हरीश दिवेकर। मई से पहले ही अप्रैल में नौतपा तप रहा है। वैसे बीते हफ्ते मध्य प्रदेश में खबरों की तपिश भी काफी रही। प्रदेश में शिक्षक पात्रता परीक्षा पेपर लीक मामला गुंजायमान है। ऐसे में एक व्हिसल ब्लोअर दिल्ली से गिरफ्तार हो गए। कांग्रेस को बना बनाया मुद्दा मिल गया। वहीं, सीधी में पत्रकार-रंगकर्मियों को थाने में अर्धनग्न किए जाने ने भी पुलिस की खासी भद पिटवाई। कई खबरें अंदरखाने भी पकीं। आप तो बस सीधे अंदर चले आइए...
जान बची, मंत्राणी ने लाखों पाए
मंत्राणी जी को विभाग तो मिला है तकनीकी शिक्षा को संभालने के लिए, अब शिक्षा का तो पता नहीं, लेकिन विभाग में तकनीक खूब चल रही है, यह पक्का है। तकनीक जान छुड़ाने की, तकनीक काले दाग से मुक्ति की। कहानी कुल जमा यह है कि कृषि विभाग में भर्ती हो रही है और ये भर्ती मंत्राणी यानी यशोधरा जी के तकनीकी विभाग के रास्ते होना है। मंत्राणी ऐसा नहीं चाहतीं। कारण व्यापमं है। जिस हिसाब से वहां चाहे जब बोतल से घपले का नया भूत प्रकट हो जाता है। मंत्राणी ये कतई नहीं चाहतीं कि कोई भूत उनके मंत्रालय की छत पर आकर बैठे और उन्हें जवाब देना भारी पड़ जाए।
एमपीटीईटी के पेपर लीक ने इस डर को और बढ़ा दिया। सो, मंत्राणी ने सारी तकनीक लगाकर इस भर्ती को जीएडी उर्फ सामान्य प्रशासन विभाग की तरफ खिसका दिया। कैबिनेट ने मान भी लिया, पर क्या करें। जीएडी खुद प्रेतों से परेशान हैं, सो मैडम की फाइल पर ऐसा वजन रखा कि नोटशीट बाहर झांक ही नहीं पाए। कुछ दिन तो मंत्राणी ने जीएडी में तांक-झांक कर अपनी फाइल की दशा और दिशा जानी और जब लगा कि उसे अफसरों ने स्थगन दे दिया है तो फिर मैडम ने बिगड़े मूड से मामा तक बात पहुंचाई। सुना है फाइल भूत की गति से दौड़ी। सुना है भर्ती के भूत से मंत्राणी की जान बच गई है।... सही सुना है।
ये प्यार है या कुछ और...
दारूबंदी को लेकर गुस्से में रही दीदी यानी उमा भारती और उनसे नाराज होकर दूर-दूर रहे मामा शिवराज सिंह चौहान कल तक व्हाया-व्हाया बात कर रहे थे। डायरेक्ट डायलिंग कट हो गई थी, लेकिन अब दीदी और मामा पक्के भाई-बहन बन गए। दोनों ही बोल रहे हैं प्यारा भाई-प्यारी दीदी..मां जैसी। ओह...।
आप सोच रहे होंगे कि ऐसा क्या हो गया जो दारू मुद्दा दरकिनार होकर बात दीदी-दीदी तक आ गई। हम बताए देते हैं। भैया, ये बीजेपी है। यहां पटरी छोड़कर ज्यादा दिन किसी को गाड़ी चलाने नहीं दी जाती। या तो ब्रेक लगा दिया जाता है या गाड़ी की हवा निकाल दी जाती है। कहने वाले कह रहे हैं कि दीदी की गाड़ी में दिल्ली से कोई ब्रेक वगैरह लगा है। सो उन्होंने अपनी गाड़ी पटरी से सीधे मामा की तरफ मोड़ दी है। आडवाणी प्रकरण...भाजश...याद है ना आपको। दूध का जला कोल्ड ड्रिंक भी फूंक-फूंक कर पीता है। ऐसा ही कुछ यहां भी है।
बात तो कमल की थी, कमलनाथ के हो गए
