देव श्रीमाली, ग्वालियर. जब 2018 में विधानसभा चुनाव हुए थे तब पंद्रह साल से सत्ता को दासी बनाकर रखने वाली बीजेपी के नेता आत्ममुग्ध थे और पार्टी अपने कार्यकर्ताओं के चेहरों पर लिखी इबारत भी पढ़ने को तैयार नहीं थे। ग्वालियर - चम्बल अंचल के कार्यकर्ता अपने नेताओं से जबरदस्त नाराज थे और उन्हें लगता था कि उनकी पार्टी के सत्ता में रहने से उनके नेताओं को ही फायदा है उन्हें कुछ भी नहीं मिल रहा। सत्ता में रहकर सत्ता की रोशनी में नहीं नहा पाने की निराशा ने ग्वालियर -चम्बल अंचल में बीजेपी को साफ़ कर दिया और वह अपनी सत्ता गँवा बैठी थी। लेकिन अब इस अंचल में बीजेपी उससे भी भयावह हालातों में है। उसके कार्यकर्ता अब असहाय और उपेक्षित तो महसूस कर ही रहे हैं उससे भी अधिक नेता से लेकर कार्यकर्ता तक अपने भविष्य को लेकर वैसे ही चिंतित हैं जैसे पहले यहाँ कांग्रेसी रहा करते थे। इस अंचल में शुरू से मजबूत और अनुशासित रही बीजेपी का संगठन जग -हंसाई के दौर से गुजर रहा है। नेता अपनी -अपनी ढपली ,अपना - - अपना राग बजा रहे हैं। हारा हुआ प्रत्याशी किसी को भी पार्टी में शामिल करने का ऐलान कर देता है और जिला अध्यक्ष को खबर तक नहीं होती। सरकारी बैठकों में हार जाने के बाद भी नेता मौजूद रहते हैं और मंत्री चीफ सेक्रेटरी के खिलाफ नाराजी भरी चिट्ठी की कॉपी मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान या पार्टी के शीर्ष नेताओं को नहीं बल्कि केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया को भेजते है। इन हालातों में बीजेपी का संगठन हो या सरकार का शीर्ष लाचार और असहाय होकर सब कुछ देखने के अलावा और कुछ न कर पाने की विवशता में दिखाई दे रहा है।
ताज़ा मामला शिवराज केबिनेट के काबीना मंत्री महेंद्र सिंह सिसोदिया का है। सिसोदिया गुना जिले की किसी छोटी रियासत के पुराने राजबाड़े से हैं और ज्योतिरादित्य सिंधिया के समर्थक। सिंधिया के साथ कांग्रेस छोड़कर बीजेपी में आये और पहले की ही तरह मंत्री भी बने लेकिन हाल ही में उन्होंने अपने प्रभाव और प्रभार दोनों के क्षेत्र यानी गुना और शिवपुरी के जिला प्रशासन के बहाने प्रदेश की नौकरशाही की अराजकता पर ही निशाना साधकर संकेत दिया कि पार्टी में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा। ख़ास बात ये कि इस मामले में न तो मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने कुछ बोला और न ही प्रदेश अध्यक्ष वीडी शर्मा ने।
अफसरों को संविधान की कॉपी बाँट रहे हैं सांसद
गुना और अशोकनगर जिले में ऐसा नहीं कि सिंधिया समर्थक ही परेशान है। बल्कि इस घमासान में बीजेपी वालों का भी हाल यही है। ज्योतिरादित्य सिंधिया को हराकर पूरे देश में तहलका मचाने वाले सांसद डॉ केपी यादव इस समय गुना -शिवपुरी जिलों में बीजपी के सबसे बड़े चेहरे है लेकिन सिंधिया के बीजेपी में शामिल होने के बाद वे परेशान है कि अफसर उन्हें मीटिंगों की खबर तक नहीं देते। जिन मीटिंगों की अध्यक्षता उन्हें करना होती है उनमें अफसर खुद न आकर अपने मातहतों को भेज देते है। माना जाता है कि उनके साथ यह व्यवहार यह सब सिंधिया समर्थक मंत्रियों के दबाव में होता है। हालांकि वे खुलकर आलोचना की जगह अपने तरीके से विरोध जताते रहते हैं। वे अफसरों से मिलते हैं और संविधान की प्रति भेंट करते हैं। इसके जरिये वे संविधान के अनुसार उनके द्वारा काम न करने ,सांसद को प्रोटोकॉल न देने के उनके रवैये के प्रति अपनी नाराजगी का इज़हार करते हैं।
शिवपुरी में केस दर्ज कराया
