GWALIOR: राजीव और माधवराव में ऐसी दोस्ती थी कि दोनों ने अपनी मांओं की सलाह को भी ठुकरा दिया, पढ़ें दो दोस्तों के अनछुए पहलू

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GWALIOR: राजीव और माधवराव में ऐसी दोस्ती थी कि दोनों ने अपनी मांओं की सलाह को भी ठुकरा दिया, पढ़ें दो दोस्तों के अनछुए पहलू

देव श्रीमाली, GWALIOR. आज 20 अगस्त है। आज पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी का जन्मदिन है। उनकी सादगी, समन्वयवादी सोच और सियासत और प्रशासनिक क्षमता से जुड़े अनेक किस्से तो जगजाहिर है। राजीव की जिंदगी का एक अहम पहलू था, उनकी दोस्ती और इसी दोस्ती के कारण वे ना केवल मीडिया, बल्कि अपनी पार्टी के बड़े नेताओं की आलोचनाओं के शिकार बने। इनमें से कई दोस्त तो वे थे, जिन्होंने उनके साथ पढ़ाई की। लेकिन एक ऐसा भी था, जो साथ भी नहीं पढ़ा और उसके और गांधी परिवार के रिश्ते भी तल्ख रहे, लेकिन उसकी राजीव से यारी अंतिम सांस तक बरकरार रही। इस शख्स का नाम है- माधवराव सिंधिया। 





सिंधिया परिवार से नेहरू परिवार से तल्ख रिश्ते 





1947 में देश के आजाद होने के बाद ग्वालियर के तत्कालीन महाराज जीवाजी राव सिंधिया ने भी अन्य राजे-रजवाड़ों के साथ अपनी रियासत का विलय भारत सरकार में कर दिया था, लेकिन ग्वालियर के पूर्व  महाराज ने राजनीति में ना आने की घोषणा करके सबको चौंका दिया था। उनकी जगह उनकी पत्नी और सिंधिया रियासत की तत्कालीन महारानी विजयाराजे सिंधिया ने देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की सलाह पर उपप्रधानमंत्री वल्लभ भाई पटेल की मौजूदगी में कांग्रेस की सदस्यता तो ले ली थी, लेकिन कांग्रेस के तत्कालीन नेताओं से उनका संघर्ष चलता रहता था। यह इतना बढ़ा कि एक दिन महारानी विजयाराजे सिंधिया ने अपने समर्थक विधायकों के साथ कांग्रेस से बगावत कर जनसंघ से हाथ मिला लिया। 





विजयाराजे ने सत्ता बदली





ये 1967 की बात है। तब मध्य प्रदेश में मुख्यमंत्री हुआ करते थे द्वारिका प्रसाद मिश्रा। डीपी मिश्र के नाम से जाने जाने वाला यह नेता स्वतंत्रता सेनानी था और इन्हे राजनीति के चाणक्य की संज्ञा भी दी गई थी। इनको जवाहर लाल नेहरू की बेटी का राजनीतिक गुरु भी माना जाता है। विजयाराजे ने इस चाणक्य की सरकार पलट दी और प्रदेश की पहली गैर कांग्रेसी सरकार का गठन करवा दिया। इस संविद सरकार के मुख्यमंत्री बने गोविंद नारायण सिंह। हालांकि, यह सरकार ज्यादा दिन नहीं चली और आम चुनाव में फिर कांग्रेस सत्ता में वापसी कर गई, लेकिन सिंधिया राजघराना हमेशा के लिए कांग्रेस छोड़कर जनसंघ के साथ हो गया। इससे जनसंघ को अर्थशक्ति के रूप में ताकत मिली और सिंधिया समर्थकों का समर्थन भी। इससे जनसंघ अंचल में काफी मजबूत हो गया।  





जब माधवराव भारत लौटने वाले थे...



