उमा के पत्थर पर शिवराज की खामोशी, सिंधिया भरोसे MP में होगी उमा की वापसी?

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उमा के पत्थर पर शिवराज की खामोशी, सिंधिया भरोसे MP में होगी उमा की वापसी?

भोपाल. मध्यप्रदेश में वापसी के लिए या सत्ता में बने रहने के लिए पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती की बौखलाहट अब साफ नजर आने लगी है। बीते दिनों वो भोपाल आईं। अचानक शराब की एक दुकान पर पहुंची और पत्थर बरसा दिए। ताज्जुब इस बात का उमा भारती की इस हरकत पर सरकार से लेकर पुलिस प्रशासन तक सब मौन रहे। उमा भारती की इस हरकत से साफ है, वो दोबारा पॉलिटिकल लाइमलाइट में आना चाहती हैं। कहीं इसकी वजह महाराज ज्योतिरादित्य सिंधिया तो नहीं, जिन्हें वो अपना भतीजा भी बताती हैं।



तकरीबन एक साल से शराबबंदी का राग अलाप रही उमा भारती अचानक राजधानी भोपाल की एक शराब दुकान पर पहुंचती हैं। पत्थर फेंकती है और लौट आती हैं। देखने वाले एक सवाल जरूर पूछ सकते हैं कि ये कैसी शराबबंदी की मुहिम, जिसमें पहले तो खुद ही तारीखों का ऐलान कर उमा भारती खुद ही गायब रहीं। फिर लौटीं तो एक पत्थर फेंकने के बाद आंदोलन खत्म हो गया। ताज्जुब तो तब हुआ, जब उमा भारती के साथ आए लोग सिर्फ एक खामोश भीड़ ही साबित हुए, जिन्होंने उमा के इस आंदोलन में शिरकत तो की लेकिन हिस्सेदार नहीं बने। एक पत्थर फेंककर उमा भारती चुपचाप लौट गईं। इसके बाद कुछ सवाल उठना लाजमी थे, इसलिए उठे भी-




  • सवाल एक- क्या एमपी की सियासत में वापसी के लिए छटपटा रही हैं उमा?


  • सवाल दो- पार्टी में पद से महरूम उमा क्या पद और पावर दोनों के लिए बेताब हैं?

  • सवाल तीन- उमा का मकसद क्या है- शिवराज को मुश्किल में डालना या अपना कद बढ़ाना?



  • 2019 के चुनाव में टिकट नहीं मिला: मध्यप्रदेश की सत्ता से बेदखल होने के बाद से उमा भारती की ये बौखलाहट नजर आती रही है। हालांकि उनकी पार्टी में वापसी इसी शर्त पर हुई थी कि दीदी मध्यप्रदेश से दूर रहेंगी। लंबे समय तक दीदी इस वचन पर कायम भी रहीं। लोकसभा चुनाव लड़ा, जीतीं फिर निकाली गईं। इसके बाद साल 2019 के चुनाव में उन्हें टिकट भी नहीं मिला। अगर हाशिए का भी कोई किनारा होता है तो उमा भारती फिलहाल पार्टी के उसी किनारे पर नजर आती हैं, जो अब किसी भी तरह पॉलिटिकल लाइमलाइट में कमबैक करना चाहती हैं। पर क्या ये उमा भारती के लिए इतना आसान है।



    हल्ला मचाने की कोशिश: मध्यप्रदेश के सियासी सन्नाटे को पत्थर मारकर तोड़ने में जुटी उमा शायद ये जताने की कोशिश में है कि इस फायर ब्रांड नेत्री की सियासी फायर अभी कम नहीं हुई। लेकिन ये सारे सियासी इरादे शिवराज सरकार के एक मूव के आगे धरे रह गए, जो दरअसल उन्होंने लिया ही नहीं। उमा भारती पत्थर बरसा कर हल्ला मचाने की कोशिश करती रहीं। लेकिन सरकार और प्रशासन दोनों मौन रहे। उमा भारती जिस लाइमलाइट की तलाश में थीं, वो उन्हें मिली जरूर। सुर्खियां भी बनीं लेकिन इन सुर्खियों के अक्षर ज्यादा बड़े और गाढ़े नजर नहीं आए, जो उमा की आवाज को ज्यादा दूर तक पहुंचा पाते।





    पॉलिटिकल सीन: लोकसभा चुनाव में टिकट न मिलने के बाद ये साफ हो गया कि अब उमा भारती पार्टी आलाकमान की उतनी लाडली नहीं रहीं। जितनी कभी हुआ करती थीं। होना मुमकिन भी नहीं क्योंकि अब कमान थामने वाले आला नेता भी बदल चुके हैं। पॉलिटिकल सीन से लगातार गायब होती जा रही उमा भारती को शायद ज्योतिरादित्य सिंधिया के रूप में उम्मीद की नई किरण नजर आ रही है।