अरुण यादव पता है ना आपको। जी हां, वे ही कांग्रेस के प्राचीन प्रदेश अध्यक्ष, प्राचीन केंद्रीय मंत्री, खंडवा के सांसद और भी ना जाने क्या-क्या। कहा जा रहा था कि वे पार्टी से नाराज हैं। इतने ज्यादा कि उनके चाहने वालों ने चला दिया था कि खंडवा उपचुनाव में टिकट नहीं मिला तो कमलनाथ को छोड़ कमल के हो जाएंगे।
अरुण कहते रहे कमल में नहीं जाऊंगा, लेकिन कमलनाथ से भी दिल नहीं मिल रहा था। उन्हें डांवाडोल देख दिग्विजय ने थाम लिया था। अब ये मत पूछना क्यों थाम लिया था। लग रहा था अरुण लंबी लड़ाई लड़ेंगे। लेकिन राजनीति की लंबी लड़ाई का मंसूबा पाले बैठे अरुण एक छोटी सी यात्रा में हृदय परिवर्तन कर बैठे। यात्रा कांग्रेस के मुखिया कमलनाथ के साथ हुई । भोपाल से नलखेड़ा। हवा में। हवा से जब दोनों जमीन पर उतरे तो अरुण कमलनाथ मय हो चुके थे। इतने ज्यादा कि नाथ के दूत बनकर ग्वालियर में एक नेता के फैलाए रायते को भी समेट आए। अभी सब ठीकठाक है। अब ये ठीकठाक क्यों है, कितने दिन है, ये जानने के लिए आपको राज्यसभा चुनाव तक रुकना पड़ेगा। एक सीट है कांग्रेस के पास।
हार नहीं मानूंगा
इंदौर की सांवेर विधानसभा हालांकि इंदौर से 35 किलोमीटर दूर है, लेकिन एकाध मौका छोड़ दिया जाए तो वहां हमेशा ही इंदौर से नेता जाकर चुनाव लड़ते रहे हैं। चाहे कांग्रेस हो या बीजेपी। यहीं से नेता निर्यात होता है। प्रकाश सोनकर, तुलसी सिलावट, प्रेमचंद गुड्डू, राधाकिशन मालवीय, राजेंद्र मालवीय, राजेश सोनकर..सारे नाम इंदौर से हैं।
बीते चुनाव में तुलसी बीजेपी में आए और गुड्डू बीजेपी से कांग्रेस में गए। दोनों में मुकाबला हुआ और जिस तरह से गुड्डू 50 हजार पार होकर हारे थे, लग रहा था सांवेर के आसपास से भी नहीं निकलेंगे। कांग्रेसी खुद कहने लग गए थे कि भैया की राजनीति पर पूर्ण विराम लग गया है। कुछ नए कांग्रेसी भी सांवेर में उम्मीद से हो गए थे, पर सब भ्रम था।
हफ्तेभर पहले गुड़्डू सांवेर में महंगाई को लेकर बड़ा मजमा लगा आए। साथ में कद्दावर नेता मुकुल वासनिक से अपने रिश्तों का मुजाहिरा भी कर दिया। वासनिक इस समय प्रदेश के प्रभारी हैं। अब अलग से बताना पड़ेगा क्या कि इस मजमे और इस रिश्ते के प्रदर्शन का मकसद क्या था। हां, ये बात जरूर बतानी पड़ेगी कि भैया खुद इस बार एक कदम पीछे रहे और अपनी बेटी रीना बौरासी को आगे रखा। रीना को जिला अध्यक्ष बनवाकर वो राजनीति में विधिवत पदार्पण तो पहले ही करवा चुके थे। अब सांवेर में भी...। सुन रहे हैं ना तुलसी भैया।
राजनीतिक स्वास्थ्य ठीक नहीं है
इंदौर जिले के एक विधायक का राजनीतिक स्वास्थ्य इस बार ठीक नहीं है। ये हम नहीं कह रहे, नेताजी के आगे-पीछे वाले ही कह रहे हैं। आगे-पीछे वालों की सूचना जब नेताजी के कानों तक पहुंची तो वे भी पड़ताल के लिए सूचनाओं के पीछे-पीछे चल दिए। ज्यों-ज्यों आगे बढ़े, सूचनाएं पुख्ता होती गईं। फिर खुद का निजी सर्वे करवाया तो वहां से भी नेतागिरी में भारी ढलान के संकेत मिले।
