Bhopal. आपने ऐसी कुछ पिक्चरें या सीरियल अक्सर देखे होंगे या कहानियां सुनी होंगी जो ट्रेजर हंट पर बेस्ड होती हैं। ट्रेजर हंट यानी खजाने की खोज में निकलना। ऐसे ही एक खजाने की खोज में इन दिनों मध्यप्रदेश (Madhya Pradesh) कांग्रेस निकली हुई है। अमूमन ट्रेजर हंट पर निकले लोगों को पास एक नक्शा होता है। इस हंटिंग में कितना जोखिम होगा इसका अहसास आगे बढ़ते बढ़ते ही होता है। लेकिन कांग्रेस का केस कुछ अलग है। कांग्रेस (Congress) को ये पता है कि खजाने की चाबी कहां छिपी है। उस खजाने तक पहुंचने में जोखिम कितना है। इसलिए कांग्रेस ने बिना वक्त गंवाए खजाने को हासिल करने की कवायद शुरू कर दी है।
जय विलास पैलेस की राजनीति
महाराज तो अब कांग्रेस के रहे नहीं। इसलिए जीत का खजाना लेकर आने की जिम्मेदारी राजा ने संभाली है, जो खजाने की इस खोज में सबसे आगे हैं या यूं कहें कि इस रेस को लीड वो ही कर रहे हैं। वैसे भी उन्हें कभी उस गढ़ में अपनी हुकूमत चलाने की इजाजत नहीं मिली, जहां हमेशा महाराज काबिज रहे हैं। अब ये महाराज माधव राव सिंधिया हों या फिर ज्योतिरादित्य सिंधिया। इनके कांग्रेस में रहते कभी राजा दिग्विजय सिंह जय विलास पैलेस की सत्ता में दखल नहीं दे पाए। लेकिन अब उनके पास पूरा मौका है।
विरासत को संभालने का बंदोबस्त
कांग्रेस के जानिब से अब जयविलास पैलेस की सत्ता में राघोगढ़ के राजा का राज होगा। इस राज को वो राजधानी भोपाल तक विस्तार दे पाते हैं या नहीं ये बाद की बात है। फिलहाल तो महाराज की छूटी हुई विरासत को संभालने का पूरा बंदोबस्त कर लिया है दिग्विजय सिंह ने। ये विरासत संभालते ही सबसे बड़ी जिम्मेदारी जो खुद ने अपने कंधे पर उठाई है वो है ग्वालियर चंबल से जयविलास पैलेस के दबदबे को खत्म करना। और ये साबित करना की कांग्रेस सिंधिया महाराज के बिना भी ग्वालियर चंबल पर राज कर सकती है।
राजा के नेतृत्व में महाराज के दरबार से जंग होगी
क्या ये काम इतना आसान है। जिस सत्ता के आगे 1976 से कांग्रेस ग्वालियर चंबल में नतमस्तक रही। उसी सत्ता से लोहा लेना है। चार दशक तक कांग्रेस के नेताओं ने यहां सिर्फ महाराज के दरबार की जी हजूरी की है। गोविंद सिंह जैसे नेता जरूर इसके अपवाद हैं। लेकिन कांग्रेस के मौजूदा कार्यकारी अध्यक्ष राम निवास रावत तो माधव राव सिंधिया के खास रहे हैं। लेकिन अब दिग्विजय सिंह की सेना में शामिल हैं। अब राजा के नेतृत्व में महाराज के दरबार से जंग लड़ना है। जंग है उन सीटों को वापस लाने की जो महाराज के साथ साथ बीजेपी के खाते में चली गई। जंग आसान नहीं है लेकिन दिग्विजय सिंह भी कच्चे खिलाड़ी नहीं हैं। जंग का आगाज करने वाली बैठक के साथ ही वो ये इशारा भी कर ही चुके हैं।
दिग्विजय सिंह की रणनीति
