GWALIOR: अगर ऐसा हुआ तो बदल जाएगी सिंधिया परिवार की चुनाव प्रचार से जुडी परम्परा

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Dev Shrimali
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GWALIOR: अगर ऐसा हुआ तो बदल जाएगी सिंधिया परिवार की चुनाव प्रचार से जुडी परम्परा

 GWALIOR News. नगर निगम के लिए चुनाव प्रचार अभियान अभी शबाब पर है। बीजेपी इस ऐतिहासिक नगर निगम की सत्ता पर पूरे पचपन साल से कब्जा जमाये हुए बैठी है। लेकिन इस बार का चुनाव ख़ास है। इसकी बजह है सिंधिया परिवार। सत्तर के दशक से अंचल की सियासत पर सिंधिया  परिवार का कब्ज़ा रहा है। ख़ास बात ये कि सिंधिया परिवार कांग्रेस में सभी टिकट बांटता रहा है लेकिन अभी तक कभी भी ऐसा नहीं हुआ कि सिंधिया परिवार अपनी पार्टी के प्रत्याशियों के समर्थन में वोट मांगने सड़क पर उतरा हो। लेकिन इस बार सब कुछ उलट - पुलट है। सिंधिया इस बार कांग्रेस में नहीं बल्कि उसी बीजेपी में हैं जिसके खिलाफ वे लगातार अपने प्रत्याशी लड़ाते थे। बीजेपी के नेता हर चुनाव को गंभीरता से लेकर वोट मांगते है। इसलिए लोगों की निगाहें अब यह देखने पर लगीं है कि केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया अपने परिवार की परम्परा को तोड़ते हैं या नहीं







महारानी ने ली थी कांग्रेस की सदस्यता



 स्वतंत्रता  के बाद से ही सिंधिया परिवार का कांग्रेस में प्रवेश हो गया था।  1947 में देश आज़ाद हुआ और ग्वालियर रियासत का भारत सरकार में विलय हो गया। तत्कालीन महाराज जियाजी राव सिंधिया को भारत सरकार ने ब्रिटिश परम्परा की तरह उनको नव गठित मध्यभारत प्रान्त का राज्य प्रमुख बनाया गया था और उन्होंने ही राज्य के पहले मुख्यमंत्री सहित मंत्रिमंडल को शपथ दिलाई थी। राजतन्त्र समाप्त होने के बाद तत्कालीन महाराजा सिंधिया ने तो राजनीति में न जाने का फैसला किया था लेकिन उनकी पत्नी महारानी विजयाराजे सिंधिया ने उप प्रधानमंत्री बल्लभ भाई पटेल के समक्ष कांग्रेस की सदस्यता ली थी। इसके बाद वे सांसद और विधायक रहीं लेकिन 1967 में तत्कालीन मुख्यमंत्री द्वारिका प्रसाद मिश्रा से उनका विवाद हो गया और उन्होंने अपने समर्थक विधायकों के साथ कांग्रेस छोड़ दी और जनसंघ में शामिल हो गईं।  इस तरह राजनीति के चाणक्य कहे जाने वाले और श्रीमती इंदिरा गाँधी के सलाहकार पंडित डीपी मिश्र की सरकार का पतन हो गया। राजमाता के विधायकों के सहयोग से जनसंघ ने संभवत: देश की पहली गैर कांग्रेसी सरकार का गठन किया गया जिसे इतिहास में संबिद सरकार के नाम से जाना जाता है। इस घटनाक्रम के समय राजमाता के इकलौते पुत्र माधव राव सिंधिया लन्दन में रहकर पढ़ाई कर रहे थे। वे 1970 में  लौटे और कुछ महीनो बाद 25 वीं वर्षगाँठ मनाई। राजमाता ने उन्हें अपनी परम्परागत गुना संसदीय सीट गिफ्ट की और उन्हें वहां से जनसंघ के टिकट पर चुनाव लड़ाया और जीत हासिल की। लेकिन युवा माधवराव को जनसंघ के विचार और तौर-तरीके पसंद नहीं आये और राजमाता से भी अलगाव होने लगा।  इस बीच तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी ने देश में इमरजेंसी लगा दी।  राजमाता को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया और उनके पुत्र माधव राव नेपाल चले गए जहाँ उनकी बड़ी बहिन उषा राजे भी रहती थी और स्वयं माधव राव की ससुराल भी थी। इसी दौरान माधव राव और इंदिरा गाँधी के बीच नजदीकी बढ़ी।  इमरजेंसी हटने के बाद आमचुनाव हुए तो माधव राव ने जनसंघ से चुनाव न लड़ने का फैसला किया। वे निर्दलीय मैदान में उतरे और कांग्रेस ने इनके खिलाफ अपना कोई प्रत्याशी नहीं उतारा। देश भर में चल रही कांग्रेस विरोधी लहर में पूरे उत्तर भारत से कांग्रेस साफ़ हो गई। स्वयं पीएम इंदिरा गाँधी भी चुनाव नहीं जीत सकीं।  मध्यप्रदेश में भी कांग्रेस का बुरा हाल हो गया फिर भी दो लोकसभा सीटें जीतीं। एक छिंदबाड़ा और दूसरी गुना। छिंदवाड़ा  से कांग्रेस के वरिष्ठ नेता गार्गी शंकर मिश्रा जीत गए और गुना से माधवराव जीते। इस जीत के साथ ही देश भर की निगाहें इस युवा सांसद पर गयीं। जीत के कुछ साल बाद ही वे कांग्रेस में औपचारिक तौर पर शामिल हो गए। तब से वे अंतिम साँस तक कांग्रेस में रहे।  हालाँकि हवाला मामले में नाम आने के बाद उन्होंने कुछ समय के लिए कांग्रेस छोड़ी और तमाम दलों से ऑफर मिलने के बावजूद वे किसी दल में शामिल नहीं हुए और ग्वालियर सीट से अपनी मप्र विकास कांग्रेस से चुनाव लड़े और शानदार जीत हासिल की।  अपने अंतिम समय तक ग्वालियर नगर निगम में मेयर से लेकर पार्षद तक के टिकट का फैसला वे ही करते थे लेकिन वे कभी किसी मेयर या पार्षद प्रत्याशी का प्रचार करने नहीं गए। उनके असमयिक निधन के बाद उनके युवा बेटे ज्योतिरादित्य सिंधिया ने परिवार और राजनीतिक विरासत संभाली। कांग्रेस के सभी निर्णय सूत्र पिता की तरह उनके हाथ में ही   रहे लेकिन उन्होंने भी आने समर्थकों को सिर्फ टिकट देने तक सीमित रखा।  प्रचार करके जिताने इ लिए वे कभी सड़कों पर नहीं आये।





