जयराम शुक्ल, मध्यप्रदेश में पंचायत व स्थानीय निकायों को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने 50 प्रतिशत की सीमा पार न करने की शर्त पर आरक्षण बहाल कर दिया है, फिर भी पिछड़े वर्ग की राजनीति को लेकर मचा घमासान नीचे उतरने का नाम ही नहीं ले रहा है। आइए जानते हैं कि मध्यप्रदेश की राजनीति में दलित और पिछड़े वर्ग की गोलबंदी कैसे शुरू हुई? और कैसे यहां तक पहुंची। दरअसल "पिछड़ा मांगे सौ में साठ" वाले लोहिया नारे की आजमाइश विन्ध्य से शुरू हुई। और आगे काशीराम ने इसे दलितों के साथ जोड़कर आरक्षण की राजनीति की इबारत बदलने के लिए मजबूर किया। समझते हैं इसकी पूरी कहानी।
आजादी के बाद विन्ध्य लोहिया-जयप्रकाश और आचार्य नरेन्द्र देव जैसे दिग्गज समाजवादियों की प्रयोगशाला बन गया। यहां दलित और पिछड़ों को गोलबंद करके जमीदारों के खिलाफ आंदोलन शुरू हुआ। 1952 में हुए पहले आम चुनाव में इसका असर दिखा। जवाहरलाल नेहरू का तिलस्म और कांग्रेस की आंधी विन्ध्य में आकर रुक गई। विन्ध्यप्रदेश में समाजवादी पार्टी ने कांग्रेस को हर सीट पर कांटे की टक्कर दी। 52 के चुनाव में सीधी जैसे अत्यंत पिछड़े जिले में कांग्रेस का सूपड़ा साफ हो गया। लोकसभा समेत विधानसभा की सभी सीटों में कांग्रेस को पछाड़ते हुए सोशलिस्ट पार्टी ने अपना लाल-हरा झंडा बुलंद किया। सिंगरौली सीट से जीतीं सुमित्रा खैरवार को लोहिया ने डॉ. राजेन्द्र प्रसाद के मुकाबले राष्ट्रपति का उम्मीदवार घोषित कर दिया। यद्यपि यह घोषणा देश के सबसे शोषित वर्ग को बराबरी में खड़ा करने के संदेश हेतु प्रतीकात्मक थी।
1957 में विन्ध्यप्रदेश के विघटन के पीछे सीधी का चुनाव परिणाम ही प्रमुख था, जिसने कांग्रेस और नेहरू के मुकाबले विश्वव्यापी सुर्खियां बटोरी थी। यहां समाजवादी आंदोलन का आवेग इतना प्रबल था कि यदि विन्ध्यप्रदेश बना रहता तो केरल के बाद यह दूसरा प्रदेश होता, जहां गैर कांग्रेस सरकार गठित होती। बहरहाल सोशलिस्ट पार्टी खंडित-विखंडित होते हुए भी 1972 तक ताकत बनी रही। इसी साल लोहिया के अनुयायियों ने चंदौली सम्मेलन में कांग्रेस का दामन थाम लिया।
फिर समाजवादी आंदोलन का पिछड़ों पर इतना व्यापक और गहरा असर था कि कांग्रेस को इस वर्ग से उम्मीदवार तक ढूंढे नहीं मिलते थे। राजमणि पटेल जो आज राज्यसभा सदस्य हैं, 1972 में कांग्रेस ने तब टिकट दिया जब वे कॉलेज में पढ़ रहे थे। पटेल भी मूलतः समाजवादी और चंद्रप्रताप तिवारी के शिष्य थे। युवा राजमणि पटेल ने विधानसभा चुनाव में समाजवादी दिग्गज यमुनाप्रसाद प्रसाद शास्त्री को हरा दिया। बाद में अर्जुन सिंह सीधी में इन्द्रजीत कुमार पटेल को खोज लाए, जिन्होंने 1977 से 2008 तक लगातार कांग्रेस का विधायक बने रहने का कीर्तिमान कायम किया। राजमणि और इन्द्रजीत विन्ध्य की राजनीति में कांग्रेस के पिछड़ा वर्ग के तुरुप के इक्के थे लेकिन ये अपनी सीट से बाहर चल नहीं पाए। कांग्रेस से पिछड़ों की स्वाभाविक अदावत बनी रही।
