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BHAOPAL. दो कहावतें आपने सुनी होंगी। पहली तूती बोलना और दूसरी नक्कारखाने में तूती बोलना। ये दोनों ही कहवातें बीजेपी (BJP) नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया (Jyotiraditya Scindia) पर बिलकुल फिट बैठती हैं। अब आप पूछते हैं क्यों या ये सवाल भी हो सकता है कि इन कहावतों का मतलब क्या है। चलिए पहले मतलब बताते हैं पहले ग्वालियर चंबल में महाराज की तूती बोलती थी। यानी महाराज की धाक जमी हुई थी। जो उन्होंने कहा वो हो गया। अब उनकी आवाज नक्कारखाने में तूती की तरह है। वो यूं कि अब बीजेपी के नक्करखाने में सिर्फ ग्वालियर चंबल (Gwalior Chambal) ही नहीं हर क्षेत्र में इतने बड़े बड़े नेता हैं कि छोटी-सी तूती की आवाज ही किसी को सुनाई नहीं देती। इसी नक्कारखाने की एक बैठक में सिंधिया बार बार अपने समर्थकों के नाम गिनवाते रहे। लेकिन उनकी तूती की आवाज अनसुनी कर दी गई।
महाराज का रंग चुनाव में फीका हुआ
ये वही ज्योतिरादित्य सिंधिया हैं, जो कांग्रेस में थे, तब उनकी मर्जी के बिना ग्वालियर चंबल में पत्ता भी नहीं खड़कता था। रसूख ही कुछ ऐसा था कि उनके रहते कभी किसी बड़े कांग्रेस नेता ने ग्वालियर चंबल का रूख करने की कोशिश ही नहीं की। इतना ही नहीं खबरें तो यहां तक रहीं कि ग्वालियर में कई अफसर तक सिंधिया की मर्जी से पदस्थ किए जाते थे। सरकार किसी की भी हो सिंधिया के इस रुतबे और दबदबे में कोई फर्क नहीं आया। लेकिन बीजेपी में आते ही वो दिन लद गए हैं शायद। क्योंकि, महाराज का रसूख तो नगर सरकार के चुनाव में ही फीका नजर आने लगा है। हालात ये हैं कि जो समर्थक बड़ी शान से उनके साथ कांग्रेस छोड़ बीजेपी में शामिल हुए थे, वो अब घर वापसी कर रहे हैं। विधानसभा उपचुनाव (Assembly by-elections) से लेकर निगम मंडलों (corporation board) में नियुक्ति तक सिंधिया का जादू छाया रहा। वो जादू अब अपना असर कम कर रहा है। नगरीय निकाय चुनाव (urban body elections) आते-आते सिंधिया का दबदबा अपने ही नगर पर कम होता नजर आ रहा है। वहां सत्ता का एक केंद्र और मजबूती से खड़ा है। इसके पास महाराज का तमगा भले ही न हो लेकिन पार्टी में पुरानी साख है, मोदी कैबिनेट (Modi cabinet) में सिंधिया से ऊंचा ओहदा है और बीजेपी के पुराने नेता और कार्यकर्ताओं का साथ है। इसके आगे महाराज इस नए दरबार में अकेले पड़ते दिखाई दे रहे हैं।
बीजेपी के नियम-कानून अगल हैं
नगर सरकार के सरपरस्तों का चयन करने में सिंधिया की एक नहीं चली। इस पार्टी के तौर तरीकों को समझने में सिंधिया ने कुछ भूल कर दी। सिंधिया शायद नहीं समझ पाए कि जो पार्टी अब तक उन्हें सिर आंखों पर बिठा रही थी, वहां अब वो आम नेताओं में शुमार हैं, जिन्हें परफोर्म करके दिखाना होगा। विधानसभा उपचुनाव तक पार्टी ने अपना वादा निभाया। हर सिंधिया समर्थक की रिपोर्ट को अनदेखा कर उसे टिकिट दिया। निगम मंडलों में हारे हुए सिंधिया समर्थकों का पुनर्वास भी हुआ और सिंधिया को केंद्रीय कैबिनेट में जगह भी मिल गई। लेकिन अब हनीमून पीरियड ओवर हो चुका है। अब हर फैसला सिंधिया की मर्जी से नहीं होगा। पार्टी के क्राइटेरिया के हिसाब से होगा। भले ही वो ग्वालियर चंबल से जुड़ा क्यों न हो। जहां सिंधिया समर्थकों के टिकिट थोक के भाव से घटे हैं।
पार्टी के नए क्राइटेरिया पर हर सिक्का खोटा ही साबित हुआ