 



यह वह दौर था, जब सिंधिया खानदान का इकलौता चश्मो-चिराग लंदन में पढ़ाई कर रहा था। राजमाता के बेटे माधवराव सिंधिया 1971 में लंदन से अपनी पढ़ाई पूरी करके जब वापस भारत आए, तब तक इंदिरा गांधी देश की राजनीति में स्थापित हो चुकी थी। सिंधिया परिवार द्वारा उनके गुरु डीपी मिश्र की सरकार गिराने की कसक उनके मन में  इतनी ज्यादा थी कि उन्होंने राजा-महाराजाओं और सामंतों को मिलने वाले प्रिविपर्स और अन्य विशेषाधिकार बंद करने की घोषणा कर दी। इसको लेकर राजमाता विजयाराजे सिंधिया और इंदिरा गांधी के बीच तल्ख विवाद भी हुआ। 





और माधवराव जनसंघ से सांसद बन गए





विजयाराजे प्रिविपर्स हटाने के मामले पर विरोध में भी उठ खड़ी हुईं, लेकिन इंदिरा गांधी अपने फैसले पर अडिग रहीं। इस बीच लोकसभा चुनाव आ गए तो राजमाता ने अपने महज 25 साल के बेटे माधवराव सिंधिया को गुना संसदीय क्षेत्र से मैदान में उतार दिया। यह सिंधिया परिवार की परंपरागत सीट थी। माधवराव सबसे कम उम्र के सांसद बनकर दिल्ली पहुंचे। वे जनसंघ के सांसद थे, लेकिन उनकी दोस्ती इंदिरा गांधी के बेटे संजय गांधी से हो गई। कहा जाता है कि माधवराव की मां राजमाता ने उन्हें कई बार समझाया और सख्त हिदायत भी दी कि वे नेहरू परिवार से दूरी बनाएं और संजय या राहुल से दोस्ती ना गांठें, लेकिन उन्होंने एक नहीं मानी। 







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इंदिरा गांधी के साथ माधवराव सिंधिया, ज्योतिरादित्य और माधवी राजे सिंधिया।







पहले संजय गांधी और फिर उनके जरिए और फिर परिवार से ही माधवराव के नजदीकी संपर्क बन गए। इसके बाद राजमाता और माधव राव के बीच विवाद बढ़ा और इमरजेंसी के बाद माधव राव संजय गांधी के कहने पर कांग्रेस में आ गए, लेकिन 1977 का लोकसभा चुनाव उन्होंने निर्दलीय ही जीता, लेकिन कांग्रेस के समर्थन से। हालांकि, उस चुनाव में कांग्रेस की समूचे उत्तर भारत में करारी हार हुई। इसमें केवल दो सीटों पर ही ऐसे ही लोग जीते जो जनता पार्टी के प्रत्याशी नहीं थे। एक सीट छिंदवाड़ा थी जहां से कांग्रेस के गार्गीशंकर मिश्रा जीते थे और दूसरी गुना थी जहां से कांग्रेस समर्थित माधव राव सिंधिया जीते। देश में प्रचंड बहुमत वाली जनता पार्टी की सरकार बन गई।  कहते हैं इस बार भी राजमाता ने अपने बेटे से अपने निर्णय पर पुनर्विचार करने को कहा, लेकिन माधव राव ने विपक्ष में बैठकर दोस्ती निभाने को ही वरीयता दी। तब तक संजय के साथ राजीव गांधी से भी माधव राव सिंधिया की अच्छी दोस्ती हो गई थी, हालांकि तब राजीव गांधी की राजनीति में कोई रूचि नहीं थी और वे पायलट की नौकरी में ही मस्त थे।



 



जब राजीव ने नहीं मानी मां की बात...





इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थी लेकिन संजय गांधी की विमान दुर्घटना में हुई असमायिक मौत के बाद राजीव गांधी को बेमन से राजनीति में आना पड़ा और वे कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव भी बन गए तो माधवराव और राजीव के बीच की नजदीकियां और बढ़ गयीं। एक पुस्तक में माखन लाल फोतेदार के हवाले से खुलासा किया गया है कि यह तो तय हो ही गया था कि देर सबेर प्रधानमंत्री की कुर्सी पर राजीव गांधी को ही बैठना है तो एक बार इंदिरा ने अपने बेटे राजीव से कहा था कि यदि वे प्रधानमंत्री बनें तो माधव राव सिंधिया को मंत्री ना बनाएं। लेकिन राजीव ने अपनी मां की बात नहीं मानी और जब वे पीएम बने तो उन्होने माधवराव को बतौर रेलमंत्री अपने मंत्रिमंडल में शपथ दिलाई। 





