देव श्रीमाली, Gwalior. ग्वालियर-चंबल अंचल में हासिए पर पड़े पुराने नेता और कार्यकर्ताओं की मौज है। उनके दिन बहुर गए है। जो नेता उन्हें भाव नहीं देते या फिर उन्हें गले लगाने में असहाय महसूस करते थे, आज वे पूरे लाव-लश्कर के साथ उनकी चौखट पर पहुंच रहे हैं। दरअसल यह सिंधिया के सेना सहित बीजेपी में चले जाने के बाद शुरू की गई कांग्रेस की नई रणनीति का हाल-अहवाल है। पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह और कमलनाथ दोनों इस समय इसी अभियान को गति देने में लगे हैं।
अंचल में कांग्रेस का इतिहास
यह तथ्य किसी से छुपा नहीं है कि बीते पांच दशकों से इस अंचल में कांग्रेस में जयविलास पैलेस के बिना कोई पत्ता नहीं हिलता था। वक्त चाहे अर्जुन सिंह जैसे राजनीति के चाणक्य का रहा हो या फिर दिग्विजय सिंह जैसे सियासी चतुर सुजान, देखने में तो ये बड़े ओहदेदार दिखते थे लेकिन ग्वालियर की रियासत में प्रवेश करते ही ये शेर ढेर हो जाया करते थे। अपवाद को छोड़ दें तो सत्ता हो या संगठन अर्श से लेकर फर्श तक के सारे निर्णय महाराज अर्थात पहले माधव राव सिंधिया और उनके असामयिक निधन के बाद ज्योतिरादित्य सिंधिया की मर्जी से ही होते थे।
इस तरह यहां पनपी महल कांग्रेस के ताप में असली और पुराने कांग्रेसियों का तो मानो वजूद ही खाक हो गया। कभी इंदिरा गांधी के नजदीक रहे राजेन्द्र सिंह बाबू हो, भगवान सिंह यादव हो या फिर अन्य ऐसे नेता जिन्हें महल पसंद नहीं करता था संघर्ष करते-करते थक गए। चाहते हुए भी अर्जुन सिंह हो या दिग्विजय सिंह उन्हें सत्ता या संगठन में खास मुकाम नहीं दे पाते थे। सिंधिया समर्थकों की अमरबेल ने कांग्रेसियों की बगिया को पनपने नही दिया।
सिंधिया की वजह से खाली हुई जगह
बीते दो वर्ष पहले अचानक कांग्रेस में भूचाल आ गया। लोकसभा में सिंधिया परिवार के मुखिया को मिली हार ने पूरे महल को हिला दिया। इधर दिग्विजय और कमलनाथ भी सिंधिया का एकाधिकार तोड़ने में जुटे थे। आखिरकार परिस्थितियां ऐसी बदलीं कि मध्यप्रदेश की राजनीति में ऐतिहासिक भूचाल आ गया। ज्योतिरादित्य सिंधिया ने दिग्गी-कमल की जोड़ी को सबक सिखाने के लिए अप्रत्याशित रूप से कमल का हाथ थामने का निर्णय ले लिया। अपने समर्थक विधायकों से इस्तीफा दिलवाकर ज्योतिरादित्य सिंधिया ने पन्द्रह वर्ष के लंबे संघर्ष के बाद प्रदेश में कमलनाथ के नेतृत्व में लौटी सरकार को गिराकर एक बार फिर शिवराज के नेतृत्व में बीजेपी सरकार की वापसी करा दी।
अब तिनकों से आस
प्रदेश में 1967 के बाद आए इस बड़े राजनीतिक भूचाल में कांग्रेस की सरकार ही नहीं गई बल्कि ग्वालियर, भिण्ड, मुरैना, शिवपुरी, श्योपुर, अशोक नगर और गुना से लेकर मालवा के अनेक क्षेत्रों और भोपाल से सटे इलाकों में कांग्रेस को तगड़ा झटका लगा। खासकर ग्वालियर में तो मौजूदा कांग्रेस तकरीबन खाली ही हो गई। लेकिन कमलनाथ और दिग्विजय सिंह अपने प्रतिद्वंद्वी ज्योतिरादित्य सिंधिया को उनकी ही मांद में मात देने की रणनीति पर काम कर रहे हैं। इसके लिए इन्होंने एक राय होकर ग्वालियर में अपनी सियासी चौसर बिछाकर अपनी गोटियां खेलना शुरू कर दिया है। इसका नजारा बीते सप्ताह से साफ नजर आने लगा। पहले कमलनाथ ग्वालियर आए और वे कांग्रेस और यूथ कांग्रेस के नेताओं ही नहीं पुराने कार्यकर्ताओं के घर गए। इसके दो दिन बाद दिग्विजय सिंह का व्यस्त दौरा आ गया। वे भी दिन भर पुराने नेताओं की ड्योढ़ी पर दस्तक देते रहे। कमलनाथ जहां कल्याण कंसाना के घर गए, जिनकी मार्किट सिंधिया के बीजेपी में जाने के बाद गिरा दी गई थी क्योंकि उन्होंने बीजेपी में जाने की जगह कांग्रेस में रहना तय किया था। वहीं कमलनाथ एनएसयूआई नेता शिवराज यादव के घर गए, जो सिंधिया का पुतला जलाते समय हुई छीनाझपटी में एक पुलिस कर्मी के घायल होने के मामले में कई माह में जेल काटकर विवाह के लिए जमानत पर छूटे हैं। इनके अलावा दोनों नेता लगभग एक दर्जन लोगों के घर गए। ऐसा पहली बार ही हो पा रहा था। दिग्विजय सिंह ने सीधे सिंधिया पर निशाना साधा। बोले - कांग्रेस के समय सड़क पर उतरने की धमकी देने वाले सिन्धिया अब कहां है? लोग परेशान है तो वे सड़क पर क्यों नहीं उतर रहे?
सोची- समझी रणनीति
यदि कांग्रेस से जुड़े सूत्रों की माने तो ग्वालियर चंबल अंचल में अब सिंधिया के खिलाफ मजबूत कांग्रेस खड़ी करने की, जो रणनीति बनी है। उसमें उन नेताओं या उनके परिजनों को इकट्ठा करने की योजना है, जो सिंधिया के प्रभाव के कारण पूरी तरह हासिए पर धकेले गए थे। इनसे उम्मीद है कि वे न डरेंगे और न बिकेंगे। नेता प्रतिपक्ष पद पर डॉ गोविंद सिंह की ताजपोशी भी इसी योजना का हिस्सा मानी जा रही है। इसी के तहत अशोक सिंह का पीसीसी में बढ़ता कद नजर आ रहा है। इस योजना में सिर्फ दिग्गी और कमलनाथ ही नहीं अजय सिंह राहुल भैया भी हिस्सेदार हैं। वे भी ग्वालियर आए और अनेक नेताओं से मिलने उनके घर गए। इन दौरों की खास बात ये रही कि इनमें किसी नेता ने कोई राजनीतिक और बड़े कार्यक्रम में हिस्सा नहीं लिया। केवल दिग्विजय सिंह इंटक के स्थापना दिवस कार्यक्रम में शरीक हुए। दिग्गी-कमल और राहुल की इस युति द्वारा अब सिंधिया द्वारा खाली करके छोड़ी गई पार्टी को अपने भूले-बिसरे तिनके-तिनके नेताओं को पुनर्स्थापित करने की मुहिम कितनी कारगर होग़ी? इसका जबाब मिलने में तो अभी वक्त लगेगा।