1985 में टर्निग प्वाइंट तब आया जब काशीराम ने बहुजन समाज पार्टी गठित की और उन्होंने भी लोहिया की भांति विन्ध्य को अपनी राजनीतिक प्रयोगशाला बनाया। समाजवाद से दीक्षित पिछड़ा मौके की तलाश में था ही काशीराम की वजह से दलित भी जुड़ गए। दलित और पिछड़ा वर्ग की यह गोलबंदी 1989 में तब राष्ट्रीय सुर्खियों में छाई, जब विमला सोंधिया जैसी अनाम उम्मीदवार ने रीवा लोकसभा की सभी विधानसभा सीटों में कांग्रेस उम्मीदवार रीवा महारानी प्रवीण कुमारी को वोटों के मामले में पीछे छोड़ दिया। यद्यपि इस चुनाव में जीते यमुनाप्रसाद शास्त्री जो कि जनता दल के उम्मीदवार थे। विमला सोंधिया पिछड़ा वर्ग की थीं और उन्हें मिले वोट ने पिछड़ा-दलित गठबंधन को फौलाद की तरह मजबूत बना दिया जिसका परिणाम आगे आने वाला था।
मंडल कमीशन की रिपोर्ट जाहिर होने और पिछड़ावर्ग को 27 प्रतिशत आरक्षण देने के केन्द्र के फैसले के बाद जातीय ध्रुवीकरण को पंख लग गए। 1990 के विधानसभा चुनाव में बसपा ने जयकरण साकेत से अपना खाता खोला और इसके बाद जो बढ़त ली वह 2003 तक यानी कि पिछड़े वर्ग की ही उमाभारती के अभ्युदय तक बढ़त बनाए रखा। इस बीच हुए हर चुनाव में विन्ध्य में पिछड़े और दलित की गोलबंदी ने अपना वर्चस्व बनाए रखा।
दलित-पिछड़ा गोलबंदी की दृष्टि से 1990 से 96 का समय बेहद महत्वपूर्ण रहा। 1991 के लोकसभा चुनाव में बसपा के भीम सिंह ने तीन दिग्गज नेताओं श्रीनिवास तिवारी (कांग्रेस) यमुनाप्रसाद शास्त्री (जनता दल) कौशल प्रसाद मिश्र (बीजेपी) को हरा दिया। जाति आधारित राजनीति की यह पहली घटना थी, बसपा का पहले सदस्य के तौरपर भीम सिंह ने लोकसभा में प्रवेश किया। आगे चलकर यह गोलबंदी अंधड़ में बदल गई। रामानंद सिंह जैसे समाजवादी दिग्गज अपने ही ड्राइवर गणेश बारी (बसपा) के मुकाबले 18 हजार मतों से हार गए। समूचे विन्ध्य में पिछड़े वर्ग की राजनीति की ऐसी धूम मची कि 1996 में सतना के लोकसभा मैदान में एक नौजवान सुखलाल कुशवाहा ने पूर्व मुख्यमंत्रियों अर्जुन सिंह और वीरेन्द्र कुमार सखलेचा जैसे दिग्गजों को धूल चटा दी। बुद्धसेन पटेल और देवराज दोनों क्रमशः 1996 व 2008 में रीवा से बसपा के सदस्य रहे। अब बुद्धसेन भाजपा में व देवराज कांग्रेस में हैं।
समाजवादी लस्त हो चुके थे और कांग्रेस पस्त। बीजेपी के रणनीतिकारों ने पैतरे बदलते हुए संगठन को ब्रह्मण-बनिया के वर्चस्वजाल से निकालकर पिछड़ों के हाथों देदी। सतना के रामानंद सिंह ने बीजेपी का हाथ थाम लिया, उनके पीछे गणेश सिंह और विन्ध्य के कई तमाम नेता बीजेपी से जुड़ गए। विन्ध्य की राजनीति में समाजवादियों का आधार बीजेपी ने खींच लिया और प्रकारांतर में शिवराज सिंह चौहान ने चतुराई के साथ बसपा का बेसवोट (अनुसूचित जाति) को भी मुफ्त वाली योजनाओं का लालीपॉप दिखाकर जोड़ लिया। 2018 के विधानसभा चुनाव में दलित-पिछड़ों की गोलबंदी बीजेपी के पाले में दिखी। जब विपरीत परिस्थितियों में भी बीजेपी ने 30 में से 24 सीटें जीतकर कांग्रेस को विन्धभूमि से बेदखल कर दिया।
लेकिन पिछड़ों की राजनीति का यह गठजोड़ आगे ऐसा ही रहेगा जरूरी नहीं। ये चौदह-छब्बीस-पैतीस की राजनीति ने भ्रमजाल सा रच दिया है। भाजपा वाला दाँव अब कांग्रेस भी चल रही है। आगे आने वाले चुनाव परिणामों से तस्वीर साफ होगी.. कि पिछड़ों की राजनीति ने करवट ली या भाजपा की सेज पर वैसे ही सुस्ता रही है।