प्रवीण शर्मा, Bhopal. चलो, शहर ने मूसलाधार बारिश भी देख ली। वरना हम भोपाल वाले तो भदभदा के गेट खुलते ही भोपाल को चेरापूंजी मान बैठते थे। चौकी इमामबाड़े की गलियों में पानी भर जाए तो "जनाब" उसी बदबदाते नाले में कुर्सी डालकर अपनी बैठक से बारिश और बदइंतजामी की इंतहा बताते हुए सारे अधिकारियों की नाक में दम कर देते हैं। अलबत्ता 2006 की 14 अगस्त को जरूर शहर ने दशकों बाद कुछ ऐसा नजारा देखा था, जब लोगों को रात में ही अपना आशियाना डूबता नजर आने लगा था। उस मूसलाधार बारिश ने रातोंरात ही निचली बस्तियां तो छोड़िए, अट्टालिकाओं में रहने वालों ने भी राम-राम जपते हुए ही रात काटी थी। कई लोगों ने अपने हाथों से ही अपने सपनों के महल में छेद किए थे।
मगर अगले दिन नजारा कुछ ऐसा हो गया था मानो कुछ हुआ ही नहीं हो, बस हवा का एक तेज झोंका आया हो और शहर में कुछ देर ठहरकर निकल गया हो। मगर अब बीते तीन दिनों से लगातार हो रही बारिश ने शहर को उसकी औकात बता दी है। अमूमन बारिश होते ही मौसम का नजारा देखने निकलने और "मौसम" बनाने को आतुर होने वाले लोगों का भी अब मौसम बिगड़ने लगा है। बिना बिजली के सारी रात काटने के बाद अब दिन भी किसी रात से कम नहीं लग रहा है। निचली एवं झुग्गी बस्तियों और वीआईपी इलाके के ठाठ बताने वाली लिंक रोड नंबर एक और वीआईपी रोड सभी की आज एक ही गत है। ये सड़कें भी जलमग्न हैं तो बस्तियों में भी लोग संकट से बचने की कवायद में जुटे हुए हैं। आधे से ज्यादा शहर में लोग सारी रात बिजली विभाग के कॉल सेंटर को ही टटोलते रहे। फिर रह-रहकर डरा रहे हवा-पानी से पार पाने के लिए दर-ओ-दीवार में सिमटे अधिसंख्य जन अपने परिजन से बिजली-बरसात के हालचाल जानते हुए बैठे रहे, ताकि दिल बहलता रहे और ये रात भी कट जाए।
बिजली गुल, दम तोड़ गई मोबाइल की बैटरी
इस बीच मोबाइल की बैटरी भी डराने में पीछे नहीं रही। किसी भी पल दम तोड़ने की हालत में पहुंच रही मोबाइल की बैटरी को देख लोग बात भी अपने दिल की गहराई तक नहीं कर सके। पहाड़ सी यह रात केवल भोपाल ही नहीं, बल्कि प्रदेश के अधिकांश गांव, शहर और बस्तियों में कटी है। बीते सप्ताह जो 11 जिले पानी के लिए रो रहे थे, वे भी अब दो दिन से पानी-पानी है, वहां भी इतना पानी है कि किसान, मजदूर, कारोबारी, व्यापारी से लेकर वि़द्यार्थी तक घर ही बैठे हैं। खेत से लेकर खेल मैदान तक पानी भरा है तो संडे के हाट-बाजार पर भी पानी फिर गया है।
नदियां दिखा रहीं इंद्र की नाराजगी
लगातार बारिश के कारण सूबे के सारे डैम प्याले से छलक पड़े हैं। छोटे-बड़े सारे डैम के मोहरे (गेट) कई-कई बार उठाए जा चुके हैं। अब तो ये मूसलाधार बारिश इन बांधों के गेटों को आराम करने का मौका ही नहीं दे रही है तो इनसे लगातार मिल रही जल राशि से गजगामिनी सी चल रही तमाम छोटी-बड़ी नदियां भी अब लोगों को इंद्र की नाराजगी की वाहक लगने लगी हैं। वैसे तो हम लोग प्रकृति के हर अंश में भी किसी न किसी देवता को देखते हैं। नदियां मां स्वरूपा हैं तो काले मेघों को भी इंद्र की सवारी मानते हैं। वहीं मेघों से बरसती बूंदों को इंद्र का प्रसाद मानकर मान हम देते हैं। मगर सावन की जो झड़ी मन को भाती है वही भादों आते-आते भयभीत करने लगती है।
मेघों को फिर रास आया एमपी
1600 साल पहले जब शकुंतला का सौंदर्य बढ़ाने वाली सावन की झड़ी कालिदास को अभिज्ञान शाकुंतलम जैसा अमर नाटक लिखने को मजबूर कर देती हैं तो भादों में भरभरा कर गिरने वाली बारिश जैसी आषाढ़ के पहले दिन की भारी बूंद महाकवि को मेघदूत जैसा महाकाव्य दे जाती हैं, जो उन्हें विंध्याचल पर्वत की याद दिलाती हैं तो घटाटोप बारिश करने वाले मेघों को महाकवि कालिदास मध्यप्रदेश के उज्जैन और विदिशा की दिशा दे देते हैं। यक्ष ने मेघ के लिए प्रार्थना की थी कि जैसे वह अपनी प्रेयसी यक्षिणी का वियोग सह रहे हैं, वैसे मेघ को कभी भी अपनी प्रेयसी बिजली से दूर न रहना पड़े।
बस करो, अब मान जाओ
बिजली युग के हम वासी भी यही मानते हैं कि मेघ कभी भी अपनी प्रेयसी से अलग न हो, लेकिन रातभर भोपाल में दोनों वियोग सहते रहे तो अब मेघ का पूरा दिन भी अपनी प्रेयसी बिजली के इंतजार में ही बीत रहा है। शाम होने को है लेकिन मेघ बरस रहे हैं और लोग उसकी प्रेयसी बिजली के बगैर ही दो-चार हुए जा रहे हैं। जल से भरा बादल पूरी मस्ती में मतवाले हाथी पर चढ़ा हुआ है। बादलों की गरज के नगाड़े बज रहे हैं, लेकिन पता नहीं कहां गुम है दामिनी। राजसी ठाठ-बाट वाली राजधानी में यह हाल है तो ठेठ गांव की कल्पना ही सिहरन पैदा करने के लिए काफी है। मौसम विभाग की लाल-पीली धारियां हर खास ओ आम की पेशानी पर हर पल नई धारियां बना रही हैं। सभी के मुंह से अब यही निकल रहा है कि बस करो बदरा। हमेशा यादों में तैरते रहेगी भादों की ये बारिश। रहम करो। गरीबों पर ही सही। कम से कम आंखों को तो सूखा ही रहने दो। अब तुम न थमे तो ये आंखें भी छलक जाएंगी। कोई पोंछेगा भी तो क्यों? अब तो हर कोई दुखी है। मान जाओ ना....।