Gwalior. सरकरी खजाने के करोड़ों रुपए खर्च होने के बाद भी वनों का रकबा लगातार घट रहा है। ऐसे में अगर कोई अपनी मेहनत से 10 साल में बगैर सरकारी मदद के एक-दो हजार नहीं, 13 हजार से ज्यादा पेड़ कई बीघा जमीन पर लगाकर उस बियावान और पहाड़ को पूरे वन क्षेत्र में ही बदल दे तो ऐसे व्यक्ति को तो रियल हीरो ही कहा जाएगा। बीएसएफ से रिटायर होकर आए दो जवानों ने 2011 में इस अभियान की शुरुआत की। अड़चनें भी आईं, लेकिन सहयोगी भी आते गए और कारवां बनता गया। इन लोगों ने शहर के बीच आनंद वन बना दिया, जिसमें हजारों पशु-पक्षी रहते हैं। सैकड़ों परिवार इन लहलहाते पेड़ों के बीच सुबह-शाम की सैर करते है और देखरेख भी।
ऐसे दिया सपने को अंजाम
महज कुछ दशक पुरानी बात है, जब ग्वालियर शहर चारों ओर से जंगलों से घिरा था। यहां का घाटीगांव इलाका एक विशाल वन क्षेत्र था, जिसमें कई वन्यजीव रहते थे। यही नहीं, राजस्थान के रणथम्भौर अभयारण्य तक से वन्यजीव यहां आ जाते थे। इसी वन क्षेत्र में दुर्लभ प्रजाति की सोन चिरैया भी पाई जाती थी। उसके हैबिटेट को बचाकर रखने के लिए ही इस वन क्षेत्र को कभी सोन चिरैया अभयारण्य की स्थापना की गई। यह अभयारण्य तो अभी भी है, लेकिन बस कागजों में, क्योंकि अंधाधुंध कटाई में ना जंगल बचे, ना जानवर और ना सोनचिरैया। यही हाल शहर का है। यहां का हृदयस्थल लश्कर तो मानो पेड़ विहीन हो गया। ऐसे में इस इलाके में कुछ लोगों के निजी प्रयासों से एक नया वन आबाद हो गया, जो आज पूरे शहर को शुद्ध वायु दे रहा है। इसका नाम लोगों ने रखा- आनंद वन।
पत्थरों पर फूल खिलाने का प्रयास
यह आनंद वन करीब 10 बीघा इलाके में फैला हुआ है। खास बात ये है कि ये पहाड़ पर लगाया गया है। यानी ये पत्थर पर फूल उगाने का सफल कोशिश है। इस वन के विकसित होने की कहानी रोचक भी है और प्रेरणादायक भी। शहर के बीचोंबीच विशेष सशत्र बल (एसएएफ) का इलाका है, जहां उसकी सेकंड बटालियन और 13वीं बटालियन के मुख्यालय हैं और यहीं एसएएफ का परेड ग्राउंड ,आईजी ग्वालियर और आईजी जी एसएएफ का दफ्तर और पुलिस ऑफिसर्स मेस है।
इसका एक इलाका ग्वालियर की परम्परागत लाल मुरम का पहाड़ का था, जिस पर कुछ झाड़ियों के अलावा कुछ नहीं था। ना कभी सरकार ने इस पर पेड़ लगाने की सोची, ना एसएएफ के अफसरों ने। उल्टे खनिज माफिया पीछे से चोरी छिपे इन पहाड़ों से मुरम चुराने का काम करते थे। 2011 से इस पहाड़ के दिन बदलना शुरू हुए। दरअसल बीएसएफ से रिटायर रूप सिंह राठौर और विक्रांत राठौर रोज सुबह पहाड़ पर घूमने जाते थे। दोनों ने मिलकर इस पर कुछ पेड़ लगाने की सोची। उन्होंने नर्सरी से कुछ पौधे लिए। दोनों रोज सुबह -शाम अपने घर से केन में भरकर पानी ले जाते, जिससे सिंचाई करते। इन दोनों दोस्तों ने अपना यह सिलसिला 2013 तक जारी रखा और महज तीन सालों में इनके प्रयास से इस क्षेत्र में सौ पेड़ लहलहाने लगे।
हरियाली देख आसपास के युवा और महिलाएं सुबह और शाम की सैर करने यहां जाने लगे और वे भी अपने साथ पेड़ों का गला तर करने के लिए घर से पाने लेकर जाने लगे। इन्हीं में से चार युवा इंद्रदेव सिंह, अनिल कपूर, दिनेश मिश्रा और अजित भोंसले इस आंदोलन से जुड़ गए। इन चारों ने मिलकर यहां एक पानी की टंकी बनवाई, जिसकी क्षमता 5 हजार लीटर थी, क्योंकि पहाड़ी पर नीचे से पानी ले जाकर पेड़ों में डालना दुष्कर काम था।
बड़ी समस्या पशुओं से पेड़ बचाना थी