शिवपुरी में अब बीजेपी का मतलब सिंधिया परिवार हो गया है। राजमाता के जमाने से ही यहाँ की बीजेपी में उनके समर्थकों का दबदबा था लेकिन ज्योतिरादित्य सिंधिया के भी बीजेपी में शामिल होने के बाद यहाँ बीजेपी और सिंधिया परिवार एकाकार हो गया है। विगत दिनों बीजेपी के एक पुराने नेता रामजी व्यास पर फेसबुक पर सिंधिया परिवार को लेकर डाली गई किसी टिप्पणी को लेकर एफआईआर दर्ज करा दी गयी। इसकी अंतर्कथा भी सुन लीजिए। राम जी व्यास का परिवार पुराना भाजपा का परिवार है लेकिन वे सिंधिया की छतरी के नीचे नहीं सीधे बीजेपी के लिए काम करते थे। इस बार नगर पालिका के चुनाव हुए तो उनकी पत्नी सरोज व्यास को पार्टी अध्यक्ष बनाना चाहती थी। इसके लिए केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र तोमर और प्रदेश अध्यक्ष वीडी शर्मा पैरोकार थे लेकिन आखिरी समय में अड़कर यशोधरा राजे सिंधिया ने अपना अध्यक्ष बनाकर अपनी ताकत का अहसास कराया और बीजेपी को सरोज व्यास को उपाध्यक्ष बनाकर ही संतोष करना पड़ा। अपनी इस पीड़ा को उनके पति ने प्रतीकात्मक रूप से सोशल मीडिया पर डाला तो उनके खिलाफ पुलिस में केस दर्ज करा दिया गया।
ग्वालियर में समानांतर संगठन
ग्वालियर में बीजेपी के कार्यकर्ताओं की पीड़ा यह है कि यहाँ समानांतर संगठन फलफूल गया है। ग्वालियर में बीजेपी की जड़ें जनसंघ के जमाने से मजबूत हैं। सिंधिया परिवार के दबदबे के बावजूद ग्वालियर नगर निगम पर 57 वर्ष से बीजेपी काबिज थी और लोकसभा से लेकर विधानसभा और राजयसभा तक में बीजेपी का अंचल से दबदबा रहा है लेकिन इस घमासान में बीजेपी पहली बार ग्वालियर और मुरैना जैसे अपने नगर निगम गँवा बैठी। दरअसल इस क्षेत्र में सिंधिया का भी दबदबा रहा है। कांग्रेस में उनका एकछत्र राज्य था और सरकार में भोपाल में कोई भी बैठे इस अंचल में सत्ता ,प्रशासन और संगठन तीनो पर उसका ही राज्य चलता था। इसी के चलते वे प्रदेश की कमलनाथ सरकार को पलटने में भी कामयाब रहे। उनके समर्थक उसी तरह से काम करने के आदी है इसके उलट बीजेपी इस क्षेत्र में अपने कुशल संगठन के लिए जानी जाती थी जिसमें अनुशासन भी था और सामूहिक निर्णय की परम्परा भी लेकिन अब वह सब तार - तार हो गई। सिंधिया समर्थकों ने नगरीय निकाय और पंचायत चुनावों में पार्टी की एक नहीं सुनी और अपने हिसाब से न केवल निर्णय लिए बल्कि यह प्रचारित भी किया कि "महाराज " की जीत है। सबसे पहले जिला पंचायत का मामला लें। यहाँ सिंधिया समर्थक श्रीमती इमरती देवी ने पूरे बीजेपी संगठन को ताक पर रखकर समानांतर व्यवस्था खड़ी कर दी। ग्वालियर जिला पंचायत अध्यक्ष पद पर इमरती ने जबरन अपना प्रत्याशी खड़ा किया। जीत से पहले वे सदस्यों को वीडी शर्मा या शिवराज सिंह के पास नहीं बल्कि दिल्ली में सिंधिया के पास लेकर गयीं और बीजेपी के नेताओं को वायपास कर अपना अध्यक्ष बनवाकर अपनी ताकत दिखाई। यही तरीका जनपद अध्यक्ष पद के निर्वाचन में अपनाया लेकिन नगर पालिका डबरा के अध्यक्ष पद के निर्वाचन में तो बीजेपी की हालत न केवल शर्मनाक बल्कि हास्यास्पद भी हो गयी। यहाँ बीजेपी के जिला अध्यक्ष कौशल शर्मा ने अध्यक्ष और उपाध्यक्ष पद के लिए मेंडेड जारी किया। यह भी दबाव में था इसमें बीजेपी ने मन मसोसकर इमरती के ही केंडिडेट को अध्यक्ष पद के लिए अधिकृत कर दिया जबकि उपाध्यक्ष पद पर बीजेपी ने अपने प्रत्याशी को उतरकर संतोष करना चाहा लेकिन यहाँ पर इमरती देवी का प्रत्याशी तो जीत गया लेकिन उपाध्यक्ष के चुनाव में क्रॉस वोटिंग हुई और कांग्रेस प्रत्याशी भारी अंतर से विजयी हो गए। मामला यहीं तक होता तब तक तो ठीक था। बीजेपी अपनी हार का शोक मना ही रही थी और क्रॉस वोटिंग के कारणों की तलाश की बात रही थी तब तक नव निर्वाचित उपाध्यक्ष को इमरती देवी ने अपने घर बुलाया और उसके बीजेपी में शामिल होने की घोषणा कर दी। जब उनसे पूछा कि इन्होने कब और किसके सामने बीजेपी ज्वाइन की ? तो उन्होंने मासूम सा जबाव दिया मेरे सामने कर ली अब दिल्ली जाकर महाराज के सामने करवा देंगे। इसी समय बीजेपी के ग्रामीण जिला अध्यक्ष से जब मीडिया ने पूछा तो वे इससे अनभिज्ञ थे और उन्होंने कहा कि वे इस भितरघात की शिकायत पार्टी के वरिष्ठ नेताओं से करेंगे। अब शीर्ष नेताओं की लाचारी देखिये कि वे शिकायत मिलने के बाद भी चुप रहने को ही मजबूर हैं।
