पन्ना : केन-बेतवा लिंक पर बोलीं पूर्व मंत्री कुसुम मेहदेले, 'बाघ खत्म हो जाएंगे'

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Shivasheesh Tiwari
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पन्ना : केन-बेतवा लिंक पर बोलीं पूर्व मंत्री कुसुम मेहदेले, 'बाघ खत्म हो जाएंगे'

अरुण सिंह, panna. केन नदी के किनारे स्थित गांव के लोग बहुचर्चित केन-बेतवा लिंक परियोजना (Ken-Betwa Link Project)को लेकर सशंकित और चिंतित हैं। बीरा गांव के वीरेंद्र सिंह (75 वर्ष) अपनी चिंता जाहिर करते हुए कहते हैं कि "केन को पानी यदि ऊपर छेंक लेहें तो हम का करबी। हमसे कउनो राय व सहमति नहीं ली गई, जा तो हम लोगन के संगे सरासर धोखाधड़ी है"। ग्रामीणों का साफ कहना है कि केन के पानी पर पहला हक हमारा है। हम केन के पानी को रोककर बांध बनाने तथा उस पानी को दूसरी जगह ले जाने की योजना का विरोध करते हैं। हम किसी भी कीमत पर जिंदा नदी को मरने नहीं देंगे, क्योंकि इस नदी की जलधार पर ही हमारा जीवन निर्भर है।



उल्लेखनीय है कि पन्ना जिले से प्रवाहित होने वाली केन नदी रीठी कटनी के पास से निकलती है और 427 किलोमीटर की दूरी तय करने के बाद उत्तर प्रदेश के बांदा में यमुना नदी से मिल जाती है। ढोढन गांव के निकट जहां पर बांध का निर्माण होना है, वह नदी के उद्गम स्थल से लगभग 200 किलोमीटर की दूरी पर है। इस तरह से बांध के निचले क्षेत्र में नदी की लंबाई तकरीबन 227 किलोमीटर बचती है, जहां सैकड़ों की संख्या में पन्ना, छतरपुर व बांदा जिले के गांव स्थित हैं। 44 हजार करोड रुपए से भी अधिक लागत वाली इस परियोजना को मंजूरी देने से पूर्व केन नदी के किनारे स्थित ग्रामों के रहवासियों से ना तो सहमति ली गई और ना ही उन्हें बांध बनाने के बाद जो हालात बनेंगे उसकी हकीकत बताई गई। केन नदी के किनारे स्थित फरस्वाहा गांव के करण त्रिपाठी (55 वर्ष) का कहना है कि बांध बनने से केन की जलधार यदि रुक गई तो केन किनारे के गांवों में जिंदगी मुश्किल हो जाएगी। केन नदी में यदि पानी नहीं रहा तो इन गांवों के लोग कैसे जिंदा रहेंगे? क्योंकि केन नदी किनारे स्थित ग्रामों के जीवन का आधार है।



प्रदेश की पूर्व मंत्री महदेले ने उठाए सवाल



मध्यप्रदेश शासन की पूर्व कैबिनेट मंत्री व भाजपा की वरिष्ठ नेता कुसुम सिंह महदेले ने केन-बेतवा लिंक परियोजना को पन्ना जिले के लिए घातक बताया है। इस परियोजना के बारे में उनकी राय जानने के लिए जब संपर्क किया गया तो उन्होंने बड़ी बेबाकी से कहा कि पन्ना जिले में पानी की कमी हो जाएगी तथा केन नदी के किनारे के गांव पेयजल के साथ-साथ सिंचाई से भी वंचित हो जाएंगे। यह पन्ना जिलावासियों के साथ बहुत बड़ा अन्याय हो रहा है, जिसका विरोध होना चाहिए। कुसुम महदेले का कहना है कि बीते एक दशक में ही रेत कारोबारियों ने केन नदी को इस कदर खोखला कर दिया है कि वह कंगाल हो गई है। गर्मी शुरू होते ही मार्च और अप्रैल के महीने में इस सदानीरा नदी की जलधारा टूट जाती है। जिससे केन किनारे स्थित ग्रामों के लोगों को भीषण पेयजल संकट का सामना करना पड़ता है।



टूरिज़्म के लिए स्लो डेथ साबित होगा डैम



राज्य वन्य प्राणी बोर्ड के पूर्व सदस्य तथा केन किनारे स्थित पन्ना जिले के पर्यटन विलेज मंडला में पर्यटन व्यवसाय से जुड़े श्यामेन्द्र सिंह (बिन्नी राजा) बताते हैं कि केन-बेतवा लिंक परियोजना से पर्यटन व्यवसाय बुरी तरह प्रभावित होगा। इस बाबत उनका तर्क है कि वाइल्डलाइफ टूरिज्म में टाइगर के अलावा दूसरा कोई ऐसा एनिमल नहीं जो पर्यटकों को इतना आकर्षित करे। डैम बनने से टाइगर रिजर्व का 28 से 30 फ़ीसदी हिस्सा डूब में आ जाएगा, शेष बचा एरिया 70 बाघों के लिए छोटा पड़ेगा। इतने बाघ 250 - 300 वर्ग किलोमीटर के एरिया में पनप पाएंगे इसकी संभावना बहुत कम है। यह स्थिति धीरे-धीरे स्लो डेथ की ओर ले जाएगी। इंटर ब्रीडिंग व जेनेटिक कारणों से एक बार फिर बाघों के खत्म होने का खतरा उत्पन्न हो जाएगा। मंडला गांव जो वाइल्डलाइफ टूरिज्म के कारण फल-फूल रहा है, उसका भविष्य अंधकार में चला जायेगा।



क्या केन नदी में अतिरिक्त पानी है ?