बड़ी राजनीति करने के चक्कर में अपने क्षेत्र की राजनीति छोटी होती जा रही है। खबर आ रही है कि अब नेताजी ने गियर बदल दिया है। राम का नाम, काम ...बिना आराम...हर एक से राम-राम...। दिल में उतरने के जितने फॉर्मूले हो सकते हैं, सभी पर सख्ती से अमल कर रहे हैं। धीरे-धीरे परिणाम मिलने भी लगे हैं। कानों पर बात टकराने लगी है। भैया बदलते जा रहे हैं। जब चाहो, हाजिर हो जाते हैं। बदली सूचनाओं से भैया भी खुश हैं। खुशी की एक बात और है कि अगले चुनाव में सामने से जो नेताजी भैया के सामने आने का मंसूबा पाल रहे हैं, उनका राजनीतिक स्वास्थ्य तो इनसे ज्यादा खराब है। देखते हैं, क्या होता है।
दामाद नंबर वन
ससुर भए नेता तो काहे का डर। प्रदेश के एक कलेक्टर हैं। आदिवासी जिले में पदस्थ हैं और एक बड़े नेताजी के दामाद हैं, सो कलेक्टरी ठसक से करते हैं। इतनी ठसक से कि सरकार को भी किनारे कर रहे हैं। उनके 'आर्थिक कार्यक्रमों' की सूचना मामाजी तक पहुंच गई है। अभी हुई कलेक्टर-कमिश्नर कॉन्फ्रेंस में सीएम ने इशारों-इशारों में कहा भी कि आपके जिले से भ्रष्टाचार की सूचनाएं आ रही हैं। इसे देखें। अब क्या देखें। वो तो ये देख रहे हैं कि ससुर के भरोसे मालवा-निमाड़ का कोई हरा-भरा जिला मिल जाए, ताकि आर्थिक पर्यावरण सुधार की दिशा में कदम बढ़ा सकें। हालांकि, ससुर जी एक छोटे राज्य के प्रदेश अध्यक्ष हैं। लेकिन छोटा-बड़ा क्या होता है। हैं तो अध्यक्ष ना।
असली कलेक्टरी ये है
कलेक्टरों के काम की निगरानी की व्यवस्था सरकार ने बनाई है। बोले तो- आप जिले को कैसे संभाल रहे हैं, सरकारी योजनाओं, कामों को कैसे कर रहे हैं, इसका लेखा-जोखा हर महीने देना पड़ता है। अच्छा किया तो शाबाश और गड़बड़ की तो....तो...तो। इसमें दो तरह के कलेक्टर हैं। एक तो सच्ची में मैदानी काम कर रहे हैं और सरकार के लिए जी-जान से जुटे हैं, वो दमखम से अपना लेखा-जोखा भोपाल भेजते हैं। लेकिन एक बिरादरी ऐसी भी है, जो मैदान में कम और भोपाल में ज्यादा कलेक्टरी दिखा रही है। ये वो हैं, जो भोपाल में सेटिंग कर कागजों पर अपना कामकाज बहुत खूब बताकर शाबाशी ले उड़ते हैं। इसमें ऊपर बैठे अफसर भी साथ हो जाते हैं। अब वो कलेक्टर समझ नहीं पा रहे हैं कि जो कुछ नहीं कर रहा उसे तो...तो...मिलने के बजाए शाबाशी कैसे मिल रही है। समझना क्या है। वो भी तो कलेक्टर ही हैं भाई। अपना-अपना हुनर है। मैदान में चलाओ के भोपाल में।
खेला होबे
दिल्ली की बीजेपी भले ही कहती रहे कि परिवारवाद नहीं चलेगा। राजनीति में सगों की पैराशूट एंट्री नहीं होगी। ठीक है। पैराशूट से नहीं होगी। इधर-उधर से तो हो जाएगी ना। सो उतार दिए हैं बाल-बच्चों को खेल के मैदान में। अब खेला ये होबे कि नेताओं की बच्चा पार्टी खेल के मैदान से खेल कम राजनीति ज्यादा करेगी। फिर प्रोफाइल में दर्ज हो जाएगा कि नेताजी के बेटे नेताजी के भरोसे कतई नहीं है, खेल मैदान में खूब मेहनत करके नाम कमाए हैं। राजनीति में एंट्री तो बनती है ना जी। बन भी जाएगी। इशारा समझ गए ना आप। नहीं समझे..। तो फिर खेल को खेल भावना से लो।