गौरतलब है कि भोपाल में सत्ता पाने का रास्ता ग्वालियर से होकर गुजरता है। 2018 में ग्वालियर-चंबल में कांग्रेस का दबदबा रहा और वह सरकार बनाने में कामयाब रही। 2018 के चुनाव में कांग्रेस ने ग्वालियर चंबल अंचल के आठ जिलों में 34 में से 26 सीटों पर जीत दर्ज की थी। 2020 में जब कांग्रेस की सरकार गई उस वक्त महाराज के साथ इसी अंचल के कई विधायकों ने कांग्रेस का दामन छोड़ा था। अब दोनों दल ये समझ चुके हैं कि जीत के लिए ग्वालियर चंबल बहुत जरूरी है। जहां से कमलनाथ, ज्योतिरादित्य सिंधिया और दिग्विजय सिंह ने मिलकर वक्त है बदलाव का नारा बुलंद किया था। उसी बदलाव को इस बार फिर जमीन पर उतारकर लाना है। इसलिए सिंधिया को उन्हीं के गढ़ में घेरने की तैयारी है। इसकी शुरूआत पिछले दिनों हुई एक बैठक से हो चुकी है। इस बैठक में मंच पर दिग्गी राजा कमान संभाले नजर आए। कांग्रेस के नए अध्यक्ष गोविंद सिंह और राजा के युवराज जयवर्धन सिंह भी मंच पर बैठे नजर आए। सिंधिया के धुर विरोधी परिवार अशोक सिंह के होटल में हुई ये बैठक, कांग्रेस की पिछली बैठकों से काफी अलग थी। क्योंकि इससे पहले ग्वालियर चंबल में सिंधिया घराने की मर्जी के बगैर पत्ता भी नहीं हिला। उसी कांग्रेस में अब सिंधिया का नाम लिए बगैर उन्हें शिकस्त देने की तैयारियां चल पड़ी हैं। इस बैठक में ग्वालियर चंबल का किला फतह करने की रणनीति पर विचार हुआ। अंचल के दिग्गजों से वन टू वन चर्चा भी हुई। लेकिन मजाल है कि बैठक से निकलकर किसी ने सिंधिया का नाम भी लिया हो। कांग्रेस का इशारा साफ है निशाने पर सिंधिया ही होंगे लेकिन तीर की नोक बीजेपी की तरफ दिखाई जाएगी।
सिंधिया से बनाई दूरी
राजनीति के माहिर खिलाड़ी दिग्विजय सिंह ने भी बैठक से बाहर आकर मीडिया से बातें की। मीडिया ने भी घुमाफिराकर कई सवाल पूछे। लेकिन दिग्विजय सिंह ने एक भी बार सिंधिया का नाम नहीं लिया। जब मुकाबला सिंधिया से ही है तो कांग्रेस उनका नाम लेने से बच क्यों रही है। क्या कोशिश ये साबित करने की है कि वो दल बदल कर चुके सिंधिया को कोई खास तवज्जो नहीं देते। लेकिन ये कोशिश कितनी कामयाब होगी। अपनी बैठकों में सिंधिया का नाम न लेकर क्या कांग्रेस इस बात से आश्वस्त हो सकती है कि कांग्रेस ग्वालियर चंबल में सिंधिया के दबदबे से मुक्त हो चुकी है।
चंबल की जंग होगी दिलचस्प
मध्यप्रदेश का ये पहला चुनावी दंगल होगा जब राजा और महाराज एक दूसरे के आमने सामने होंगे। राजा के साथ वो सिपाही हैं, जो कभी सिंधिया के वफादार रहे या फिर धुरविरोधी। महाराज के साथ वो सेना है, जिसमें चंद सिपाही विश्वासपात्र हैं तो कुछ ऐसे हैं जिन्हें महाराज का बीजेपी में आना रास नहीं आना। यानी 2023 के चुनाव में दिलचस्प जंग नजर आएगी। जीत किसकी होती है ये देखना भी उतना ही दिलचस्प होगा।