    सिंधिया और उमा की मुलाकात: ये वही सियासी तस्वीर है, जिसने एकाएक सूबे की सियासत में खलबली मचा दी। किसने सोचा था कि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के साथ दौरे पर जाने से एक दिन पहले ज्योतिरादित्य सिंधिया अचानक उमा भारती से मुलाकात करने पहुंचेंगे। ये मुलाकात कम-से-कम तीन मिनट तक चलेगी और उसके बाद दोनों एक दूसरे की तारीफों के पुल बांधने से भी नहीं चूकेंगे।



    भारती ने सिंधिया को भतीजा बताया: वैसे तो दोनों के रिश्तों में तल्खी तब भी ज्यादा नहीं थी, जब दोनों अलग-अलग पार्टी में थे। कांग्रेस में रहते हुए भी जब सिंधिया का सामना उमा भारती से हुआ, वो पूरे सम्मान से मिले। शायद राजमाता विजयराजे सिंधिया का मान रख दोनों एक-दूसरे का सम्मान करते रहे। उमा की पॉलिटिकल पारी की शुरुआत राजमाता ने ही करवाई थी। सिंधिया के बीजेपी में आने के बाद उमा भारती ने उन्हें अपना भतीजा बताया और राहुल गांधी से बेहतर नेता भी।



    सिंधिया को सहयोग की उम्मीद: हालांकि बुआ भतीजे की इस मुलाकात को लोगों ने पॉलिटिकल चश्मे से देखने में देर नहीं की। पार्टी में नए-नए आए सिंधिया हर नेता और गुट की नाराजगी दूर करने में जुटे थे। इस मुलाकात को भी उसी नजर से देखा गया। उस वक्त सिंधिया को उमा भारती से सहयोग की उम्मीद थी, जिसपर खरा उतरते हुए उमा भारती ने भतीजे के सिर पर जीत का आशीर्वाद भरा हाथ रखा। 



    तो क्या ये मान लें कि अब उमा भारती उसी आशीर्वाद का पॉलिटिकल रिटर्न चाहती हैं। सिंधिया के भरोसे वो मुख्य धारा में आना चाहती हैं। साल 2024 के चुनाव में लड़ने का ऐलान तो वो पहले ही कर चुकी हैं। उससे पहले क्या मौका मिले तो प्रदेश में किस्मत आजमाने से नहीं चूकेंगी या फिर उमा भारती अपने खेमे के समर्थकों के लिए इस चुनाव में ज्यादा टिकट चाहती हैं।



    उमा का पॉलिटिकल डाउनफॉल: उमा भारती क्या चाहती हैं, फिलहाल ये तो कहना मुश्किल हैं लेकिन उनसे जुड़े कुछ पुराने तजुर्बे देखकर ये अंदाजा लगाया जा सकता है कि जिससे उनके संबंध बहुत मधुर रहे, उन्हीं के साथ रिश्तों में सबसे ज्यादा तल्खी भी आई। अपने मेंटर लाल कृष्ण आडवाणी से लेकर पार्टी के दूसरे नेताओं का सरेआम विरोध करने से भी नहीं चूकीं उमा भारती। उमा भारती के पॉलिटिकल करियर का ग्राफ जिस तेजी से ऊपर चढ़ा, उतनी ही तेजी से नीचे भी उतरा। एक बार जो करियर ढाल पर आया। उसके बाद उमा भारती उसे संभाल नहीं सकीं। पार्टी स्तर पर तो उन्हें बार-बार मौके मिले। इसके बावजूद उमा भारती कुछ ऐसा करती गईं कि उनके विरोधी हमेशा उन पर हावी रहे। एक हिंदूवादी नेता से एक फायर ब्रांड नेत्री और फिर सूबे की सीएम बनना। उसके बाद लगातार संघर्ष करते रहना। उमा भारती के इस पॉलिटिकल डाउनफॉल, नेताओं से बनते बिगड़ते रिश्ते समझने के लिए उमा के करियर की क्रोनोलॉजी समझना जरूरी है।



    उमा का राजनितिक सफर: साल 1984 में राजमाता विजयराजे सिंधिया ने उमा भारती की विधिवत पॉलिटिकल एंट्री करवाई। उमा भारती पहला लोकसभा चुनाव हारीं। 1989 में उसी खजुराहो सीट से उमा ने जीत हासिल की और लोकसभा सदस्य बन गईं। ये बात और है कि उमा की पहचान राजनीति से ज्यादा उनके भाषणों की वजह से होती रही। बाबरी मस्जिद ढहने तक साध्वी ऋतंभरा और उमा भारती के भाषणों के कैसेट खूब मशहूर हुआ करते थे। हालांकि बाबरी मस्जिद गिरने के साथ प्रदेश में सुंदरलाल पटवा की सरकार भी गिरी। इसके बाद दस साल तक दिग्विजय सिंह एमपी पर काबिज रहे। साल 2002 में उमा भारती को ही दिग्विजय सिंह सरकार को उखाड़ फेंकने का काम सौंपा गया। उमा भारती इसमें कामयाब भी रहीं। 230 में से 173 सीट जीतकर उमा भारती ने कांग्रेस को 38 सीटों पर रोक दिया।



