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UJJAIN. यहां के राजा रहे भर्तृहरि एक महान संस्कृत कवि थे। साथ ही इतिहास में भर्तृहरि एक नीतिकार के रूप में प्रसिद्ध हैं। इनकी शतकत्रयी (नीतिशतक, शृंगारशतक, वैराग्यशतक) की उपदेशात्मक कहानियां भारतीय जनमानस को प्रेरित करती हैं। प्रत्येक शतक में सौ-सौ श्लोक हैं। बाद में इन्होंने गुरु गोरखनाथ के शिष्य बनकर वैराग्य धारण कर लिया था। इनका एक लोकप्रचलित नाम बाबा भरथरी भी मिलता है। भर्तृहरि राजा चंद्रगुप्त II विक्रमादित्य के बड़े भाई थे। इनके पिता का नाम चन्द्रसेन था। भर्तृहरि की पत्नी का नाम पिंगला था, जिसे वे काफी प्रेम करते थे।
योगी गोरखनाथ ने भर्तृहरि को फल दिया था
भर्तृहरि संस्कृत मुक्तक काव्य परम्परा के अग्रणी कवि हैं। इन्हीं तीन शतकों के कारण उन्हें बेहतरीन कवि माना जाता है। उनके शतकों में छन्दों की विविधता है। भाव और विषय के अनुकूल छन्दों का प्रयोग, विषय के अनुरूप उदाहरण से उनकी सूक्तियां जन-जन में प्रचलित रही हैं। विक्रमादित्य के पहले भर्तृहरि ही राजा थे। उस समय महान योगी गोरखनाथ का उज्जयिनी आगमन हुआ और वे राजा के दरबार में पहुंचे। राजा भर्तृहरि ने उनका जोरदार आदर सत्कार किया। इस सत्कार से खुश होकर गुरु गोरखनाथ ने भर्तृहरि को एक फल दिया और कहा कि इसे खाने से वह सदैव युवा और सुंदर बने रहेंगे और कभी बुढ़ापा नहीं आएगा।
गोरखनाथ का दिया फल भर्तृहरि के पास घूमकर पहुंच गया
राजा भर्तृहरि ने प्रसन्नता से वह फल लेकर गुरु गोरखनाथ का फिर से आदर सत्कार करके उन्हें विदा किया। गोरखनाथ के जाने के बाद राजा ने सोचा कि उन्हें जवानी और सुंदरता की क्या जरूरत है। क्यों ना ये फल पिंगला को दे दिया जाए। पिंगला राजा की तीसरे नंबर की पत्नी थीं। उन्होंने सोचा कि यह फल पिंगला खा लेगी तो वह सदैव सुंदर और युवा बनी रहेगी। राजा अपनी तीसरी पत्नी पर ज्यादा मोहित थे, उन्होंने यह सोचकर वह फल अपनी तीसरी पत्नी पिंगला को दे दिया। कहते हैं कि रानी पिंगला भर्तृहरि पर नहीं, बल्कि राज्य के कोतवाल से संबंध थे। यह बात राजा नहीं जानते थे। जब राजा भर्तृहरि ने वह चमत्कारी फल रानी को दिया तो रानी ने सोचा कि यह फल कोतवाल खाएगा तो वह लंबे समय तक उसकी इच्छाओं की पूर्ति करता रहेगा। रानी ने यह सोचकर चमत्कारी फल कोतवाल को दे दिया।
कोतवाल एक वैश्या से प्रेम करता था और उसने वो चमत्कारी फल वैश्या को यह सोचकर दे दिया की वह इसे खाकर जवान और सुंदर बनी रहेगी, जिसके चलते मेरी इच्छाओं की पूर्ति होती रहेगी। वैश्या ने जब वह फल पाया तो उसने सोचा कि यदि वह जवान और सुंदर बनी रहेगी तो उसे यह गंदा काम हमेशा करना पड़ेगा और इस नर्क समान जीवन से मुक्ति कभी नहीं मिलेगी। यह सोचते हुए वैश्या ने सोचा कि इस फल की सबसे ज्यादा जरूरत तो हमारे दयालु राजा को है। राजा हमेशा जवान रहेंगे तो लंबे समय तक प्रजा को सभी सुख-सुविधाएं मिलती रहेंगी। यह सोचकर वैश्या राजा भर्तृहरि के पास गई और उसने राजा को उसने चमत्कारी फल दे दिया।
भर्तृहरि वह फल देखकर आश्चर्यचकित रह गए और उन्होंने वैश्या से पूछा कि यह फल उसे कहां से मिला। वैश्या ने बताया कि यह फल उसे उसके प्रेमी कोतवाल ने दिया है। भर्तृहरि ने तुरंत कोतवाल को बुलवा लिया। सख्ती से पूछने पर कोतवाल ने बताया कि यह फल उसे रानी पिंगला ने दिया है। यह सुनकर राजा के पैरों तले जमीन खिसक गई हो। वे सारा माजरा समझ गए कि रानी पिंगला उन्हें धोखा दे रही है। पत्नी के धोखे से भर्तृहरि के मन में वैराग्य उत्पन्न हो गया और वे अपना पूरा राज्य विक्रमादित्य को सौंपकर उज्जैन की एक गुफा में तपस्या करने चले गए। उस गुफा में भर्तृहरि ने 12 सालों तक तपस्या की थी। कहते हैं कि यह सब गुरु गोरखनाथ की लीला थी।
राजा भर्तृहरि की यह कहानी भी है चर्चित
