BHOPAL: महाराज की लिस्ट बनी पर्ची, इतनी तेज चलीं कि रोक ली गईं, साहब जाते-जाते सरकार को 5 लाख दे गए

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The Sootr CG
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BHOPAL: महाराज की लिस्ट बनी पर्ची, इतनी तेज चलीं कि रोक ली गईं, साहब जाते-जाते सरकार को 5 लाख दे गए

हरीश दिवेकर। जून बीता जा रहा है, पर मजाल है कि बादल बरस जाएं। बदरा छाते हैं, उमस करते हैं, पर बारिश नहीं होती। ये पता ही नहीं चल रहा कि मॉनसून आया है या नहीं। अगर आ गया है तो कितना सक्रिय हुआ है। सच तो प्रकृति ही जानती है, मौसम विभाग की भविष्यवाणियों से तो भगवान बचाए। महाराष्ट्र में उद्धव सरकार संकट में है। मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे अपना सरकारी आवास छोड़ चुके हैं। एकनाथ शिंदे ने बड़ा डेंट लगाया है। महाराष्ट्र में क्या होने वाला है, इस पर राजनीति के पंडित तमाम कयासें लगा रहे हैं। सरकार का जो होना है, वो तो होना है, विन-विन पोजिशन में बीजेपी है। वहीं, बीजेपी ने द्रौपदी मुर्मू को NDA की तरफ से राष्ट्रपति उम्मीदवार बनाकर बाजी मार ली। इधर, मध्य प्रदेश में पंचायत चुनाव शुरू हो चुके हैं। इसके बाद स्थानीय निकाय चुनाव होने हैं। बीजेपी-कांग्रेस दोनों कार्यकर्ताओं को एकजुट करने में लगे हैं। अंदरखाने की खबरें और भी हैं, आप तो सीधे अंदर चले आइए....  



बहुत हुआ, अब माफ करो महाराज



महाराज उर्फ ज्योतिरादित्य सिंधिया धूमधाम से साथ बीजेपी में आए थे। धूमधाम भी ऐसी कि बीजेपी में जिधर नजर दौड़ाई, उधर धूम हो गई। साथ आए सारे प्रवासी विधायकों को फिर टिकट दिलवा दिए। जो जीत गए, उनमें से ज्यादातर मंत्रित्व को प्राप्त हो गए और जो हार गए, वो निगमों में नहा लिए। अब लग रहा है इस स्नान-ध्यान पर विराम का वक्त आ गया है। महापौर और पार्षदी के लिए जिस हिसाब से महाराज को तोल-बांट लगाकर इक्का-दुक्का टिकट दिए गए, उसके बाद इस विराम पर पूर्ण विराम सा लगता दिख रहा है। इंदौर-भोपाल में तो महाराज के बंदों की सूची किसी किराना सूची से भी लंबी थी, लेकिन पार्टी ने उसे काटकर एटीएम की छोटी सी पर्ची बना दिया। एक यहां ले लो और एक वहां ले लो..बस दो-तीन टिकट ठीक हैं। महाराज ने भी वक्त की नजाकत को भांपकर फिलहाल शांति बनाए रखी है। यह तय है कि बात दिल्ली तलक जाएगी, लेकिन वहां से कितनी मन की होकर लौटेगी, इसके लिए़ इंतजार करना पड़ेगा। अभी दिल्ली के लिए मराठा सरकार से ज्यादा महाराष्ट्र सरकार जरूरी है।



इतनी तेज कि सब रोकने में लग गए



एक नेहा बग्गा होती हैं। भाजपा की जुबान.. बोले तो प्रवक्ता हैं। तेज इतनी हैं कि जरा आगे बढ़ती हैं तो सारे के सारे रोकने में लग जाते हैं। पार्टी के सारे महानुभावों को लगता है, पता नहीं किसकी दीवार तोड़कर पद हथिया लेंगी। अभी-अभी उनकी पार्षदी की फाइल चली। चली बाद में, रोकने की चालें पहले शुरू हो गईं। सबसे पहले कृष्णा गौर अड़ी...जहां से टिकट देना है दो दो, बस मेरे यहां मत भेजना। फाइल खिसककर दूसरे विधायक रामेश्वर शर्मा की विधानसभा में पहुंची। सुना था हिम्मत वाले हैं, शेर तक को खंबे पर टांग देते हैं। लेकिन नेहा के नाम पर हिम्मत जवाब दे गई। रोको-रोको...रोको-रोको...का नारा लगने लगा। यहां भी बात नहीं बनी। आखिर में उमाशंकर गुप्ता के वार्ड 44 पर नजर टिकी। नजर क्या टिकी, बस समझो नजर ही लग गई नेहा को। गुप्ता ने संसदीय शब्दों का इस्तेमाल करते हुए फाइल को ऐसा हवा में उछाला कि टिकट ही हवा हो गया। फिलहाल नेता टिकट विहीन हैं, लेकिन ये बीजेपी है साब...यहां पार्टी ने अगर सोच लिया है कि बग्गा की बल्ले-बल्ले करना है तो कर ही देगी, भले ही फिर गुप्ता जी को मार्गदर्शक मंडल में क्यों ना भेजना पड़े। एक-डेढ़ साल ही तो बचा है।



