News strike:छात्रसंघ चुनाव होंगे? BJP और कांग्रेस में से किसे होगा फायदा, इस चुनावी माहौल में नारेबाजी की आवाज ज्यादा सुनाई देगी

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The Sootr CG
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News strike:छात्रसंघ चुनाव होंगे? BJP और कांग्रेस में से किसे होगा फायदा, इस चुनावी माहौल में नारेबाजी की आवाज ज्यादा सुनाई देगी

BHOPAL. ये कौन नहीं चाहता कि जब वो माइक थाम कर बोले तब उसकी आवाज को हर कान गौर से सुने। जब वो मार्च करता हुआ गलियारों से गुजरे तब हर छात्र की नजर उसकी बॉडी लेंग्वेज की तारीफ करती नजर आए। लीडरशिप क्वालिटी कैंपस के इन्हीं गलियारों से ही तो पनपती है। इसी पालने में उन पूतों के पांव भी दिख जाते हैं, जो आगे चल कर एक प्रॉमिसिंग राजनेता बनने के गुण रखते हैं। लेकिन एमपी में ऐसे जोशीले छात्र नेताओं की खोज कई सालों से बंद है। ये फैसला अक्सर बीजेपी सरकार का रहा है लेकिन इसका सबसे ज्यादा नुकसान सूबे में किसी ने भुगता है तो वो कांग्रेस पार्टी  है। एक बार फिर एनर्जेटिक युवा नेताओं की तलाश कांग्रेस में पूरी होती दिखाई नहीं दे रही। 





एमपी में प्रत्यक्ष प्रणाली से चुनाव होंगे





मध्यप्रदेश के कॉलेज कैंपस लंबे समय से छात्र संघ चुनावों की बाट जोह रहे हैं। लेकिन इस बार भी उनका इंतजार खत्म होता दिखाई नहीं दे रहा। फिलहाल छात्र संघ चुनाव होने पर ही संशय है। वो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष प्रणाली से होंगे, इस पर तो बहस और बाद में होगी। छात्र संघ चुनाव को लेकर इस बार भी सरकार का मूड पॉजिटिव नजर नहीं आ रहा है। उच्च शिक्षा मंत्री डॉ. मोहन यावद ने कोरोना का बहाना बनाकर ये साफ कह दिया है कि कोविड की स्थिति सामान्य होने के बाद ही इस पर कोई फैसला लिया जाएगा। प्रदेश में 8 सरकारी यूनिवर्सिटी हैं और 13 सौ से ज्यादा  प्राइवेट और सरकारी कॉलेज हैं। इन संस्थानों में क्लासेस शुरू हुए 1 महीने से ज्यादा का वक्त हो चुका है। कैंपस के गुलजार होते ही मध्यप्रदेश के पड़ोसी राज्य राजस्थान में सरकार ने छात्र संघ चुनाव की घोषणा कर दी है। यहां प्रत्यक्ष प्रणाली से चुनाव होंगे। 





चुनाव की संभावनाएं बहुत कम हैं



 



जबकि एमपी में 19 साल से प्रत्यक्ष प्रणाली से चुनाव नहीं हुए हैं। यहां 2003 में आखिरी बार प्रत्यक्ष प्रणाली से चुनाव हुए। उसके बाद से इस तरह चुनाव कराने की मांग लगातार खारिज ही होती रही है। अप्रत्यक्ष प्रणाली से भी आखिरी बार चुनाव 5 साल पहले 2017 में हुए थे। उसके बाद से कैंपस में चुनावी शोर पूरी तरह से खामोश है। इस बार भी चुनाव होने की संभावनाएं काफी कम है। हालांकि विद्यार्थियों ने अपने-अपने तरीके से मांग उठाना शुरू कर दी है। कांग्रेस समर्थित छात्र विंग एनएसयूआई ने चुनाव के लिए सिग्नेचर कैंपेन शुरू कर दिया है। दूसरी तरफ बीजेपी समर्थित छात्र विंग एबीवीपी ने भी प्रत्यक्ष प्रणाली से चुनाव की मांग तेज कर दी है। लेकिन जो रूख विभागीय मंत्री ने अपनाया उसे देखकर फिलहाल तो यही कहा जा सकता है कि इस बार भी छात्र संघ चुनावों का होना तकरीबन नामुमकिन ही है। 





नुकसान कांग्रेस को होता है





छात्र संघ चुनाव कराने या न कराने के पीछे भी बड़ी राजनीति है। कैंपस में होने वाली सियासी हलचलों ने देश को बड़े-बड़े राजनेता दिए हैं। चाहें बीजेपी के हों या फिर कांग्रेस के। कैंपस के कॉरिडर से सियासत के गलियारों तक ऐसे नेता पहुंचे हैं, जिनका नाम देश से लेकर विदेशों तक में पहचाना जाता रहा है। लेकिन अब कैंपस इलेक्शन न होने से कांग्रेस में नए नेताओं का अभाव साफ नजर आ रहा है। जबकि बीजेपी को छात्र संघ चुनाव न होने से खास फर्क नहीं पड़ा है लेकिन यंग लीडरशिप की कमी से कांग्रेस जूझती हुई साफ दिखाई दे रही है।





