दूर कोसों है जगमग शहर छोड़कर।
बीहड़ों में है रमा बेहतर छोड़कर।
ओढ़कर हिम की चादर, वतन के लिए-
इक सिपाही डटा अपना घर-बार छोड़कर।
सचिन त्रिपाठी, Satna. उक्त पंक्तियां (पूर्व सैनिक तामेश्वर प्रसाद शुक्ला की डायरी से लिया गया है।) देश की सीमा में तैनात उन सैनिकों के लिए हैं जो दीन-दुनिया से एक दम अलग अपनी मातृभूमि की रक्षा में डटे हैं। यह उस गांव की कहानी बताने के लिए शायद पर्याप्त है जिसके पराक्रम और शौर्य की दास्तां न केवल देश-प्रदेश में बल्कि दूसरे मुल्कों में भी है। वजह है इस गांव की माताओं ने केवल जांबाज जने जो आगे चल कर देश की सीमाओं में मातृभूमि की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति हंसते-हंसते दे दिये। आज कारगिल विजय दिवस के अवसर पर द सूत्र की ग्राउंड रिपोर्ट…।
फौजियों का गांव है चूंद
चूंद, हां यही नाम है उस गांव का जिसे सेना का गांव..वीर भूमि..और न जाने क्या-क्या नाम से बुलाया जाता है। ये नाम इस गांव को ऐसे ही नहीं मिले। गांव ने अब तक अपने कई लालों को देश की सेवा में न्यौछावर कर यह दर्जा पाया है। चूंद गांव (choond) सतना जिले के सुंदरा-सेमरिया राज्यमार्ग के जैतवारा से करीब 12 किलोमीटर दूर बसा हुआ है। बीच में इस गांव का नाम चन्द्रनगर करने की मुहिम भी बलवती हुई थी लेकिन जो एहसास चूंद का चूंद रहने में हैं। वह और किसी अन्य नाम में नहीं।
हर घर से फौजी
इस गांव की माटी में न जाने ऐसा क्या कि सेना में शहीद हुए कई पुरखों के बाद भी यहां की युवाओं में मातृभूमि की सेवा का जज्बा कायम है। यही बात है की करीब 5000 की आबादी वाले इस गांव के आज भी लगभग 200 लोग सेना में रहकर देश की सेवा में लगे हैं। नायक रहे 55 साल के महानंदा सिंह बताते हैं कि एक औसत मान लीजिये कि चूंद गांव के हर घर से एक व्यक्ति फौज में हैं। इस गांव के दो सगे भाई शहीद हो गए। इनके अलावा एक अन्य भी। जिनके शौर्य को जीवांत रखने के लिए गांव ने स्मारक बना रखा है। महानंदा सिंह वर्ष 1988 में सेना में चले गए। इसके बाद 17 साल की सेवा कर 2005 में घर लौट आए। महानंदा सिंह वर्तमान में किराना की दुकान चलाते हैं।
कोई भूले न इसलिए दरवाजे पर नाम लिखा दिया
मातृभूमि के अपने प्राणों की आहुति देने वाले अमर शहीदों की यादों को बनाए रखने के लिए उनकी पत्नियों में अलग ही जज्बा देखने को मिलता। इन वीरनारियों के सामने जब भी उनके पतियों के नाम आते हैं तो पथराई आंखों में अलग ही चमक आ जाती है। द सूत्र की टीम जब चूंद गांव पहुंची थी तब शहीद नायक बाबूलाल सिंह की पत्नी राजदुलारी सिंह घर की देहरी में बैठे रास्ते की ओर निहार रहीं थीं। वह कहती हैं कि उनके (पति बाबूलाल सिंह) जाने के बाद तीन-तीन बच्चों (दो बेटे, एक बेटी) को पालना मुश्किल था। कैसे किया है यह हम ही जानते हैं। न घर था न द्वार। यह सब धीरे-धीरे हुआ। वह कैमरे में बोल नहीं पा रहीं थीं। ऑफ लाइन बोली कि उनके जाने का गम तो है लेकिन शहीद की पत्नी होने का फक्र भी है। घर के दरवाजे में इसलिए नाम भी लिखा दिया है कि लोग उनका बलिदान न भूलें। नायक बाबूलाल सिंह 23 जनवरी 1988 को सेना में भर्ती हुए थे। 