रौद्र नर्मदा को शांत करने शंकराचार्य ने ओंकारेश्वर में की थी नर्मदाष्टक की रचना

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Rahul Garhwal
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रौद्र नर्मदा को शांत करने शंकराचार्य ने ओंकारेश्वर में की थी नर्मदाष्टक की रचना

जयराम शुक्ल, Bhopal. 'त्वदीय पाद पंकजम नमामि देवि नर्मदे'। मन को मां नर्मदा के प्रति आस्था से भर देने वाली ये पंक्ति नर्मदाष्टक की है। आज नर्मदाष्टक की रचना करने वाले आदिगुरू शंकराचार्य की जयंती है। आदि शंकराचार्य ने मां नर्मदा के रौद्र रूप को शांत करने के लिए मध्यप्रदेश के ओंकारेश्वर में ही नर्मदाष्टक की रचना की थी। छोटी-सी उम्र में वेदांत, उपनिषद देने वाले केरल के आचार्य शंकर को शंकराचार्य बनाने वाली पवित्र धरा मध्यप्रदेश की है। वे अमरकंटक के रास्ते मध्यप्रदेश पहुंचे थे। ओंकारेश्वर में ही उन्हें आचार्य शंकर से शंकराचार्य बनाने वाले गुरू गोविंदपादाचार्य के दर्शन हुए। 





साक्षात भगवान शंकर के अवतार आदिगुरू शंकराचार्य





अपने देश की सनातन संस्कृति के अविरल प्रवाह की प्रशस्ति के लिए सर्वप्रिय गीत, सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा की एक पंक्ति है- कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी, सदियों रहा है दुश्मन दौर-ए-जहां हमारा। यूनान, मिस्र, रोम सभी मिट गए काल के प्रवाह के साथ और हमारी सनातन संस्कृति सृष्टि की रचना के समय से अब तक निरंतर चलती चली आ रही है, क्यों ? कवि ने ये जो कुछ बात का संकेत किया है ये कौन-सी बात है ? यह जिज्ञासा हम सभी के अवचेतन मन में है।





मैं समझता हूं कि ये जो कुछ बात है इसके पीछे ही खड़े हैं आदिगुरू शंकराचार्य जी। साक्षात भगवान शंकर के अवतार। गीता में धर्म की हानि होने पर ईश्वर के मनुष्यरूप में अवतार का वर्णन है। त्रेता में राम और द्वापर में कृष्ण का अवतार हुआ। इनके जन्म की पृष्ठभूमि में राक्षसी शक्तियों का अत्याचार, अनाचार, सामाजिक पतन था। धरती में चारों तरफ हाहाकार मचा था। इन दोनों ईश्वरीय अवतारों ने मनुष्य रूप धर जग को मुक्ति दिलाई। ईश्वर अंश होने के बावजूद दोनों ने मनुष्य रूप में जितने कष्ट होते हैं उसको भोगा। किसी चमत्कार से नहीं बल्कि अपने मानवीयोचित पराक्रम से समाज की आदर्श व्यवस्था कायम की।





अलौकिक शंकराचार्य





मनुष्य कामना करता है कि जब उसके प्राण निकले तो मुंह से गोविंद का नाम निकले राम का नाम निकले। गांधी जी हे राम का उच्चारण करते हुए इस लोक से चले गए। राम और कृष्ण भगवान विष्णु के अवतार थे। मनीषियों ने जगदगुरू शंकराचार्य को साक्षात शंकर का अवतार माना है। आचार्य शंकर की अलौकिकता उनके जन्म संन्यास की दीक्षा से लेकर महाप्रयाण तक प्रकट रूप से रही।





कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी





राम और कृष्ण के अवतार तो समय की याचना के आधार पर हुए, पर आचार्य शंकर का अवतार पूर्वाभाषी था, मैं ऐसा मानता हूं। आठवीं शताब्दी के पूर्व भारतभूमि में जो कुछ घटा वह यहीं की सनातन संस्कृति के गर्भ से प्रस्फुटित हो रहा था। एक तरह से वह वेदांत दर्शन का ही विस्तार था चाहे वह सिद्धार्थ का गौतमबुद्ध बन जाना हो या जैनमत का प्रादुर्भाव। विदेशी आक्रांताओं के हमले आठवीं सदी के बाद से शुरू हुए। आचार्य शंकर के जन्म लेने के बाद। ये सभी हमले राज्य के हरण से ज्यादा सांस्कृतिक, धार्मिक हमले थे। यवन, तुर्कों और मुगलों के हमले धर्म के विस्तार को लेकर हुए। हमलावरों ने मंदिर, आश्रम, वैदिक साहित्य को अपना निशाना बनाया। सभी की कोशिश थी कि भारत भूमि की सनातनी संस्कृति का कहीं नामोनिशान न रह जाए। वेद-वेदांत दर्शन के केंन्द्र नालंदा, तक्षशिला को आग के हवाले कर स्वाहा कर दिया। मुगलों के बाद अंग्रेजों का आना भी व्यवसायिक से ज्यादा धार्मिक था। वे चर्च और पादरी साथ लेकर आए। उनकी नीयति का अंदाज इसी से लगा सकते हैं कि उनके सबसे ज्यादा निशाने पर जगदगुरु शंकराचार्य की जन्मभूमि केरल ही रही। जिस केरल की भूमि सें सनातन धर्म पुनः आलोकित हुआ, पूरे देश में फैला अंग्रजों ने ईसाइयत के विस्तार के लिए उसी को चुना। इन सबके बाद भी कुछ बात कि हस्ती मिटती नहीं हमारी।





आचार्य शंकर ने 16 साल की उम्र में की वेदांत दर्शन की व्याख्या





जब इस हस्ती की रक्षा के लिए साक्षात भगवान शंकर ही अवतरित होकर आ गए तो फिर सृष्टि में ऐसा कौन है जो इसे मिटा दे। आचार्य शंकर ने 16 साल की उम्र में वेदांत दर्शन की व्याख्याएं कर दीं, सहस्त्राधिक रचनाएं रच दीं। देश के चारों कोनों पर चार पीठों की स्थापना करके भारतीयता को एक सूत्र में पिरो दिया। ये चारों धाम का जब तक अस्तित्व रहेगा। हर सनातनी के ह्रदय में जब तक आचार्य शंकर का वास, मस्तिष्क में उनका दर्शन और उपदेश, आचरण में उनके द्वारा निर्धारित मर्यादाएं बनी रहेंगी तब तक हमारी सनातनी संस्कृति का प्रवाह अविरल रहेगा। भौतिक बाधाएं चाहे कितनी ही न खड़ी कर दी जाएं।





मध्यप्रदेश प्रदेश की भूमि धन्य और पवित्र





मध्यप्रदेश प्रदेश की भूमि धन्य और पवित्र है। आचार्य शंकर का समूचा वांगमय यहीं रचा गया,ओंकारेश्वर में गुरुगोविंदपादाचार्य के सानिद्ध में। मध्यप्रदेश की भूमि उनकी गुरुभूमि है। यहीं से शंकर दिग्विजय यात्रा शुरू हुई। मालवा के प्राख्यात विद्वान मंडन मिश्र से शास्त्रार्थ यहीं महिष्मति जिसे आज महेश्वर कहा जाता है। इस कड़ी में हमारी विन्ध्यभूमि की महत्ता को आचार्य शंकर के श्रीचरणों ने और बढ़ा दी। विद्वानों के शोध बताते हैं कि उनकी दक्षिण से उत्तर की यात्रा का वही पथ था जो भगवान राम का चित्रकूट से दंडकारण्य का था। वे अब बस्तर की इंद्रावती और महानदी को पार करते हुए अमरकंटक पहुंचे। यहां मां नर्मदा का ध्यान किया और यहीं से प्रदक्षिणा करते हुए ओंकारेश्वर पहुंचे। ओंकारेश्वर में गुरु गोविंदपादाचार्य के दर्शन कर उनका शिष्यत्व ग्रहण किया। वेदांतसूत्र, उपनिषदों के भाष्य और प्रस्थानत्रयी की रचना यहीं हुई। विद्वानों के अनुसार 16 वर्ष की आयु में ये सब रचकर वे बौद्धिक दिग्विजय यात्रा में निकले।