बरखा रानी, जरा रुक कर बरसो



चुनाव और मॉनसून सिर पर हैं। चुनाव से तो नेताजी निपट लेंगे, पर मॉनसून सिर पर सवार हो गया तो चुनाव में जितने वोट नहीं पड़ेंगे उससे ज्यादा सिर पर ओले पड़ेंगे। नहीं समझे...। समझाए देते हैं। पुरानी परिषद ने पूरे पांच साल शहरों में बूंद-बूंद सहेजने का ठेका लिया था। ये जो बारिश होती है ना, उसकी आपूर्ति सड़कों, गटरों के जरिए सीधे घरों तक पहुंचाई जाती है। जनता रो-धोकर घर का पानी सड़क पर उलीचती रहती है। इस बार भी यही चल जाता, पर कमबख्त चुनाव नवंबर से खिसककर जून-जुलाई तक आ गए तो नेताजी के कान के पीछे पसीना और पानी दोनों बह रहे हैं। चलते चुनाव में बरखा रानी बरस गईं और गलियों-चौबारों से होता हुआ पानी घरों में घुस गया तो नेताजी का मोहल्ले, घर में घुसना दुश्वार हो जाएगा। जनसंपर्क तो छोड़ो..जान से भी संपर्क के लाले पड़ जाएंगे। इसलिए हर नेता की गर्दन आसमान में उठी हुई है। हे! बरखा रानी जरा रुककर बरसो...वोटिंग के बाद..। प्लीज...। इस बार और माफ कर दो...अगली बार खुद बाल्टी लेकर सड़क खाली कर दूंगा। प्लीज...। अभी तक तो मामला नेताजी के पक्ष में जाता दिख रहा है, पर ये काले-काले बादल कब राजनीति काली-पीली कर देंगे, कौन जाने...।



अफसर को पांच लाख में पड़ी एक भूल



वरदमूर्ति मिश्रा आम तौर पर सीधी-सादी मूरत के अफसर नहीं रहे। इसके बावजूद वे ये भूल गए कि वे आईएएस हैं या राप्रसे के अफसर हैं। कुछ दिन पहले ही सरकार से कहा था, बहुत हो गया। अब मुक्त कर दीजिए। इसके लिए लिखित में तो लिखा ही, अपनी मर्जी से नौकरी छोड़ने के एवज में जो धन सरकार को लगता है वो भी भर दिया। पूरे पांच लाख। सरकार भी इतनी सयानी कि माल अंटी कर लिया। नौकरी से मुक्त कर दिया फिर इधर-उधर से बताया कि हुजूर काहे पांच लाख पानी में डाल दिए। आप तो आईएएस हो, आपको थोड़ी तीन महीने की तनख्वाह जमा करना थी। चिट्ठी देते और रुखसत हो जाते। नोट-पानी तो राप्रसे वालों से लिया जाता है। मिसर जी को जैसे ही मालूम पड़ा कि एक भूल पांच लाख की पड़ गई है तो भौंचक हो गए। पर माल तो गयो...। अब चलाओ कागज-पत्तर...वापस दो...वापस दो कह के...। सरकार के हलक से हक का पैसा निकालने में आदमी हलाकान हो जाता है, ये पैसा कैसे मिलेगा जग (दीश) जाने। 