माधवराव ने बताया था- इंदिरा को गोली मार दी





दिवंगत माधवराव सिंधिया के नजदीकी रहे बाल खांडे कहते हैं- स्वयं महाराज साहब ने मुझे चौंकाने वाली बात बताई थी। उन्होंने बताया था कि जब प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को गोली मार दी गई, उन्हें एम्स में भर्ती कराया गया, उस समय राजीव गांधी कलकत्ता में थे। उनके आगमन का इंतजार था। सूचना पाकर हम सब दोस्त तत्काल एम्स पहुंचे। इंदिरा जी को सेकंड फ्लोर में रखा गया था। हालांकि, उनके निधन की औपचारिक घोषणा नहीं हुई थी, लेकिन हम लोगों को पता था। तब हम दोस्त जिनमें माधवराव, अरुण नेहरू, राजेश पायलट, अरुण सिंह और सैम पित्रोदा शामिल थे, जल्दी से इकट्ठे होकर अस्पताल पहुंचे और एक साथ लिफ्ट में घुस गए। तब तक कांग्रेस में पीएम बनाने के लिए नामों की अटकलें और राजनीति शुरू हो गई थी। माधवराव ने कहा था कि राजीव जी के अलावा अन्य कोई पीएम नहीं बनना चाहिए और इसके बाद से सब लोग इस मुहिम में लग गए जब तक कि राजीव की शपथ नहीं हो गई। 





राजीव और माधवराव के बीच गहरी दोस्ती थी





माधवराव और राजीव गांधी के बीच निजी रिश्ते बहुत ही पारिवारिक, दोस्ताना और गरिमापूर्ण थे। दोनों एक-दूसरे से कुछ भी कह देते थे। एक बार की बात है, जब ना तो राजीव पीएम बने थे और ना माधवराव केंद्र में मंत्री। राजीव कांग्रेस के महासचिव थे और रूटीन फ्लाइट से दिल्ली से दक्षिण जा रहे थे। उस फ्लाइट को कुछ देर ग्वालियर में भी रुकना था। उस समय तक ग्वालियर में सिविल एविएशन का हवाई अड्डा नहीं था। फ्लाइट एयरफोर्स के एयरबेस पर ही आती थी, जहां कड़ी सुरक्षा रहती थी। वहां सिर्फ यात्रियों के ही पहुंचने की इजाजत थी। 





बाल खांडे कहते है कि जब हम लोगों को राजीव के यहां कुछ देर रुकने की बात पता चली, तब मैं अपने कुछ अन्य युवक कांग्रेस कार्यकर्ताओं के साथ जाकर महाराज से मिला और उनसे कहा कि हम लोग राजीव जी का स्वागत करना चाहते है, लेकिन वहां जा ही नहीं सकते। सिंधिया ने सीधे राजीव गांधी से बात कर युवाओं की इच्छा से अवगत कराया और उन्होंने भी दोस्त की बात का मान रखने के लिए रक्षा मंत्रालय से बात करके कार्यकर्ताओं के एयरफोर्स में अंदर लाने की व्यवस्था करने का आग्रह किया। राजीव गांधी हवाई जहाज से उतारकर हवाई पट्टी से बाहर तक आए और सभी कार्यकर्ताओं से मिले। 





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मित्रता का सबसे रोमांचक किस्सा 





बात 1984 की है। बीजेपी के शीर्षस्थ नेता अटल विहारी वाजपेयी अपने लिए संसदीय क्षेत्र ढूंढ रहे थे। पार्टी और उनकी इच्छा ग्वालियर से लड़ने की थी। अटल जी का सिंधिया परिवार से गाढ़ा संबंध किसी से छिपा नहीं था। अटल जी ने माधवराव से बात की कि वे ग्वालियर से चुनाव लड़ना चाहते है, आप तो नहीं लड़ना चाहते। मंशा यही थी कि दोनों आत्मीयजन आमने-सामने मैदान में ना हों। सिंधिया ने गुना से ही लड़ने की बात कही तो अटल जी ने यहां आकर नामांकन भर दिया और सिंधिया ने भी गुना में नामजदगी करा दी थी। लेकिन नामांकन वापसी के अंतिम समय में राजीव ने सभी पिपक्षी नेताओं को एकसाथ घेरने की गोपनीय रणनीति बनाई और रणनीतिकारों में सिंधिया भी थे। इसी के तहत इलाहाबाद में हेमवती नंदन बहुगुणा के खिलाफ सुपरस्टार अमिताभ बच्चन और ग्वालियर में अटल जी के खिलाफ माधवराव सिंधिया ने अंतिम समय में ग्वालियर पहुंचकर कांग्रेस से अपना नामांकन भर दिया। इससे अफरातफरी मच गयी। बड़े विपक्षी नेताओं को इतना भी समय नहीं मिल सका कि वे कहीं और जाकर भी फॉर्म भर सकें। ग्वालियर में सिंधिया की ऐतिहासिक जीत और अटल जी की बड़ी हार हुई। सिंधिया ने यहां भी पारिवारिक रिश्तों की जगह राजीव गांधी के मित्रता के रिश्ते को तरजीह दी। 





