Sidhi. मध्यप्रदेश में शिवराज सरकार ने जिस तरह से तीसरी बार पावर में आते ही पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकार के फैसलों को बदलने का काम किया उससे और किसी को खुशी हुई हो या न हुई हो। शहर सरकार के लिए चुनावी तैयारी करने वाले जरूर खुश हुए थे। अब जबकि चुनाव की सुगबुगाहट शुरू हुई तो नगरीय निकाय चुनाव लड़ने वालों के उत्साह को सरकार ने ठंडा कर दिया है। पार्षदों के जरिए नगर पालिका और नगर पंचायत अध्यक्ष के चुनाव का मतलब है कि जो पैसा, बाहुबल से मजबूत होगा उसी के सिर ताज होगा।
जनता के बल पर जीतने की उम्मीदों पर फिरा पानी
कमलनाथ सरकार मेयर और नगर पालिका अध्यक्ष का चुनाव सीधे जनता से नहीं बल्कि निर्वाचित पार्षदों से कराने का फैसला ले चुकी थी, लेकिन तख्तापलट के बाद जैसे ही शिवराज सरकार ने कार्यभार संभाला वैसे ही इस फैसले को पलट दिया। ये अलग बात है कि सरकार तत्काल चुनाव नहीं करा पाई और चुनाव आरक्षण और कोर्ट के झमेले में पड़कर अभी तक लटका रहा। नगरीय निकाय चुनावों के सम्पन्न होने की अब सम्भावना तो प्रबल हो चली है पर चुनाव सम्बन्धी नए निर्णय पूर्ववर्ती सरकार के निर्णय 50 फीसदी ही बदले नजर आ रहे हैं। निगम चुनाव लड़ने वाले भले ही प्रत्यक्ष चुनाव से खुश हों पर नगर पालिका और नगर परिषद चुनाव लड़ने का जनता के बल पर सपना सजों रखे दावेदार तो जरूर निराश हुए हैं।
मतलब खर्चा बढ़ गया
चुनाव का मतलब बेतहाशा खर्च, लेकिन इसके बाद भी उनके लिए ज्यादा दिक्कत नहीं होती जो जनता से जुड़े रहते हैं। उनके दुख-दर्द के सहभागी बने रहते हैं। कई बार जनता ने पैसे वालों को किनारे का रास्ता दिखा दिया है, लेकिन ये तभी संभव हो पाता है जब जनता को सीधे मौका मिलता है। पार्षद या मेम्बरों के मामले में धनबल, बाहुबल ही अक्सर खेल कर जाते हैं।
तो ठगा गया ओबीसी वर्ग !
निकाय और पंचायत चुनाव इसलिए अटके रहे कि आरक्षण की गुत्थी नहीं सुलझ पा रही थी। कभी सरकार तो कभी विपक्षी दलों के नेता कोर्ट के चक्कर लगा रहे थे। इस दौरान आरोप-प्रत्यारोप का दौर भी चलता रहा। अंततः कोर्ट के आदेश पर चुनाव प्रक्रिया शुरू तो कराई गई लेकिन ओबीसी आरक्षण उनके समझ में नहीं आ रहा जो लम्बे समय से पैरवी करते रहे हैं। कांग्रेस नेता लोकनाथ सोनी कहते हैं कि सरकार खुद न तो चुनाव के पक्ष में रही और न ही आरक्षण के पक्ष में। जिला पंचायत के 17 वार्ड पर ओबीसी के खाते में एक ही आई। ऐसे ही जनपदों में भी हुआ है।