नारी शक्ति को प्रणाम



नारी शक्ति घर में हो या दफ्तर में, अपनी हो कि गैर...शक्ति ही होती है। हमसे न पूछो..जंगल महकमे के मुखियाजी से पूछो, जिन्हें अपने विभाग की महिला अफसर के सामने समर्पण करना पड़ा। किस्सा ये हुआ कि इन मैडमजी का तबादला दूसरी विंग में हो गया। मैडम चली भी जातीं, लेकिन उन्हें पता चला कि अब उनकी कुर्सी पर उनसे कनिष्ठ...बोले तो जूनियर अफसर विराजेंगे। यहीं से नारी शक्ति का उदय हुआ। मैडम जी ने नई विंग तो संभाली ही, पुरानी भी नहीं छोड़ी। अब जिन जूनियरजी को वहां बैठना था, वे रोज आते तो मैडम पहले से विराजित मिलतीं। मजबूरन जूनियरजी सामने वाली कुर्सी पर आगंतुक की तरह बैठकर नौकरी बजाते रहे। कुछ दिन यही चला तो बात चलकर विभाग के मुखियाजी तक पहुंच गई। किस्सा कुर्सी का बताया गया। साथ में निवेदन किया गया कि मैडम को नई विंग में भेजकर पुरानी हमारे हवाले करो। मुखियाजी ने हूं...हां...किया और कहा- कुछ करते हैं। कसम से कुछ नहीं कर पाए। एक तो मैडम खुद तेज-तर्रार, दूसरे उनके श्रीमान भी दमदार आईएएस। सीधे-साधे मुखियाजी की क्या बिसात कि कोई नई बिसात बिछाते। उन्होंने समर्पण का श्रेष्ठ मार्ग चुना। अपने ही आदेश में सुधारकर कनिष्ठ को प्रभारी बनाकर बीच का रास्ता निकाला। मैडम ने उसके बाद विंग छोड़ी। जब तक किस्सा कुर्सी का चला, तब तक मैडम ने वो सारी फाइलें निपटा दीं, जो लोकायुक्त या ईओडब्ल्यू मार्ग की ओर प्रस्थान कर सकती थीं। ऐसा हरिराम कह रहे हैं। पता नहीं कितना सच, कितना झूठ। हम तो चुप ही रहेंगे।



मुझे भी लगा सत्ता का रोग



संघ का सत्ता से कोई लेना-देना नहीं। अरे, हम काहे कहेंगे...ये तो संघ वाले ही कहते रहते हैं। पर लगता है संघ वाले मिसर जी ने ये सब सुना नही हैं। हां-हां...वो ग्वालियर वाले गिरीश मिश्रा। ये संघ के पदाधिकारी सुरेंद्र मिश्रा के भतीजे हैं और पार्षदी के लिए सिद्धांतो, निष्ठाओं की सारी सीमाएं लांघकर बगावत की सीमा में प्रवेश कर गए हैं। फारम भर दिए हैं बागी होकर। सारे के सारे नेता समझा लिए, मान भी जाओ। परिवार संघ से जुड़ा है, कुछ तो बात रख लो। मिसर जी हैं कि मानने को राजी नहीं। पार्टी ने सांसद विवेक शेजवलकर को दांव पर लगाया..तुमई समझाओ। विवेक जी ने तमाम विवेक लगाकर मिसर जी को समझाया,.लाभ-हानि बताया। नहीं माने। जीतेंगे-हारेंगे पता नहीं...लड़ रहे हैं। 



जय गणेश..जय लक्ष्मी



ये मोदक वाले नहीं, माल वाले गणेश हैं। जवाहर चौक पर कहीं स्थापित (रहते) हैं और यहीं से आशीर्वाद देते हैं, श्राप देते हैं। अभी निगम चुनाव में टिकट के इच्छाधारियों ने इनकी पीठ पर खूब धोक दी। ये अलग बात है कि इन गणेश का काम धोक से नहीं, धन से चलता है। एक बड़े नेता के निकट हैं गणेश, सो अपने यहां से टिकट का प्रसाद बांट रहे थे। आगे भी बंटता रहता, लेकिन एक भक्त को दी दुआ में कमी रह गई। उन्होंने अपनी घरवाली के टिकट के लिए धोक दी, भेंट दी। टिकट की बात ऊपर तक पहुंच भी गई थी। मिल भी जाता, पर आखिरी समय में कमेटी के किसी विघ्नसंतोषी ने विध्न डाल दिया। टिकट अटक गया तो भक्त ने गणेश से अपनी भेंट-पूजा वापस मांगी। आज दे देंगे...कल दे देंगे...। देते हैं...भाग थोड़ी रहे हैं...जैसे शब्दों के साथ जब भक्त को ज्यादा ही चक्कर लगवा दिए तो बात बाजार में आने लगी। इसके बाद मची भागदौड़। सरकार का गुप्त तंत्र भी सक्रिय हो गया और गणेश का वित्तीय लेखा-जोखा मुखिया तक पहुंचा दिया। अब कुछ ना कुछ तो होगा ही गणेश का...। गणेश से तो बड़े ही हैं ना शिव...। क्या कहते हो...।


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