संजय गुप्ता, INDORE. निगम चुनाव (corporation election) में कम वोटिंग के कारण 27 वार्डों में बीजेपी (BJP) का गणित बिगड़ते दिख रहा है। इन सभी जगहों पर वोट का प्रतिशित बीते चुनाव की तुलना में दस फीसदी तक कम हो गया है। वहीं दूसरी ओर मुस्लिम वार्डों में वोटिंग औसत 60.88 फीसदी से ज्यादा ही रही है। करीब दस वार्डों में तो वोटिंग 65 फीसदी तक पहुंच गई है। सबसे ज्यादा वोटिंग रानीपुरा में 68 फीसदी से ज्यादा हुई है। बंबाई बाजार में 68.67 फीसदी, जवाहर मार्ग पर 64.55 फीसदी, जूना रिसाला (Juna Risala) में 63 फीसदी और चंदननगर (Chandannagar) में 63 फीसदी वोटिंग हुई है। हाजी कॉलोनी में 63 फीसदी वोटिंग हुई। हालांकि खजराना क्षेत्र, नाहर शाह वली वार्ड में 58 फीसदी के करीब वोटिंग हुई है। लेकिन जानकारों के साथ ही कांग्रेस (INC) का दावा है कि यह कम वोटिंग बीजेपी मतदाताओं के नहीं जाने से हुई है। इसका बड़ा कारण है कि बीजेपी ने इस बार किसी मुस्लिम वर्ग (Muslim Section) का उम्मीदवार को मैदान में नहीं उतारा है। निगम के 18.35 लाख वोटर्स में तीन लाख से ज्यादा मतदाता इस वर्ग से बताए जाते हैं।
इन वार्डों में बीजेपी को विरोध की आशंका
वार्ड नंबर 1, 4, 5, 6, 10, 11, 17, 56, 60, 70, 72, 81 और 85 में बीजेपी को विरोध की सुगबुगाहट सुनाई दे रही है। वहीं मजबूत वार्डों में कम वोटिंग से वह संकट में हैं। इसका खामियाजा महापौर प्रत्याशी को भी उठाना पड़ सकता है। कांग्रेस का यह भी दावा है कि यादव समाज, ब्राह्मण और हरिजन के साथ ही व्यापारी वर्ग ने भी उन्हें साथ दिया है। यदि दावा सही बैठता है तो फिर इंदौर की महापौर सीट फंसती नजर आती है।
जब मैदानी नेता नहीं लड़ा तब-तब बीजेपी संकट में फंसी है
साल 1999 से महापौर पद का सीधे चुनाव शुरू हुआ है। पहली बार तत्कालीन विधायक कैलाश विजयवर्गीय को टिकट मिला और केवल 40 फीसदी वोटिंग के बाद भी वह डेढ लाख वोट से जीते। लेकिन इसके बाद साल 2004 में उस समय अनजान चेहरा डॉ. उमाशशि शर्मा, विजयवर्गीय के समर्थन से ही मैदान में आईं थीं। लेकिन वह कांग्रेस की शोभा ओझा से 21 हजार वोट से जीत हासिल कर सकीं। इसके बाद साल 2009 में अचानक सामने आए कृष्णमुरारी मोघे की जीत तो और भी फीकी रही और केवल 3292 वोट से कांग्रेस के पंकज संघवी से जीत सके। लेकिन जब साल 2014 में पार्टी ने फिर मैदानी नेता विधायक मालिनी गौड़ को टिकट दिया तो वह ढाई लाख से अधिक वोट से जीतीं। इस बार फिर वही संकट है। पुष्यमित्र भार्गव की मैदानी सक्रियता और पकड़ नहीं के बराबर रही है। ऐसे में वह पूरी तरह संगठन और संघ के भरोसे ही चुनाव लड़े हैं। कम वोटिंग ने संगठन की कार्यप्रणाली पर सवाल खड़े कर दिए हैं। वहीं बड़े नेता भी सीएम और प्रदेशाध्यक्ष के दौरे के समय ही जोश में साथ में दिखे। इसके अलावा भार्गव को वैसा साथ नहीं मिला, क्योंकि उन्हें टिकट मिलने के चलते वैसे ही बड़े नेता खुद को दरकिनार मान रहे थे।