मुरैना में भी तलवारें म्यान से बाहर हैं
मुरैना जिले में भी बीजेपी और सिंधिया समर्थकों के तलवारें स्थानीय निकाय चुनावों में म्यान से बाहर दिखाई दीं। यह क्षेत्र भाजपा के शक्तिशाली नेता केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र तोमर का संसदीय क्षेत्र है। इस क्षेत्र में ज्यादातर विधानसभा सीटें कांग्रेस से सिंधिया समर्थक जीते थे और सब बीजेपी में आ गए। हालांकि ज्यादातर पर उप चुनाव में वे हार भी गए लेकिन कश्मकश जारी है। यहाँ के प्रशासन पर तोमर का कब्जा है और सिंधिया समर्थक खिलाफ बोलते रहते है। हाल ही में हुए स्थानीय निकाय चुनाव में हार के बहाने अम्बाह से सिंधिया समर्थक विधायक ने हार के लिए एसपी और प्रशासन को जिम्मेदार ठहराया था लेकिन असल में यह कहीं पर निगाहें कहीं पर निशाना साधा गया था।
आखिर समन्वय हो क्यों नहीं पा रहा
दरअसल सिंधिया परिवार हो या उसके समर्थक उन्हें समन्वय करके काम करने की आदत ही नहीं है। वे अस्सी के दशक से इसी तरह से अपनी सियासत करने के आदी है। अगर हम 1980 से ग्वालियर -चंबल की राजनीति पर निगाह डालें तो यहाँ कांग्रेस में स्व माधव राव सिंधिया का सत्ता हो या संगठन या फिर प्रशासन सब पर कब्जा रहता था। सारे टिकट ,सारे मनोनयन और सारी प्रशासनिक नियुक्तियां उनकी असंद - नापसंद से होतीं थी। सीएम चाहे अर्जुन सिंह हों,मोतीलाल वोरा ,श्यामा चरण शुक्ला या फिर दिग्विजय सिंह।,ग्वालियर -चम्बल अंचल के निर्णय लेने का अधिकार कभी इनके पास नहीं रहा था। यही हाल ज्योतिरादित्य सिंधिया के कांग्रेस में रहने तक रहा। हालत ये थी कि दिग्विजय सिंह कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव थे और जब ग्वालियर आते थे तो जिला अध्यक्ष तो दूर कोई विधायक और संगठन का कोई पदादिकारी उनसे मिलने तक नहीं जाता था। अब बीजेपी में आने के बाद भी सिंधिया समर्थक अपना कांग्रेस की तरह ही एकछत्र राज चाहते हैं और कमोवेश वे ऐसा कर भी पा रहे है।
ग्वालियर में पूरी बीजेपी असहज
ग्वालियर में तो सांगठनिक और प्रशासनिक दोनों स्तरों पर अराजकता की स्थिति है। सरकारी बैठकों में जीते विधायक की जगह हारे हुए प्रत्याशी को प्रशासन लाचारी में बुलाता है। ग्वालियर पूर्व से विधायक रहे मुन्नालाल गोयल उप चुनाव में हार गए लेकिन वे असंवैधानिक होते हुए भी सभी शासकीय बैठकों में जाते हैं और शासकीय आयोजनों के मंच पर बैठते है जबकि बीजेपी के ज्यादातर नेता और कार्यकर्ता सामने कुर्सियों पर बैठे बैठे कसमसाते रहते हैं। अफसर दबी जुबान में कहते हैं कि ऊपर से इशारा है वे क्या करें ?
इन्ही हालातों में मेयर पद गंवाया
इन्ही हालातों में बीजपी ने ग्वालियर और मुरैना जैसे अपने परम्परागत गढ़ में मेयर पद गँवा दिया और ग्वालियर में तो 57 साल बाद मिली शर्मनाक हार से बीजेपी का हर कार्यकर्ता आहत है लेकिन उनकी आक्रामकता कम होने की जगह बढ़ी ही है। अपनी ही सरकार में अपने घर में असहाय होने से केवल कार्यकर्ता बल्कि अब बड़े नेता तक असहज महसूस करने लगे हैं। उनमें भविष्य की चिंता और आशंका ही अब चर्चा का विषय रहती है और यह चिंता अगले वर्ष होने वाले विधानसभा चुनावों में बीजेपी की चिंता में बदलेगी तो हालत चिंताजनक हो जायेगी