केन-बेतवा लिंक परियोजना महज 18 साल के पानी के आंकड़ों पर आधारित है। यदि हम अतीत पर नजर डालें तो अमूमन यहां अल्प बारिश (सूखा) की स्थिति रहती है। बाढ़ की स्थिति अमूमन 10 वर्ष में एक बार आती है। पिछले चार दशकों के दौरान केन नदी में दो बार वर्ष 2005 व 2011 में बाढ़ के हालात निर्मित हुए थे। तो फिर इस नदी में अधिशेष जल कहां है? पन्ना जिले की पूर्व कलेक्टर दीपाली रस्तोगी जिनके कार्यकाल (2005) में बाढ़ आई थी। उन्होंने एक दशक पूर्व ही केन-बेतवा लिंक परियोजना के दुष्परिणामों की ओर ध्यान आकृष्ट कराते हुए चेताया था। पूर्व कलेक्टर ने शीर्ष अधिकारियों को बताया था कि यदि केन बेसिन के लोगों की बुनियादी जरूरतें पूरी की जाएं तो केन नदी में कोई अतिरिक्त पानी नहीं बचेगा। उन्होंने यहां तक लिखा था कि केन-बेतवा नदी जोड़ो परियोजना केन बेसिन के लोगों के लिए एक त्रासदी होगी।



डूब क्षेत्र में आने वाले पेड़ों का सच



इस विवादित परियोजना से प्रकृति व पर्यावरण की क्षति के बारे में शुरू से ही पूर्वाग्रह पूर्ण रवैया अपनाया जा रहा है। प्रारंभ में परियोजना के दस्तावेजों में डूब में आने वाले पेड़ों की संख्या सिर्फ 9525 से अधिक बताई गई थी, जो अब 23 लाख पेड़ों तक जा पहुंची है। एक रिपोर्ट में तो यहां तक कहा गया है कि परियोजना में तकरीबन 44 लाख पेड़ कटेंगे। सूखे की विभीषिका झेलने वाले इस इलाके में क्या इतनी बड़ी संख्या में वृक्षों के विनाश का जोखिम उठाना समझदारी होगी? पर्यटन पर आधारित एक मात्र आजीविका की धरोहर पन्ना टाइगर रिजर्व 70 से भी अधिक बाघों का घर है। यहां तेंदुआ, भालू , नीलगाय, फिशिंग कैट, चिंकारा, चीतल, चौसिंगा व सांभर जैसे सैकड़ों प्रजाति के वन्यजीवों सहित 247 प्रजाति के पक्षी रहते हैं। यहां विलुप्त प्राय गिद्धों की सात प्रजातियां भी निवास करती हैं। यूनेस्को ने जिस वन क्षेत्र को बायोस्फीयर रिजर्व की वैश्विक सूची में शामिल किया है, उस अनमोल धरोहर को नष्ट करने की योजना भला कैसे हितकारी साबित होगी?



क्या हो सकता है परियोजना का विकल्प ?



बुंदेलखंड क्षेत्र के लोगों की जल समस्या का समाधान करने के साथ-साथ जैव विविधता को भी बचाया जा सके, क्या ऐसा कोई विकल्प है? एक अध्ययन रिपोर्ट में बुंदेलखंड के बांदा जिला स्थित जखनी गांव का जिक्र किया गया है। इस गांव ने अपने दम पर पानी की समस्या का निराकरण किया है। नीति आयोग ने भी इस गांव को जल ग्राम का मॉडल घोषित किया है। इस गांव ने जल संरक्षण के बेहतर उपाय किए हैं। जिनमें खेत में तालाबों का निर्माण, जलाशयों का जीर्णोद्धार, वर्षा जल संचयन, खेत में पानी रोकने मेड़ बनाना, साथ ही वृक्षारोपण जैसे उपाय शामिल हैं। जानकारों का यह मानना है कि यदि दो से तीन सौ करोड़ रुपए खर्च कर बुंदेलखंड क्षेत्र के प्राचीन चंदेल कालीन तालाबों को पुनर्जीवित कर दिया जाए तो 3 साल में ही जल की समस्या का समाधान हो सकता है। अब विचारणीय बात यह है कि जब इतनी कम धनराशि खर्च कर समस्या का समाधान हो सकता है तो पर्यावरण के लिए विनाशकारी व बेहद खर्चीली (44 हजार करोड़) परियोजना के लिए आखिर इतनी ज़िद क्यों ? सरकार द्वारा बड़े-बड़े दावे किए जा रहे हैं कि इस परियोजना के मूर्त रूप लेने पर पूरे इलाके में खुशहाली आ जाएगी। लेकिन परियोजना के पूरा होने में कितना समय लगेगा और इस दौरान प्रकृति व पर्यावरण का किस कदर विनाश होगा इस पर भी विचार किया जाना चाहिए। परियोजना के पूरा होने तक प्रकृति व पर्यावरण को जो क्षति होगी उसके क्या दुष्परिणाम होंगे, इस पर कोई चर्चा नहीं होती। भविष्य में परियोजना का लाभ जिनको मिलना है, वे किस हालत में बचेंगे इस विषय पर भी विमर्श जरूरी है। यहां यह बताना उचित है कि वर्ष 2009 में पन्ना टाइगर रिजर्व बाघ विहीन हो गया था। उस समय संरक्षण के अथक जमीनी प्रयासों व स्थानीय जनता के सहयोग से बाघों को फिर से आबाद करने में सफलता मिली है। पन्ना में सिर्फ खूबसूरत जंगल ही नहीं बल्कि यह उम्मीद की एक किरण है। विपरीत परिस्थितियों में भी अपने को बचाए रखने का प्रतीक है पन्ना। लेकिन नई चुनौतियां फिर खड़ी हैं, क्या इस बार पन्ना बच पायेगा ?


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