सुर्खियों में कन्यादान: महिला IAS ने परंपरा तोड़ी तो विद्वान ने क्या तर्क दिए, पढ़ें खबर

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सुर्खियों में कन्यादान: महिला IAS ने परंपरा तोड़ी तो विद्वान ने क्या तर्क दिए, पढ़ें खबर

भोपाल. हाल ही में IAS अफसर तपस्या सिंह परिहार (Tapasya sungh parihar) ने अपने साथी रहे गर्वित गंगवार (IFS) से शादी की। तपस्या मध्य प्रदेश के नरसिंहपुर के जोबा गांव की रहने वाली हैं। गांव में 16 दिसंबर को तपस्या का रिसेप्शन हुआ। तपस्या की शादी में सबसे ज्यादा चर्चा इस बात की रही कि उन्होंने कन्यादान ना कराने का फैसला लिया। तपस्या के इस फैसले को उनके और ससुराल वालों ने भी स्वीकार किया। तपस्या ने UPSC-2018 में 23वीं रैंक हासिल की। इसको लेकर द सूत्र ने धर्म के जानकार डॉ. पं. सुरेंद्र बिहारी गोस्वामी से बात की और कन्यादान, उसकी परंपरा के बारे में जाना...आप भी पढ़िए...

अगर पिता की सहमति तो कन्यादान की जरूरत ही नहीं- गोस्वामी

पं. गोस्वामी ने कहा कि इन लोगों ने उस दान का मतलब ही नहीं समझा। दान एक शब्द है। इसका कई जगह प्रयोग कर सकते हैं। हर जगह उसका अर्थ और मीमांसा अलग हो जाती हैं। इससे बड़ा दान विश्व में दूसरा कोई नहीं है। ये दान कोई भिक्षा नहीं है। इसे पाने वाले को परम सौभाग्य तो कन्यादान (Kanyadan controversy) देने वाले को अश्वमेध यज्ञ का फल मिलता है। कन्यादान के सामने कोटिश: अश्वमेध यज्ञ फीके पड़ जाते हैं। इस बेचारी (तपस्या) ने सोचा होगा कि अपने पिता को ये फल नहीं देना है। ऐसा लगता है कि वो अपने पिता से नाराज है।

इस लड़की को सनातन परंपरा के बारे में शायद पता ही नहीं। जब कई यज्ञ करते हैं, तब घर में कन्या उत्पन्न होती है। हमारे यहां संतान शब्द का उल्लेख मिलता है। संतान नपुंसक लिंग (Neutral Gender) का शब्द है। उसमें स्त्रीलिंग, पुल्लिंग शब्द (लड़का, लड़की नाम) तो हम लोगों ने दे दिए। ईश्वर कहते हैं कि संतान होना चाहिए। संतान होना भी ईश्वर की कृपा है, संतान ना होना भी ईश्वर की कृपा है। 

पाणिग्रहण का अर्थ ही पिता की सहमति है, चाहे कन्यादान हुआ हो या ना हुआ हो। अगर उसने (तपस्या) पिता की सहमति से विवाह किया है तो कन्यादान हो ही गया। पाणिग्रहण कन्यादान के बाद ही होता है। Little knowledge is always dangerous। लड़की का ऐसा करना दिखाता है कि उनका मन ICU में है। इनके मन ने श्रद्धा और विश्वास को ग्रहण नहीं किया। ये दर्प (घमंड) में हैं। शादी में पिता सामने खड़े हों, तो उनकी सहमति भी कन्यादान होती है। जब कृष्ण की रुक्मिणी से विवाह हुआ था तो रुक्मिणी के पिता भीष्मक हाथ पकड़कर कन्यादान करने नहीं आए थे। विवाह को हमारे यहां यज्ञ कहा जाता है। उस दौरान वरमाला पहनाना ही काफी होता है। लड़की ने जो किया वो छपास, वितंडा (विवाद) के लिए किया। उन्होंने नाम तपस्या है, लेकिन शापित जीवन जी रही हैं। उन्होंने अपने पिता के गौरव को धूमिल किया है। पाणिग्रहण का अर्थ ही कन्यादान होता है।

कब से शुरू हुई परंपरा

पं. गोस्वामी बताते हैं कि कन्यादान की परंपरा (विवाह परंपरा) शिव और पार्वती से शुरू हुई। शिव मृत्युलोक के देवता है, मृत्युलोक में ही रहते हैं, इसलिए भगवान विष्णु ने शिव से संसार में विवाह की पद्धति शुरू करने को कहा। तभी से ये परंपरा बन गई।  

तपस्या ने ये तर्क दिए

ये परिवार का फैसला था। जब मैं बड़ी हुई तो कई चीजों पर बात करते थे। ये चीज (कन्यादान) हमेशा से महिलाओं के खिलाफ लगी। समाज ने इस तरह का माहौल बनाकर रखा कि महिला को डॉमिनेट किया जाता है। इसी तरह से मुझे कन्यादान लगता है। इस बारे में पापा से बात होती थी। मैंने कह दिया था कि शादी होगी तो कन्यादान नहीं होगा। भले ही मेरे माता-पिता ने पाल-पोस कर बड़ा किया हो, पर मैं दान की वस्तु नहीं हूं। मेरे यहां तो कोई दिक्कत नहीं थी। जब पति यानी गर्वित के घर में बात (कन्यादान ना लेने को लेकर) की तो उन्हें भी कोई परेशानी नहीं हुई।

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