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BHOPAL. राष्ट्रकवि रामधारी सिंह 'दिनकर' आज भी सबसे ज्यादा पढ़े और उद्धृत किए जाने वाले कवि हैं। जेपी के आंदोलन में उनकी कविता की पंक्ति- 'सिंहासन खाली करो कि जनता आती है' ने तूर्यनाद का काम किया था, जो आज भी जन आंदोलनों के बीजमंत्र की भाँति है। आज उनकी जयंती है। चलिए जानते हैं उनसे जुड़े वो अछूते प्रसंग जिनकी चर्चा प्रायः कम ही होती है।
नेहरू के करीबी माने जाते थे दिनकर
रामधारी सिंह दिनकर नेहरू के करीबी माने जाते थे। प्रधानमंत्री रहते हुए पंड़ित जी ने ही उन्हें राष्ट्रकवि का खिताब बख्शा और राज्यसभा में कांग्रेस की ओर से मनोनीत करवाया। दिनकर की यशस्वी कृति..संस्कृति के चार अध्याय...की भूमिका जवाहरलाल नेहरू ने ही लिखी थी लेकिन जब 1962 के युद्ध में हमारे सैनिक मारे गए तब वो नेहरू की नीतियों की आलोचना करने से भी नहीं चूके। दिनकर संकेत देते हुए लिखते हैं-
घातक है, जो देवता-सदृश दिखता है
लेकिन, कमरे में गलत हुक्म लिखता है।
जिस पापी को गुण नहीं, गोत्र प्यारा है
समझो, उसने ही हमें यहां मारा है।
दिनकर के विरोधियों ने पंडित नेहरू के कान भरे
इन पंक्तियों को लेकर दिनकर जी के विरोधियों ने पंडित नेहरू के कान भरे। हालात यहां तक पहुंचे कि दिनकर ने राज्यसभा से इस्तीफा तक देने की घोषणा कर दी। 'लोकपुरुष नेहरू' जैसी पुस्तक लिखने वाले दिनकर समय-बेसमय अपनी तीक्ष्ण रचनाओं से नेहरू की लू उतारते रहे। नेहरू के प्रधानमंत्रित्व के उतरार्द्ध में वे जो कुछ भी लिखते चाटुकार दरबार में जाकर उसे नेहरू के खिलाफ लिखा बताते। आखिर में दिनकर और नेहरू के संबंध कटु हो गए। दिनकर, जयप्रकाश नारायण के आंदोलन के प्रवक्ता से बन गए थे, जो 72 के बाद इंदिरा गांधी की स्वेच्छाचारिता और तानाशाही के खिलाफ छेड़ा गया था।
1974 में रामधारी सिंह ने दुनिया को कहा अलविदा
रामधारी सिंह दिनकर 1974 में भगवान व्येंकटेश बालाजी को अपनी कविताएं अर्पित करने के बाद इस लोक से प्रस्थान कर गए। वे भी आपातकाल में जयप्रकाश नारायण, फणीश्वरनाथ रेणु के साथ कारावास भोगते..।
वह इसलिए....!
जयप्रकाश तो नेहरू परिवार के सर्वाधिक करीब थे। वे कमला नेहरू के लिए लक्ष्मण की भांति थे। इंदिरा जी तब उनके लिए इंदू थीं और वे उनके प्रिय चाचा। जब 'प्रिय चाचा' जेपी ही नहीं बख्शे गए तो दिनकर ऐसी तीखी कविताओं के लिए दिन में ही सांझ बना दिए जाते...बहरहाल.! दिल्ली के रामलीला मैदान से उनकी कविता की ये पंक्तियां ऐसे गूंजी कि दिल्ली का राजसिंहासन हिल उठा-
दो राह समय के रथ का
घर्रघर्र नाद सुनो
सिंहासन खाली करो
कि जनता आती है!
नेहरू जी के दरबारी चाटुकारों से व्यथित दिनकर लिखते हैं-
चोरों के जो हितू ठगों के बल हैं
जिनके प्रताप से पलते पाप सकल हैं
जो छल प्रपंच सब को प्रश्नय देते हैं
या चाटुकार जन की सेवा लेते हैं
यह पाप उन्हीं का हमको मार गया है
भारत अपने ही घर में हार गया है।
जीप घोटलाकांड
रक्षामंत्रालय के जीप घोटाला कांड जिसके प्रथमदृष्टया आरोपी तत्कालीन रक्षामंत्री कृष्णमेनन थे, चीन के संदर्भ में उनके गंभीर कृत्यों की अनदेखी किए जाने जैसे कई प्रसंगों को इस कविता के साथ जोड़कर बांचा गया। साल 1962 के चीनयुद्ध में देश की हार के लिए कृष्णमेनन को सबसे ज्यादा दोषी ठहराया गया था। संसद में उत्तेजित सदस्यों ने यही आरोप लगाया यहां तक कि कांग्रेस के एक सदस्य महावीर त्यागी ने खुलेआम तत्कालीन रक्षामंत्री को फटकारा था। उस समय दिनकरजी राज्यसभा के मनोनीत सदस्य थे।
आपने दिनकर की रचित खंडकाव्य 'परशुराम की प्रतीक्षा' नहीं पढ़ी तो समझिए दिनकर साहित्य के मूल सत्व से अब तक वंचित हैं...
रश्मिरथी के कृष्ण-दुर्योधन वाले प्रसंग के पद से यह कहीं भी कमतर नहीं..तो पढ़िए..
है जहाँ खड्ग, सब पुण्य वहीं बसते हैं।
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वीरता जहां पर नहीं, पुण्य का क्षय है,
वीरता जहां पर नहीं, स्वार्थ की जय है।
तलवार पुण्य की सखी, धर्मपालक है,
लालच पर अंकुश कठिन, लोभ-सालक है।
असि छोड़, भीरु बन जहां धर्म सोता है,
पातक प्रचण्डतम वहीं प्रकट होता है।
तलवारें सोतीं जहां बन्द म्यानों में,
किस्मतें वहां सड़ती है तहखानों में।
बलिवेदी पर बालियां-नथें चढ़ती हैं,
सोने की ईंटें, मगर, नहीं कढ़ती हैं।
हम दें उस को विजय, हमें तुम बल दो,
दो शस्त्र और अपना संकल्प अटल दो।
हों खड़े लोग कटिबद्ध वहां यदि घर में,
है कौन हमें जीते जो यहां समर में ?
हो जहां कहीं भी अनय, उसे रोको रे !
जो करें पाप शशि-सूर्य, उन्हें टोको रे !
जा कहो, पुण्य यदि बढ़ा नहीं शासन में,
या आग सुलगती रही प्रजा के मन में;
तामस बढ़ता यदि गया ढकेल प्रभा को,
निर्बन्ध पन्थ यदि मिला नहीं प्रतिभा को,
रिपु नहीं, यही अन्याय हमें मारेगा,
अपने घर में ही फिर स्वदेश हारेगा।