एक किस्सा ये भी





राजीव गांधी ग्वालियर दो बार आए और दोनों बार माधवराव के न्योते पर। पहली बार जब सिंधिया उन्हें ग्वालियर लेकर आए तो ग्वालियर किले पर दूरदर्शन के हाईपॉवर ट्रांसमीशन सेंटर का उद्घाटन करवाया। जब दूसरी बार जब आए तो विदेशी सरकार की मदद से गोला का मंदिर पर एक बड़े अत्याधुनिक अस्पताल के निर्माण की आधारशिला रखवाई। हालांकि, इसके बाद ही राजीव गांधी की सरकार ही चली गई और इस अस्पताल के निर्माण का काम भी ठंडे बस्ते में चला गया। 





सिंधिया के समर्थक रमेश दुबे याद करते हुए कहते हैं कि दोनों (राजीव और माधवराव) में ऐसी दोस्ती थी, जो आजकल देखने को नहीं मिलती। मुझे भिंड जिला सेवादल का अध्यक्ष बनाया गया तो मैं अपने साथियों को लेकर एक बस से महाराज का आभार जताने दिल्ली गया। वे सब युवाओं  को देखकर बड़े खुश हुए और पूछने लगे दिल्ली में कहां जाओगे और किससे मिलोगे? मैंने कहा कि हम तो राजीव गांधी से मिलना चाहते हैं। प्रधानमंत्री निवास नहीं देखा। उनके चेहरे पर परंपरागत मुस्कराहट थी। वे बोले कुछ नहीं और अंदर चले गए। हम लोगों से वहीं रुकने को बोला गया और थोड़ी देर बाद उनके पीए के जरिए मैसेज मिला कि एक घंटे बाद सब लोग प्रधानमंत्री निवास पहुंचो, वहां सबकी मुलाकात भी होगी और फोटो भी खिंचेगी। ऐसा हुआ भी। 





इस (ग्वालियर) अंचल में राजीव आखिरी बार निधन के बस कुछ दिन पहले ही आए थे। वे विमान से ग्वालियर हवाई अड्डे पर उतरे, जहां माधवराव सिंधिया ने उनकी अगवानी की। यहां से फिर दोनों एक ही हेलिकॉप्टर से पहले मुरैना गए, जहां कांग्रेस प्रत्याशी के समर्थन में सभा की। इस सभा में मौजूद रहे वरिष्ठ फोटोग्राफर केदार जैन कहते हैं कि यह सभा एकदम अलग ही मूड में हुई थी। इसमें राजीव गांधी ने माधवराव के लिए मेरे प्यारे दोस्त और आप सबके प्रिय नेता का संबोधन दिया। मुरैना से दोनों सीधे भिंड गए, जहां कांग्रेस के टिकट पर राजीव के एक और दोस्त मशहूर पत्रकार उदयन शर्मा चुनाव लड़ रहे थे। इस सभा के एक हफ्ते बाद 21 मई 1991 एक आत्मघाती आतंकी हमले में राजीव गांधी का निधन हो गया। फिर 30 सितंबर 2001 को एक विमान दुर्घटना में माधव राव सिंधिया की भी दुखद मौत हो गई। दोनों ही दोस्त अब दुनिया में नहीं हैं, लेकिन इनकी दोस्ती के किस्से आज भी सियासी गलियारों में याद किए जाते हैं।





(सभी फोटो- केदार जैन)



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