का, एक महादेव भाई देसाई और तीरा प्यारे लाल का। गाँधी जी की आश्रम की हर गतिविधि पर पैनी निगाह रहती थी। अगर किसी दिन सूत की कताई कम हुई तो वे हँसते हुए कह देते थे - लगता है आज तो गप्पें होतीं रही........ ।
लौटे तो सामंतवाद के विरोधी होकर
कक्का डोंगर सिंह लौटकर जब ग्वालियर लौटे तो उनकी शिराओं में नया ही खून बह रहा था। उनके दिमाग में प्रजा को सामंतों के शोषण से मुक्त कराने के लिए कुछ करने की चाह थी। पूरे देश में स्वतंत्रता अंदोलन चरम पर था लेकिन यहाँ ग्वालियर में कांग्रेस के गठन की इज़ाज़त नहीं थी क्योंकि यहाँ अंग्रेजों का सीधा शासन नहीं था। यहाँ अन्य संस्थाओं के जरिये स्वतंत्रता आंदोलन की चिंगारी जली हुई थी। डोंगर सिंह परिवार के विरोध के बावजूद इसमें शामिल हो गए। उन्होंने ताउम्र खादी पहनने का संकल्प लिया। कांग्रेस के लिए घर छोड़कर कांग्रेस दफ्तर में रहना तय किया क्योंकि उस समय अंचल में कांग्रेस का नाम लेना तक प्रतिबंधित था। राजसत्ता से टकराने के कारण उनके परिवार को अनेक संकट झेलना पड़े। उनके परिवार से जमींदारी छीन ली गयी लेकिन वे तब तक जुटे रहे जब तक देश आज़ाद नहीं हो गया।
तमाम संघर्षो के बावजूद लगवाई लक्ष्मी बाई की प्रतिमा
ग्वालियर में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की नायिका झांसी की रानी वीरांगना लक्ष्मी बाई का बलिदान ग्वालियर में हुआ था लेकिन यहाँ उनका बलिदान दिवस मनाना अघोषित रूप से प्रतिबंधित था लेकिन कक्का डोंगर सिंह ने कड़ा संघर्ष करके फूलबाग के पास वीरांगना के समाधिस्थल का विकास कराया और वहां उनकी एक भव्य प्रतिमा लगवाई जो आज भी मौजूद है। यहाँ हर वर्ष उनके जन्मदिन और बलिदान दिवस पर श्रद्धांजलि देने की भी शुरुआत करवाई। कक्का ने गांधी ,आंबेडकर ,लाल बहादुर शास्त्री ,कस्तूरबा गाँधी की प्रतिमाएं भी स्थापित करवाई। देश के सबसे बड़े खेल संस्थान एलएनआईपी की स्थापना के लिए सहर्ष अपनी निजी जमीन सरकार को दी।
ताउम्र सायकिल की सवारी की
कक्का डोंगर सिंह को अंचल में सादगी की प्रतिमूर्ति माना जाता था। पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह उनके पक्के अनुयाइयों में से थे। जब तक कक्का जीवित रहे दिग्विजय सिंह निरंतर उनसे मिलने आते रहे और जब ग्यारह वर्ष पूर्व उनका 102 वर्ष की उम्र में निधन हुआ तो वे उनके अंतिम संस्कार में भी शामिल हुए। कक्का पक्के गांधीवादी और कांग्रेसी थे लेकिन थे अजातशत्रु। सभी दलों के नेताओं और कार्यकर्ताओं से उनके प्रगाढ़ समंध थे और सभी उनका आदर करते थे। इसकी सबसे बड़ी वजह थी उनकी सादगी। हालाँकि उनके पुत्र स्व राजेंद्र सिंह कांग्रेस के बड़े नेता रहे थे । वे श्यामाचरण मंत्रिमंडल में मंत्री भी रहे। उनके पौत्र अशोक सिंह कांग्रेस के प्रदेश कोषाध्यक्ष ,प्रतिष्ठित नेता होने के साथ ही बड़े उद्यमी भी है लेकिन कक्का लगभग 90 वर्ष की उम्र तक नियमित साइकिल से ही चले और इसी से रोज पूरे शहर में घूमते थे। वे अपने परिवार की भव्य और आलीशान कोठी में भी एक कोने में टीनशेड में बनाये गए एक कमरे में रहते थे और सामान्य जीवन जीते थे ताकि उनके पास आने वाले लोग असहज महसूस न करें। उनकी अंतिम यात्रा में कांग्रेस के अनेक बड़े नेता तो पहुंचे ही बीजेपी के नेता और कार्यकर्ता ही नहीं केंद्रीय मंत्री नरेंद्र तोमर और आरएसएस के कट्टर समर्थक मेयर विवेक नारायण शेजवलकर तक पहुंचे थे। बीजेपी के तत्कालीन सांसद जयभान सिंह पवैया द्वारा जब वीरांगना मेले की परम्परा शुरू की तो कक्का डोंगर सिंह को भी अतिथि बनाया और वे मंच पर गए भी। यह दर्शाता है कि वे सदैव अजातशत्रु बने रहे लेकिन सिंधिया परिवार के खिलाफ वे अंतिम सांस तक मुखर रहे।