6 जुलाई 1999 से वह राजपूत रेजिमेंट में शामिल हो गए थे। 31 अक्टूबर 2000 को राजौरी में उनकी टुकड़ी पर आतंकियों ने हमला कर दिया था। जिसमें वह वीरगति को प्राप्त हुए। इनके के सगे भाई कन्हैया लाल ने भी देश की सेवा में अपने प्राणों की आहुति दी थी। 10 अगस्त 1965 में जन्में कन्हैया लाल 11 मई 1998 में जम्मू और कश्मीर के पूंछ सेक्टर में एक आतंकी हमले में शहीद हो गए थे। वह राजपूताना राइफल्स में सेवा दे रहे थे।
गांव के कोने में शहीद स्मारक, जिसमें ताला
चूंद गांव ने अपने लाडलों की शहादत को हमेशा के लिए जीवांत रखने के लिए स्मारक भी बनाया है। इस स्मारक में विजय स्तम्भ बना हुआ जिसमें राइफल मैन समर बहादुर सिंह, शहीद नायक कन्हैया लाल सिंह और उनके भाई शहीद नायक बाबूलाल सिंह का नाम लिखा हुआ। तालाब किनारे बने इस स्मारक में हमेशा ताला लगा रहता है। जिस कारण यहां साफ सफाई नहीं दिखी। यहां अभ्यास कर रहे युवाओं ने बताया कि चाबी सचिव के पास रहती है।
कम से कम विद्यालय में पढ़ाया जाय
पूर्व सैनिक इस बात से नाराज दिखे कि गांव के जो लोग शहीद हुए हैं उनके बारे में कम से कम चूंद के ही विद्यालयों में पढ़ाया जाय। पूर्व सैनिक वेटरन इंडिया मध्य प्रदेश के प्रदेश अध्यक्ष कैप्टन राज द्विवेदी कहते हैं कि चूंद को सरकारों ने वीर भूमि तो कहा लेकिन आधिकारिक रूप से दर्जा नहीं दिया। यहां की वीर नारियों के लिए चिकित्सा सुविधा और मिलिट्री कैंटीन जैसी व्यवस्था होनी चाहिए।
अग्निवीर केवल टेम्परेरी व्यवस्था
फौजी फिजा में सांस ले रहे यहां के लोगों में अग्नि वीर योजना को लेकर नाराजगी है। वह यह कहते हैं कि इस टेम्परेरी व्यवस्था को फुल टाइम किया जाय। एक्स हवलदार भारगेन्द्र सिंह कहते है कि इस योजना में केवल और केवल सैन्य अनुशासन ही सिखाया जा सकता है। मैं आर्मी का आर्म्ड कोर से रिटायर्ड हूँ वहां दो साल की ट्रेनिंग हुई थी। इस नव योजना में केवल छह माह की ट्रेनिंग है। इस तरह में एक बंदा केवल सावधान विश्राम ही सीख सकेंगे। भारगेन्द्र सिंह 1980 में सेना में भर्ती हुए थे। वह टैंक ड्राइवर थे। 1996 में सेना से सेवानिवृत्त ले ली और अब खेती किसानी कर रहे हैं।
जरा याद करो कुर्बानी
भारत-चीन युद्ध :
- (1) सिपाही सुग्रीव, 21 अक्टूबर 1962.
ऑपरेशन रक्षक
- (1) राइफल मैन समर बहादुर सिंह, 29 अगस्त 1994.
ऑपरेशन विजय
.(1) सिपाही राजेन्द्र सेन , 07 सितम्बर 1999