इस बार बदलेगी परम्परा



 लेकिन इस बार का सियासी माहौल एकदम अलग ही है। अब ज्योतिरादित्य सिंधिया बीजेपी में है। इस पार्टी में वे न तो अपने किसी समर्थक्या व्यक्ति को मेयर का टिकट दिला सके और न सभी पार्षदों को  जैसा कांग्रेस में कर पाते थे।  मेयर प्रत्याशी की चयन बीजेपी संगठन ने अपने परंरागत तरीके से किया और सिंधिया 66 वार्डों में से महज 18 में अपने समर्थकों को टिकट दिला पाए। अब बीजेपी हर चुनाव को पूरी शिद्द्त से लड़ती है। उसके सभी बड़े नेता शुरू से ही जरूरत के मुताबिक परिषद तक के लिए जन संपर्क करते है।  ग्वालियर में सीएम शिवराज सिंह एक चहककर लगा चुके है जिसमे अनेक बैठके करने के अलावा तीनो विधानसभा क्षेत्रों में सभाएं भी कर  चुके है जबकि केंद्रीय कृषिमंत्री नरेंद्र सिंह तोमर भी दो दिन ग्वालियर में जनसम्पर्क और सभाओं में बिता चुके हैं। इन दौरों के बीच सिंधिया अपना समय इंग्लैंड में बिता रहे थे। अब उनके आने का कार्यक्रम आया है।  उनके दौरे की रूरेखा नहीं है। कहा जा रहा है कि वे सिर्फ रोड शो करना चाहते हैं। इस शो में सिंधिया के अलावा शिवराज सिंह और नरेंद्र तोमर भी रहेंगे। अगर ऐसा होता है तो सिंधिया परिवार की यह परम्परा टूट जायेगी कि शाही परिवार नगर निगम जैसे छोटे चुनाव में वोट मांगने सड़क पर नहीं उतरता। बस लोगों को यही देखने का इंतज़ार है।



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