GWALIOR : 1942 में जिस तिरंगे को लेकर बाजार में आंदोलन करने निकले थे रामचंद्र करकरे, उसे आज भी घर में रखा है सुरक्षित

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Dev Shrimali
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GWALIOR : 1942 में जिस तिरंगे को लेकर बाजार में आंदोलन करने निकले थे रामचंद्र करकरे, उसे आज भी घर में रखा है सुरक्षित

GWALIOR. पूरा भारत इस समय आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है और हर घर पर तिरंगा फहराया जा रहा है। यही तिरंगा पहले स्वतंत्रता आंदोलन का प्रतीक ध्वज था और इसी की छांव तले देश ने आजादी की लड़ाई लड़ी। हालांकि तब तिरंगा सरकार द्वारा घोषित राष्ट्रीय ध्वज नहीं था और इसमें चक्र की जगह खादी का प्रतीक चरखा बना होता था। इस तिरंगे के नीचे एकजुट हुए भारत के लोगों ने अंग्रेजी राज्य की चूलें हिला दी जिसके बारे में कहा जाता था कि उस साम्राज्य में कभी सूर्य अस्त ही नहीं होता।



आज हर घर तिरंगा लहराया जा रहा है तो ऐसा माहौल है जैसा जश्न भारतवासियों ने हर घर पर तिरंगा फहराकर मनाया था। लेकिन आपको जानकार आश्चर्य होगा कि 15 अगस्त 1947 के पहले ग्वालियर रियासत में तिरंगा झंडा फहराना तो दूर इसे अपने पास रखना भी प्रतिबंधित था और पकड़े जाने पर सीधे राजद्रोह का मुकदमा दर्ज हो जाता था। लेकिन आजादी के दीवानों को भला किसकी चिंता थी। 1942 में जब महात्मा गांधी ने पूर्ण स्वराज का नारा दिया तो ग्वालियर में भी आजादी के दीवाने  हाथ में तिरंगा लेकर सड़कों पर उतर आए। लाठीचार्ज और आंसू गैस के गोले भी झेलते आगे बढ़ रहे देश के दीवानों के संघर्ष का गवाह आज भी ग्वालियर में एक स्वाधीनता सेनानी के घर सुरक्षित रखा है जिसे परिवार के लोग हर वर्ष स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस पर निकालकर परिजन को दिखाते हैं।



करकरे परिवार के घर सुरक्षित रखा है ध्वज



ये अमूल्य धरोहर ग्वालियर के छत्रीमंडी क्षेत्र में रहने वाले करकरे परिवार के पास सुरक्षित है और वे इसको सहेजकर वैसे ही रखते है जैसे परिवार की विरासत में मिली अमूल्य धरोहर है। ईश्वर चंद्र करकरे का कहना है कि वैसे तो ये देश के लिए ही सबसे कीमती अमानत है लेकिन मेरे परिवार की तो यह अनमोल धरोहर ही है। इससे हमारे परिवार को देशप्रेम की प्रेरणा मिलती है और ये गर्व भी महसूस होता है कि स्वतंत्रता के आंदोलन में हमारे परिवार का भी रंच मात्र योगदान रहा है।



1942 में पूर्ण स्वराज की मांग की थी



रामचंद्र करकरे मूल रूप से नेताजी सुभाष चंद्र बोस के समर्थक थे। 1936 में जब अंग्रेजी हुकूमत और ग्वालियर की सिंधिया रियासत ने यहां राज्यसभा के चुनाव कराए ताकि उत्तरदाई सरकार का गठन किया जा सके। रामचंद्र करकरे इसमें राज्यसभा के लिए भारी बहुमत से विजयी हुए लेकिन अगस्त 1942 में महात्मा गांधी ने अंग्रेजों द्वारा बनाई गई उत्तरदाई सरकार को अस्वीकार कर ऐलान कर दिया कि भारत को पूर्ण स्वराज चाहिए। वहीं रामचंद्र करकरे ने भी राजयसभा से इस्तीफा देकर उसका समर्थन किया। पूर्ण स्वराज के समर्थन को तत्कालीन सरकार ने राजद्रोह घोषित कर दिया था लेकिन आजादी के दीवाने भला इससे कब डरने वाले थे।



जुलूस निकालकर सड़कों पर चिल्लाए भारत माता की जय



ग्वालियर में पूर्ण स्वराज को लेकर आंदोलन न हो पाए इसके लिए अंग्रेजी सरकार के हुक्म पर तत्कालीन शासकों ने चप्पे-चप्पे पर सशत्र पुलिस का पहरा बैठा दिया था लेकिन इस सारी व्यवस्था को चकमा देकर नौ युवा स्वतंत्रता सेनानी जुलूस लेकर निकल पड़े। उन्होंने ये जुलूस छत्री मंडी से शुरू किया और जब तक पुलिस को भनक लग पाती तब तक ये लोग भारत माता की जय और वन्दे  मातरम तथा पूर्ण स्वराज लेकर रहेंगे के नारे लगाते हुए जनकगंज थाने तक पहुंच गए। यहां इन पर लाठीचार्ज करके खदेड़ने की कोशिश की गई लेकिन ये लोग नहीं माने।



आंसू गैस के गोले छोड़े



ये 9 जुनूनी युवा जिनमें करकरे के अलावा श्याम लाल पाण्डवीय, गोपीकृष्ण कटारे, देवलाल रूद्र, सदानंद और प्रभुदयाल आदि शामिल थे आगे बढ़ते रहे। जब ये मोर बाजार तिराहे तक पहुंच गए तो इन पर आंसू गैस के गोले छोड़े गए। कहा जाता है कि ग्वालियर में आंसू गैस के गोलों का उपयोग पहली बार तब ही हुआ था। धुएं में इनका दम घुटने लगा तो चारों तरफ से पुलिस ने डंडों और बन्दूक की बटों से इनको पीटना शुरू कर दिया लेकिन ये वन्दे मातरम और भारत माता की जयकारे लगाते रहे और अंतत: पुलिस ने इन्हें घेरकर गिरफ्तार करके जेल में डाल दिया। तत्कालीन रेजिडेंट ने अपने आकाओं को इस सफलता की रिपोर्ट भेजते हुए कि ये खतरनाक किस्म के हैं और इन्होंने राजद्रोह का अपराध किया है। लम्बे समय जेल में बिताने के बाद इनकी तब रिहाई हो सकी जब अंग्रेजों ने पूर्ण स्वराज की मांग स्वीकार कर ली।



थाने से वापस लिया झंडा



स्वाधीनता सेनानी रामचंद्र करकरे ने अपने जब्त तिरंगा वापस लेने के लिए अर्जी लगाई। जब उनपर लगा राजद्रोह का केस खत्म हो गया तो उन्होंने अर्जी लगाई कि उनसे देश की आन-बान और शान तिरंगा ध्वज जब्त किया गया था उसे वापस किया जाए। काफी खतो-कितावत के बाद आखिरकार उन्हें वो झंडा वापस मिला। तब से ये झंडा करकरे परिवार के पास सुरक्षित रखा हुआ है। जब रामचंद्र करकरे नहीं रहे तो उनके बेटे ईश्वर चंद्र करकरे इसे सुरक्षित रखे हुए हैं। वे कहते हैं ये क्रांतिवीर रामचंद्र करकरे के स्वतंत्रता आंदोलन में संघर्ष, बलिदान और विजय गौरव की निशानी है।


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