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GWALIOR. आज शनिश्चरी अमावस्या पर ग्वालियर से बाइस किलोमीटर दूर मुरैना जिले के ग्राम ऐंती में स्थित देश के सबसे प्राचीन त्रेता युगीन शनि मंदिर पर आज दो लाख से ज्यादा श्रद्धालुओं ने पहुंचकर भगवान् की शनि की परम्परागत ढंग से पूजा अर्चना की। इस मंदिर पहर पहुंचकर पूजा करने की ख़ास महत्ता है खासकर जिनके ऊपर शनि की ढैया या साढ़ेसाती चल रही हो मान्यता है कि यहाँ दर्शन कर पूजा करने से शनि का प्रकोप कम हो जाता है। वैसे तो हर शनिवार को ही यहाँ देशभर से बड़ी संख्या में श्रद्धालु यहाँ पहुँचते है लेकिन शनिश्चरी अमावस्या पर यहाँ लाखो लोगों की भीड़ जुटती है इसके लिए व्यापक बंदोवस्त करना पड़ते है।
एक रात पूर्व हुआ था अभिषेक
शनिश्चरी अमावस्या के एक दिन पहले दंडाधिकारी शनि भगवान की प्रतिमा का विधि -विधानपूरवक अभिषेक किया गया था। इस मौके पर पुजारियों के अलावा चुनिंदा लोगों के ही मौजूद रहने की इजाजत रही है। अभिषेक के बाद तड़के से ही भगवान् के पट खोल दिए जाते हैं जहाँ श्रद्धालु दर्शन कर पूजा करते है और सरसों का तेल भगवान् को अर्पण कर उन्हें अपने प्रकोप से बचाने की प्रार्थना करते हैं। मान्यता है कि यहाँ दर्शन करने से शनि का प्रकोप कम हो जाता है .हर बार की तरह इस बार भी शनिचरी अमावस्या पर यहाँ दर्शन करने के लिए पहुंचने वालों की भीड़ लाखों में रही .शनि का आशीर्वाद लेने के लिए यहाँ श्रद्धालु एक दिन पहले से ही पहुंचने लगे थे।
क्यों ख़ास है यह मंदिर
शनि नामक इस पर्वत का खास महत्व है। मान्यता है कि यह त्रेतायुगीन है और किंवदंती है कि कि रावण कि कैद से मुक्ति पाने के बाद शनि महाराज ने इसी शनि पर्वत पर आकर सबसे पहले अपना आशियाना बनाया था ,तभी से इसका महत्त्व बढ़ गया /माना जाता है कि शनिचरा पर पूजा और परिक्रमा करने से शनि के प्रकोप से मुक्ति मिलती है और लोगों कि मुरादें भी पूरी होती हैं। ये भी किंवदंती है कि जब ग्रहों की रचना हुई तभी ये मंदिर बन गया था। भक्त इसे ब्रह्मा विष्णु और महेश से भी पहले का मानते है। हालांकि पहले इस पर्वत की ही पूजा होती थी क्योंकि शनि ने रवां के यहाँ से आने के बाद अपने निर्बल काल में इसी पर्वत पर रहकर अपने को फिर से शक्तिशाली बनाया बाद में यहाँ मंदिर भी स्थापित किया गया। यहाँ भगवान शनि की अत्यंत प्राचीन पाषाण प्रतिमा है। पुरातत्वविदों का दावा है कि यह प्रतिमा छठवीं सदी की है लेकिन पुरातनपंथियों का दावा और मान्यता इससे अलग ही है। उनकी मान्यता है यह पांडवों द्वारा सेवित है और राज विक्रमादित्य द्वारा प्रतिष्ठित है। उनके अनुसार इसका उल्लेख हमारे प्राचीन धार्मिक ग्रंथों में मिलता है ख़ास उल्लेख हरवंश और मत्स्य पुराण में विस्तार से मिलता है। उनके अनुसार यहाँ पर मूर्ति पूजा का आरम्भ द्वापर युग में हुआ।
ऐसे करते है लोग पूजा
शनि मंदिर पहुँचने वाले श्रद्धालुओं को अलग तरह के पूजा विधान से गुजरना पड़ता है। यहाँ पहुँचने वाले शनि ग्रसित श्रद्धालु मुंडन कराकर पुराने वस्त्र और जूतों आदि का त्याग करते है फिर कुंड में स्नान कर शनि मंदिर में पूजा -अर्चना करते है और शनि पर्वत की परिक्रमा करते है। यहाँ पूजा में ख़ास तौर पर भगवान् शनि पर सरसों के तेल का अभिषेक किया जाता है। शनिश्चरी अमावस्या पर यहाँ हजारों टन तेल की खपत होती है।
देशभर के शनि मंदिर की शिला यहीं से गई
महाराष्ट्र के शिंगणापुर सहित एक अनेक राज्यों में शनिदेव के बड़े और छोटे मंदिर स्थापित है। अनेक स्थानों पर नवग्रह मंदिर भी है लेकिन उनमें पूजा तभी फलीभूत होती है जब शनि शिला इसी शनि पर्वत से लेकर जाई जाए। यही वजह है कि सभी शनि मंदिरों में पूजी जाने वाली शिला इसी पर्वत से लेकर जाए जाती है।