कुछ ही दिन पहले दो सूचियां जारी हुई। हर सूची में ज्योतिरादित्य सिंधिया का नाम शामिल था। संगठन की इन सूची में मिली इम्पोर्टेंस को देखकर लग रहा था कि सिंधिया शिवराज पर भारी पड़ने वाले हैं। लेकिन नगरीय निकाय चुनाव से जुड़ी लिस्ट ने सारी गलतफहमियां दूर कर दीं। महापौर का नाम और पार्षदों की फाइनल लिस्ट को देखकर सिंधिया समझ ही चुके थे कि पार्टी विद अ डिफरेंस में वो किसी दूसरे नेता से डिफरेंट नहीं हैं। बेशक जयविलास पैलेस में महाराज होंगे लेकिन बीजेपी में फिलहाल क्राइटेरिया ही सरताज है। इसके मुताबिक महाराज को ढलना ही पड़ेगा। महाराज ने कोशिश तो बहुत की कि ग्वालियर चंबल में उनका सिक्का चल जाए। लेकिन पार्टी के नए क्राइटेरिया पर हर सिक्का खोटा ही साबित हुआ। 16 नगर निगमों में सिंधिया के करीबी में से किसी को भी महापौर प्रत्याशी नहीं बनाया गया। हालांकि ग्वालियर -चंबल में सिंधिया अपना दबदबा कायम रखना चाहते थे, इसी वजह से उन्होंने पहले माया सिंह का नाम सामने रखा। फिर पार्टी का क्राइटेरिया आड़े आया तो उन्होंने समीक्षा गुप्ता का नाम रख दिया, लेकिन पार्टी ने उसे भी नकार दिया। ग्वालियर में 35 सिंधिया समर्थकों में से सिर्फ 12 को ही मिला टिकट। भोपाल से विलासराव घाडगे वार्ड 34, गिरीश शर्मा वार्ड 66, ललित चतुर्वेदी वार्ड 83, को भी पार्टी ने टिकिट नहीं दिया। क्या ये इस बात का इशारा है कि अब सिंधिया का कद पार्टी में घट रहा है।
सिंधिया को एक झटका लग चुका है
हालांकि खबर ये भी है कि ग्वालियर में तोमर की पसंद को तवज्जो देने से पहले सिंधिया को मनाया गया। सुमन शर्मा के नाम पर ज्योतिरादित्य सिंधिया सहमत नहीं थे। लेकिन पार्टी के बाकी दिग्गज एक साथ तोमर के समर्थन में खड़े हो गए और बाजी नरेंद्र सिंह तोमर (Narendra Singh Tomar) ले गए। सुना है सिंधिया को मनाने के लिए केंद्रीय संगठन को आगे आना पड़ा और उनकी भी सहमति लेकर सुमन शर्मा को ग्वालियर महापौर के लिए प्रत्याशी बनाया गया। ग्वालियर महापौर प्रत्याशी का ऐलान चार दिन की मशक्कत के बाद हो पाया। बीजेपी का तर्क रहा कि जिस तरह से भोपाल इंदौर और सागर में स्थानीय विधायकों की सहमति से नाम तय किया। उसी रणनीति के तहत ग्वालियर में भी काम किया गया। तो क्या पार्टी ये मान रही है कि ग्वालियर चंबल में सिंधिया महापौर का चुनाव नहीं जितवा सकेंगे। इसलिए अपने पुराने विधायकों पर भरोसा करना मुनासिब समझा।
लिस्ट जारी होने के बाद सिंधिया को पहला झटका भी लग चुका है। उनके करीबी नेता अमित सोनी ने टिकिट न मिलने पर फिर दल बदल लिया है। वो वापस कांग्रेसी हो चले हैं।
समय आने पर महराज के पर कतरे जाएंगे
क्राइटेरिया के नाम पर बीजेपी ने सिंधिया को पहला झटका दे दिया है। ये तो सिंधिया समझ ही चुके होंगे कि जब नगर सरकार में बीजेपी क्राइटेरिया पर इस कदर जमी है तो विधानसभा चुनाव में अपनी पसंद चलाना तो और भी ज्यादा टेढ़ी खीर होगी। अब महाराज की मजबूरी है कि वो बीजेपी के आम कार्यकर्ता के बीच पकड़ मजबूत करे। क्योंकि जब क्राइटेरिया साथ नहीं देगा, तब ये कार्यकर्ता ही साथ देंगे। फिलहाल उनके लिए ये एक्सेप्ट करने का वक्त है कि ग्वालियर चंबल के वो अकेले महाराज नहीं है। तोमर के सिर भी ताज सजा है। वो पार्टी के उतने ही पावरफुल नेता हैं, जितने सिंधिया। यानी सत्ता की दो धूरियां ग्वालियर चंबल में भी हैं। ये इशारा है कि जरूरत पड़ी तो पर महाराज के भी कतरे जा सकते हैं।