कांग्रेस में युवा नेताओं की कमी





छात्र संघ चुनाव की अहमियत वैसे तो कांग्रेस बीजेपी और अन्य दलों के लिए बराबर है। फिलहाल इसकी बात कांग्रेस और बीजेपी के संदर्भों में ही करते हैं। छात्र संघ चुनाव से कई युवाओं के भीतर छुपे नेतृत्व के गुणों की पहचान होती है। 19 साल से प्रत्यक्षी प्रणाली से चुनाव न होने की वजह से कोई ऐसा युवा सामने नहीं आ पाया, जो खुद को एक प्रोमिसिंग नेता साबित कर सके। इस बात से कांग्रेस काफी नुकसान में है। इस नुकसान को  समझने के लिए संगठन की अहमियत को समझना होगा। बीजेपी के पास एक सदा हुआ अनुशासित और सख्त संगठन है, जो युवा नेताओं को पार्टी लाइन के अनुसार ट्रेनिंग देकर उन्हें मांझता है। जबकि कांग्रेस में ऐसे संगठन का अभाव है। यही वजह है कि कांग्रेस के पास फायर ब्रांड युवा नेताओं की कमी साफ दिखाई देने लगी हैं। युवा नेता के नाम पर कांग्रेस के पास विक्रांत भूरिया बचे हैं। इसके अलावा जयवर्धन सिंह, कुणाल चौधरी हैं। जीतू पटवारी, उमंग सिंगार जैसे नेता अब युवा नेता होने की उम्र पार कर चुके हैं। हालांकि राजनीतिक उम्र के लिहाज से कुछ और समय तक उन्हें युवा नेता ही कहा जाता रहेगा। लेकिन ऐसा कोई नेता नजर नहीं आता जो युवा नेताओं का पुरजोरी के साथ नेतृत्व कर सके।





एमपी की राजनीति में छात्रनेताओं की भूमिका





छात्र संघ चुनाव का सूबे में ये हाल तब है, जब प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान खुद छात्र राजनीति के रास्ते सत्ता तक पहुंचे हैं। उन्हीं की तरह केंद्रीय कैबिनेट में मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर भी राजनीति के प्रखर नेता युवा विंग के जरिए ही बन सके। प्रदेश के बीजेपी अध्यक्ष वीडी शर्मा भी उन चुनिंदा नेताओं में से एक हैं, जिन्होंने अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद में नई जान फूंकी थी। प्रदेश में ऐसे नेताओं की फेहरिस्त लंबी है। न सिर्फ बीजेपी में, बल्कि कांग्रेस में भी। जिसमें सुमित्रा महाजन, कैलाश विजयवर्गीय, सज्जन सिंह वर्मा, जीतू पटवारी, मालिनी गौड़, अरविंद सिंह भदौरिया, कमल पटेल जैसे नेताओं का नाम शामिल है। राष्ट्रीय स्तर पर भी उन नेताओं की गिनती कम नहीं है जिन्हें राजनीति में तो झंडे गाड़े ही विदेशों में भी अपने नाम का परचम लहराया है।





ये नेता भी कभी छात्रनेता थे





जिसमें एक नाम बीजेपी की सुषमा स्वराज का है, आरजेडी के लालू प्रसाद यादव, कांग्रेस के अजय माकन, तृणमूल कांग्रेस की मुखिया ममता बनर्जी, मार्क्सवादी क्म्यूनिस्ट पार्टी के सीताराम येचुरी, जेडीयू के नीतीश कुमार, बीजेपी के अरूण जेटली, नितिन गडकरी, शरद पवार, अलका लांबा जैसे तमाम नेता छात्र राजनीति की गलियों की खाक छानकर इस मुकाम तक पहुंचे हैं। ऐसे प्रॉमिसिंग लीडर्स देने वाली छात्र राजनीति पर एमपी में लगातार रोक लग रही है। जाहिर है राजनीतिक मिजाज वाले छात्र नेताओं की तलाश पहले जैसी आसान नहीं रह गई है।





ये कहना बिलकुल गलत नहीं होगा कि एमपी में छात्र राजनीति के नाम पर ही राजनीति हो रही है। कहने को ये फैसला बहुत सीधा सा नजर आता है कि छात्र संघ चुनाव नहीं होंगे और अगर हुए तो अप्रत्यक्ष प्रणाली से होंगे। कैंपस इलेक्शन में आया ये ठंडापन अच्छे युवा नेताओं को संवरने नहीं दे रहा। जिसका खामियाजा यकीनन राजनीति को ही हो रहा है। खासतौर से कांग्रेस को जिसके पास 2024 के चुनाव के लिए भी एक एनर्जेटिक युवा चेहरा नजर नहीं आता। फिलहाल तो ये कमी बीजेपी के पास भी है लेकिन संगठन की पकड़ और प्रचार का काम पार्टी के लिए बड़ा बैकअप है। कांग्रेस तो इस मामले में भी बेबस है।



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