Bhopal. द सूत्र के साप्ताहिक कार्यक्रम साहित्य सूत्र में इस बार (16 अप्रैल) युवा कवि और IAS अफसर अभिषेक सिंह रूबरू हुए। अभिषेक का पहला काव्य संग्रह स्याही के रंग आया है। इसी पर द सूत्र के एडिटर सुनील शुक्ला ने अभिषेक से उनकी कविताओं के कथ्य, पारिवारिक संबंध, स्त्री, सच, उनके अफसर होने के साथ कवि होने और प्रशासनिक चुनौतियों पर बात की।
अभिषेक के मित्र कलाप्रेमी संतोष कुमार द्विवेदी ने उनकी किताब का संपादन किया है। इन मित्र का कहना है कि अभिषेक ने अपनी कविताओं में पूरी सृष्टि को समेटने की कोशिश की है। अभिषेक कहते हैं कि कविताएं उनका आत्मकथ्य (खुद की आत्मा की आवाज) है। वास्तव में आप जब कवि या साहित्यकार के रूप में होते हैं तो जो आपने देखा है, उसे शब्दों के रूप में व्यक्त करते हैं।
सहज-सरल शब्दों में लिखते हैं अभिषेक
अभिषेक ने हिंदी साहित्य में एमए किया है। खुद के सहज और आम बोलचाल के शब्दों में लिखने को लेकर वे कहते हैं- जो चीज में मैं महसूस करता हूं और उसे उसी रूप में उकेर देता हूं तो इसे आप भी महसूस कर पाएंगे। हां, सहमत या असहमत होना एक विषय हो सकता है। चीजों को यथारूप में रखने से आप जिनके लिए, जिस सोसाइटी के लिए लिखना चाहते हैं, वो कनेक्ट हो जाता है। इससे लेखक की ईमानदारी भी झलकती है।
अपनी कविताओं के लिए क्या बोले अभिषेक?
मानवीय संबंधों की कविता पर
अभिषेक ने पूर्वजों से लेकर बच्चों तक की संवेदनाओं कविताओं में जगह दी है। अपनी कविता ‘बड़ी बहनें’ के बारे में बताते हैं- बड़ी बहनें मां नहीं हैं, लेकिन वे मां की कमी खलने नहीं देतीं। जहां मां ना मौजूद हो, वहां बहनें छोटे भाई को गोद में उठा लेती हैं और भाई को मां बिना रहने नहीं देतीं।
पिता में भी मां होती है
अभिषेक कहते हैं कि जब मैंने साहित्य समझकर लिखना शुरू किया तो देखा कि मां-बहनों-बेटियों यानी महिलाओं को कोमल बताया जाता है, लेकिन पिता को कठोर दिखाया जाता है। पिता को बताया जाता है कि वो दुख व्यक्त नहीं करते। मैंने महसूस किया कि बच्चियां कैसे पिता को बदल देती हैं।...पिता को कैसे मां बना देती हैं बेटियां...। अभिषेक लिखते हैं कि बेटियां, पिता की दूसरी मां होती हैं...वो पिता में ममत्व भर देती हैं और उन्हें मां बना देती हैं। बेटियां पिता को हंसना सिखाती हैं, उन्हें अपने हाथ से खाना खिलाती हैं। उनकी दवाइयां याद रखती हैं और उनकी अचकन धोकर बिना नागा इस्त्री करती हैं।
धरती और स्त्री की तुलना
अभिषेक कहते हैं कि धरती पालन-पोषण करती है। ईश्वर ने स्त्री को सृजन की क्षमता दी है। स्त्री के लिए पुरुष आलंब होता है। ईश्वर ने संसार की सारी कोमल भावनाएं स्त्री को दी हैं। मैंने यही भावनाएं अपनी कविताओं में व्यक्त की हैं।
खुद के एक प्रशासक के रूप में
अभिषेक के मुताबिक, जब आप सत्ता के प्रतिष्ठा से जुड़े होते हैं, सत्ता यानी शक्ति, फिर चाहे आप प्रशासनिक पद पर हों या पत्रकारिता में, शक्ति के माध्यम से आप लोगों का भला भी करते हैं। ईश्वर ने शक्ति के लिए रिस्ट्रिक्ट किया है। अक्सर शक्ति हावी जाती है। इससे सामंजस्य बनाकर चलना ही जिंदगी है।
सच बताने को लेकर
अभिषेक एक कविता में लिखते हैं- ‘मैं इस खौफ में जीता हूं कि सच कहूंगा तो मारा जाऊंगा...। इस कदर डरा हुआ हूं कि सच नहीं कहूंगा तो घुटन से मर जाऊंगा...। बड़े लोगों के पहले आते हैं छोटे लोग।’ अभिषेक पूछते हैं कि आखिर सच क्या है। जो चार शताब्दी पहले सच था, वो आज गलत हो गया। सच एक निरंतर खोज की प्रक्रिया है। भगवान राम के समय से देखें, किसी भी धर्म-परंपरा में देखें तो जब कुछ दृढ़ता से कहें तो लोग डरते हैं। सच को स्वीकार करना कठिन बात है। अगर मैंने ये लिखा कि सच कहा तो मारा जाऊंगा, ये दरअसल व्यवस्था की बात है। जब गैलीलियो ने कहा कि धरती, सूर्य का चक्कर काट रही है तो लोगों ने इसे स्वीकार ही नहीं किया।