एक बार राजा भर्तृहरि अपनी पत्नी पिंगला के साथ जंगल में शिकार खेलने के लिए गए हुए थे। वहां काफी समय तक भटकते रहने के बाद भी उन्हें कोई शिकार नहीं मिला। निराश पति-पत्नी जब घर लौट रहे थे, तभी रास्ते में उन्हें हिरनों का एक झुंड दिखाई दिया। भर्तृहरि ने उस पर प्रहार करना चाहा तभी पिंगला ने उन्हें रोकते हुए अनुरोध किया कि महाराज, यह मृगराज 700 हिरणियों का पति और पालनकर्ता है। इसलिए आप उसका शिकार ना करें। भर्तृहरि ने पत्नी की बात नहीं मानी और हिरन पर बाण चला दिया। इससे वह मरणासन्न होकर भूमि पर गिर पड़ा। प्राण छोड़ते-छोड़ते हिरण ने राजा भर्तृहरि से कहा, ‘तुमने यह ठीक नहीं किया। अब जो मैं कहता हूं उसका पालन करो। मेरी मृत्यु के बाद मेरे सींग श्रृंगी बाबा को, मेरे नेत्र चंचल नारी को, मेरी त्वचा साधु-संतों को, मेरे पैर भागने वाले चोरों को और मेरे शरीर की मिट्टी पापी राजा को दे देना। मरणासन्न हिरन की करुणामयी बातें सुनकर भर्तृहरि का हृदय द्रवित हो उठा। हिरन का शव घोड़े पर लाद कर वह मार्ग में चलने लगे। रास्ते में उनकी मुलाकात बाबा गोरखनाथ से हुई। भर्तृहरि ने इस घटना से अवगत कराते हुए उनसे हिरण को जीवित करने की प्रार्थना की। इस पर बाबा गोरखनाथ ने कहा- मैं एक शर्त पर इसे जीवनदान दे सकता हूं कि इसके जीवित हो जाने पर तुम्हें मेरा शिष्य बनना पड़ेगा। राजा ने गोरखनाथ की बात मान ली और संन्यासी हो गए।
इंद्र भी हो गए थे भयभीत
राजा भर्तृहरि की कठोर तपस्या से देवराज इंद्र भयभीत हो गए। इंद्र ने सोचा की भृतहरि वरदान पाकर स्वर्ग पर आक्रमण करेंगे। यह सोचकर इंद्र ने भृतहरि पर एक विशाल पत्थर गिरा दिया। तपस्या में बैठे भर्तृहरि ने उस पत्थर को एक हाथ से रोक लिया और तपस्या में बैठे रहे। इसी प्रकार कई वर्षों तक तपस्या करने से उस पत्थर पर भर्तृहरि के पंजे का निशान बन गया। यह निशान आज भी भर्तृहरि की गुफा में राजा की प्रतिमा के ऊपर वाले पत्थर पर दिखाई देता है। यह पंजे का निशान काफी बड़ा है, जिसे देखकर सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि राजा भर्तृहरि की कद-काठी कितनी विशालकाय रही होगी।
राजा भर्तृहरि ने लिखे कई ग्रंथ
उज्जैन में आज भी आप राजा भर्तृहरि की गुफा का दर्शन कर सकते हैं। इस संसार की मोहमाया को त्याग कर भर्तृहरि वैरागी हो गए और राज-पाट छोड़ कर गुरु गोरखनाथ की शरण में चले गए। उसके बाद ही उन्होंने वहीं वैराग्य पर 100 श्लोक लिखे, जो वैराग्य शतक के नाम से प्रसिद्ध हैं। राजा भर्तृहरि ने कई ग्रंथ लिखे जिसमें 'वैराग्य शतक' 'श्रृंगार शतक' और 'नीति शतक' काफी चर्चित हैं। यह तीनों ही शतक आज भी उपलब्ध हैं और पढ़ने योग्य है।
गोपीचंद और भरथरी (भर्तृहरि) की गुफा
उज्जैन में भर्तृहरि या भरथरी की गुफा एक शहर के बाहर सुनसान क्षेत्र में स्थित है। गुफा के पास ही क्षिप्रा नदी बह रही है। गुफा के अंदर जाने का रास्ता काफी संकरा है, जहां अंदर जाने पर सांस लेने में भी कठिनाई महसूस होती है। यहां पर एक गुफा और है जो कि पहली गुफा से छोटी है। कहते हैं कि यह गुफा राजा भर्तृहरि के भतीजे गोपीचन्द की है। गुफा के अंत में राजा भर्तृहरि की प्रतिमा है। प्रतिमा के सामने एक धूनी भी है, जिसकी राख हमेशा गर्म ही रहती है। प्रतिमा के पास ही एक और गुफा का रास्ता है। इस दूसरी गुफा के विषय में ऐसा माना जाता है कि यहां से चारों धामों का रास्ता है।
राजा भर्तृहरि का अंतिम समय राजस्थान में बीता
राजा भर्तृहरि का अंतिम समय राजस्थान में बीता। उनकी समाधि अलवर राज्य के एक सघन वन में आज भी विद्यमान है। उसके सातवें दरवाज़े पर एक अखंड दीपक जलता रहता है। उसे भर्तृहरि ज्योति माना जाता है। भर्तृहरि महान् शिवभक्त और सिद्ध योगी थे और अपने भाई विक्रमादित्य को फिर से स्थापित कर अमर हो गए। विक्रमादित्य उनकी तरह ही चक्रवर्ती निकले और उनके सुशासनकाल में विक्रम संवत (57 ईसवी पूर्व) की स्थापना हुई। इसकी शुरुआत आज भी चैत्रमास के नवरात्रि से होती है।