मां नर्मदा को शांत करने शंकराचार्य के मुख से निकला नर्मदाष्टक





'त्वदीय पाद पंकजम नमामि देवि नर्मदे' नर्मदा घाटों पर नर्मदाष्टक के स्वर गूंजते रहते हैं। भक्त नर्मदाष्टक के जरिए मां नर्मदा की स्तुति करते हैं। नर्मदा मैय्या की सबसे श्रेष्ठ कर्णप्रिय और पवित्र स्तुति 'त्वदीय पाद पंकजम नमामि देवि नर्मदे' की भी एक रचना कथा है। ओंकारेश्वर आश्रम में उनके गुरु साधनारत थे। तभी मां नर्मदा ने विकराल रूप किया। जनजीवन जल प्लवित होने लगा तब शंकराचार्य जी ने नर्मदाष्टक रचकर मां की आराधना की।





आचार्य शंकर ने रीवा की धरती को किया पवित्र





रीवा की भूमि को भी आचार्य शंकर ने पवित्र किया। यहां पुण्यसलिला बीहर के तट पर एक आश्रम है पंचमठा। यह नाम बाद में दिया गया है। शंकराचार्य चारों मठ स्थापित करने के बाद काशी से प्रयाग होते हुए महिष्मति की यात्रा में थे तब यहां उनका प्रवास हुआ। वे यहां एक सप्ताह रहे। सन 1986 में कांचीकामकोटि के शंकराचार्य जयेंद्र सरस्वती जी अपने उत्तराधिकारी विजयेन्द्र जी के साथ यहां प्रवास पर आए थे। अपना उत्तराधिकार सौंपने के पूर्व वे आदि शंकराचार्य जी के प्रदिक्षणा पथ की यात्रा में थे। पंचमठा का प्रवास इसी क्रम में था। कांचीकामकोटि में आदिगुरू शंकराचार्य की यात्राओं और प्रवासों का यथार्थ वृतांत है उसमें रीवा शहर का पंचमठा भी शामिल है। यह मठ ब्रह्मलीन स्वामी ऋषिकुमार संचालित करते थे। उनके शिष्य जो स्वयं इस मठ में चालीस साल बिता चुके डॉ. कुशल प्रसाद शास्त्री बताते हैं कि पंचमठा महानिर्वाणी अखाड़े के साधुओं का भी प्रवास स्थल रहा है। उज्जैन और प्रयाग के महाकुंभों के समय वे यहां लाव-लश्कर के साथ आते थे। उनके आने और प्रवास के पीछे भी शंकराचार्य का इस भूमि से जुड़ाव था। उन साधुओं के महामंडलेश्वर के पास एक ताम्रपत्र था जिसमें पूरा वृत्तांत उल्लिखित है। डॉ. शास्त्री ने जानकारी दी कि एक बार पुरी के शंकराचार्य निरंजन तीर्थ का भी पंचमठा प्रवास हुआ था। वे भी जगदुरू की स्मृतियों को सहेजने ही आए थे। पंचमठा का प्रसंग आदिगुरू के जीवन के उतरार्द्ध काल का है इसलिए न तो इसका ज्यादा महात्मय बना और न ही जगदगुरू के पांचवें मठ के रूप में प्राणप्रतिष्ठा ही हो पाई।





मध्यप्रदेश में 19 दिसंबर 2022 को शुरू होगी एकात्म यात्रा





19 दिसम्बर से प्रारंम्भ होने वाली आदिगुरू शंकराचार्य को समर्पित एकात्म यात्रा के शुभारंभ के लिए रीवा के पंचमठा का भी चयन इसलिए किया गया है। तीन अन्य यात्राओं में अमरकंटक, उज्जैन, और ओंकारेश्वर से निकलेंगी। समापन 22 जनवरी को ओंकारेश्वर में होगा। मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने आदिगुरू शंकराचार्य जी की आध्यात्मिक धरोहर और स्मृतियों को सहेजने का जो स्तुत्य कार्य प्रारंभ किया है उसे पीढ़ियां याद रखेंगी। आदिगुरू साक्षात शंकरावतार ने अपने चरणों से मध्यप्रदेश की भूमि को पवित्र और कालजयी ऋचाओं से सुवासित किया है उनके संरक्षण और लोकव्यापीकरण के इस ऐतिहासिक प्रयोजन को युगों-युगों तक स्मरण किया जाएगा।



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