इंद्रदेव सिंह कहते है कि पानी की व्यवस्था से भी ज्यादा कठिन काम था पेड़ों को जानवरों से बचाना, क्योंकि पहाड़ी चारों ओर से खुली थी और यहां आवारा पशु घूमते थे। कई बार ऐसा हुआ कि जब शाम को जो पेड़ लहलहाता हुआ हुआ छोड़कर आते थे, सुबह उसे पशु बर्वाद कर देते थे। तारबंदी करने में संसाधनों की कमी आड़े आ रही थी। अजित का ट्रैक शूट बनाने का कारखाना है। वहां से कटिंग का जो सामान आने लगा, उससे बाड़ बनाकर पेड़ों को सुरक्षित किया। 2015 तक यहां ढाई हजार से ज्यादा पेड़ लग गए, लेकिन फिर इन्हें बचाने की समस्या खड़ी हो गई। लेकिन जहां चाह, वहां राह .... लोग आते गए और कारवां बनता गया। लोगों द्वारा संरक्षित किये जा रहे इस आनंद वन की ख्याति जब 2016 में यहां कमांडेंट बनकर आईं आईपीएस ईशा पंत तक पहुंची तो वे अचानक वहां घूमने पहुंच गयी। आनंद वन पहुंचकर वे इतनी खुश हुईं कि खुद को भी इस अभियान से जोड़ लिया। उन्होंने इसके चारों ओर कंटीले तारों की बाड़ और गेट लगवाकर पेड़ों को सुरक्षित करने का काम कर दिया।
आनंद वन का फेज 2
ईशा पंत के प्रयासों से आसपास के लोगों में नया उत्साह आया और वे भी इस वन के विस्तार में जुट गए। लोगों ने वन के विस्तार के लिए फेज 2 का काम शुरू किया। इसे युवा शुभम सिंह और अवधेश सिंह ने आगे बढ़ाया। इस बीच इस अभियान से ही जुड़े युवा मनोज तोमर क्षेत्र के पार्षद बन गए। उन्होंने इसमें पानी की समस्या को खत्म करने के लिए कई व्यवस्थाएं कीं। पानी डालने के लिए लोगों की भी व्यवस्था कर दी। 2017 आते-आते आनंद वन में साढ़े 8 हजार से ज्यादा पेड़ तैयार हो चुके थे। 2018 में यहां एक बड़ी पानी की टंकी का निर्माण कराया गया। इस विशाल वन के हर वृक्ष को रूप सिंह राठौर सुबह से लेकर शाम तक परिजन की तरह पालते रहे। 2018 में आनंद वन अभियान से देवेंद्र सिंह जुड़े। उन्होंने ग्राफ्ट तकनीक से बरगद और पाखर के सैकड़ों पौधे तैयार कर दिया। अब यह वन पेड़ों के मामले में आत्मनिर्भर हो गया। 2019 के बाद से यहां के लिए बाजार से पौधे खरीदने की जरूरत नहीं रही, क्योंकि यहां हर साल 700 से ज्यादा पेड़ तैयार हो रहे हैं।
ये पेड़ लगे हैं
आनंद वन में अभी तक 1 लाख 28 हजार 885 जीवित और सरसब्ज पेड़ है, जिनकी बाकायदा नम्बरिंग करके देखभाल होती है। इनमें नीम ,पीपल, बरगद, कांजी, चिरोल, पाखर, गूलर,अकेसिया ,आंवला, अमलतास ,गुलमोहर,अर्जुन, बम्बू, कचनार, हरसिंगार, इमली, कैंथा के अलावा अनेक फूलों के सीजनल पेड़ भी लगे हैं।
बेघर मोरों को मिला नया घर
विकास के नाम पर पेड़ों को काटना फैशन बनता जा रहा है। ग्वालियर के कम्पू इलाके में भी यही हुआ। यहां सिंधिया कालीन पॉटरीज को तोड़कर सरकार ने अस्पताल बनाने का निर्णय लिया तो वहां सैकड़ों साल पुराने सैकड़ों पेड़ और झाड़ियां काट दी गईं। उसे कांक्रीट के जंगल में तब्दील कर दिया। यहां रहने वाले मोर रातों-रात बेघरबार हो गए। भटकते हुए कइयों की जान चली गई। बाद में आनंद वन के लोगों ने जुगत से प्रयास करके सब मोरों को आनंद वन का रास्ता दिखाया। यहां इनके लिए दाना-पानी की भी व्यवस्था की गई है।
इस साल लगाएंगे 500 नए पौधे
इंद्रदेव कहते हैं कि वृद्धावस्था के कारण अब रूप सिंह का आना संभव नहीं हो पता, लेकिन देवेंद्र सिंह और दिनेश मिश्रा पूरी देखभाल करते है और बाकी युवा उन्हें सहयोग करते हैं। इस बार बरसात में 500 नए पेड़ लगाने की तैयारी है।