    हालांकि उमा भारती पद पर पूरे एक साल भी नहीं रहीं। सरकार बनने के 258 दिन बाद उमा भारती को इस्तीफा देना पड़ा। कर्नाटक के हुबली के विवादित ईदगाह पर जबरदस्ती तिरंगा फहराने के चलते उमा भारती के नाम गैर जमानती वॉरंट जारी हुआ था। इसके चलते कुछ शर्तों के साथ उमा भारती ने पद से इस्तीफा दिया। शर्तों में वापसी के बाद देश भर में तिरंगा यात्रा निकालना और वो पद उन्हें वापस मिलना शामिल था। लेकिन वापसी के बाद उमा भारती ने जो कुछ सोचा था, वो हुआ नहीं। तिरंगा यात्रा तो वो कुछ प्रदेश में निकालने में कामयाब रहीं लेकिन कुर्सी ने उन्हें दोबारा नहीं मिली। शायद यही टीस उमा भारती के राजनीतिक करियर पर हावी होती चली गईं। उमा भारती बड़बोली तो थी हीं, अब बातों में तल्खी भी दिखाई देने लगी, जिसके चलते उनके संबंध कई नेताओं से खराब होने लगे।



    पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल गौर: बाबूलाल गौर वो नेता थे, जिन्हें उमा भारती ने पूरे भरोसे के साथ गद्दी सौंप दी थी। चुनाव जीतने से पहले उमा ने गौरी शंकर शेजवार को हटवाकर बाबूलाल गौर को नेता प्रतिपक्ष भी बनवाया था। हुबली कांड से आरोप मुक्त होकर उमा वापस लौटीं लेकिन सियासी बिसात पलट चुकी थी। खुद पार्टी उमा को उस पद पर नहीं देखना चाहती थी। किस्सा ये भी है कि उमा ने देवी-देवताओं के सामने बाबूलाल गौर को कसम दिलवाई थी कि उमा के आते ही वो पद उन्हें सौंप देंगे लेकिन ऐसा कुछ नहीं हो  सका।



    वैंकेया नायडू और सुषमा स्वराज: वैंकेया नायडू और सुषमा स्वराज भी कभी उमा भारती के नाम पर सहमत नहीं हुए। बीजेपी में उमा की वापसी का विरोध करने वालों में ये नाम भी शामिल थे। वैंकेया नायडू ही वो नेता थे, जिन्होंने कहा था कि उमा को वापस सीएम बनाने का कोई प्रस्ताव नहीं है।



    प्रमोद महाजन: प्रमोद महाजन उन नेताओं में से एक थे, जो मध्यप्रदेश में उमा भारती की जीत में लगातार उनके साथ रहे। उमा प्रदेश में पार्टी का फेस थीं लेकिन उनकी जीत के आर्किटेक्ट प्रमोद महाजन ही कहे जा सकते हैं। हालांकि उमा भारती के बड़बोलेपन और बढ़ते कद के बाद प्रमोद महाजन ने भी उनसे मुंह फेर लिया। उमा भारती की तिरंगा यात्रा के दौरान उन्हें अटल-आडवाणी का वारिस बताया जाने लगा। इसके बाद उनके विरोधी एक हो गए, जिसमें प्रमोद महाजन के अलावा और भी कई बड़े नेता शामिल थे।



    लाल कृष्ण आडवाणी: बात नवंबर 2004 की है। बीजेपी हैड ऑफिस में लाल कृष्ण आडवाणी मीडिया से मुखातिब थे। इस मीटिंग में कैमरे की भीड़ के सामने एक बात से नाराज होकर उमा भारती ने आडवाणी को ही उनके खिलाफ कार्रवाई करने की चुनौती दे दी। आडवाणी अपने ही खेमे की दमदार नेता के खिलाफ निलंबन का फैसला लेने पर मजबूर हो गए।



    डेढ़-दो साल तक उमा भारती शायद पार्टी के बुलावे का इंतजार करती रहीं। थक-हारकर 30 अप्रैल 2006 को उन्होंने अपनी नई पार्टी भारतीय जनशक्ति पार्टी बनाने का ऐलान कर दिया। अपने दम पर उमा इस पार्टी के भरोसे प्रदेश में सिर्फ छह सीटें जीत सकीं। उमा भारती की पार्टी में उस वक्त प्रहलाद पटेल जैसे कई नेता शामिल हुए, जो उनका साथ देने बीजेपी छोड़कर आए थे। लेकिन किसी का साथ ज्यादा दिन नहीं चल सका। एक-एक कर सभी नेता उमा भारती का साथ छोड़ गए।



    उमा भारती के साथ ज्यादा लंबे समय तक पॉलिटिकल केमिस्ट्री बनाए रखना आसान नहीं है। बीते कुछ उदाहरण तो यही साबित करते हैं। अब उमा भारती ज्योतिरादित्य सिंधिया का साथ देती दिखाई दे रही हैं। सियासी गलियारों में बुआ-भतीजे के स्नेह के कसीदे काढ़े जा रहे हैं। देखना ये है कि पॉलिटिकल लाइमलाइट के लिए उमा भारती की छटपटाहट इस बार भी कहीं भारी तो नहीं पड़ेगी।




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