DATIA के रतनगढ़ TEMPLE से जुड़ी पूरी STORY। यहां सर्पदंश से पीड़ित लोग क्यों पहुंचतें हैं, Know All Facts। Datia News
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दतिया के रतनगढ़ मंदिर पर भाई दूज पर पूजा करने पहुंचते है लाखों लोग, इससे जुड़ी कहानी आपको रोमांचित भी करेगी और गौरवान्वित भी

Dev Shrimali
26,अक्तूबर 2022, (अपडेटेड 26,अक्तूबर 2022 10:48 AM IST)
रतनगढ़ माता का मंदिर।
रतनगढ़ माता का मंदिर।

देव श्रीमाली, GWALIOR/DATIA. ग्वालियर और दतिया जिले की सीमा पर घनघोर वनखण्ड में ऊंचे पहाड़ पर स्थित विश्व प्रसिद्ध रतनगढ़ माता मंदिर पर आज से लक्खी मेला शुरू हो गया है। इस मेले में हर वर्ष पच्चीस से तीस लाख श्रद्धालु पहुँचते है और आज सुबह तक दस लाख से ज्यादा लोग पहुंच चुके थे। ख़ास बात ये है हालाँकि अब यहाँ तक पहुंचने के लिए सड़क और सीढ़ियां बन गयीं है। आसपास की नदियों पर पुल बन गए है लेकिन जब ये सब नहीं थे तब भी श्रद्धालु दुष्कर यत्रा करके इतनी ही बड़ी संख्या में सोलहवीं शताब्दी से यहाँ दीवाली की दौज पर पहुँचते रहे हैं। यहाँ पहुँचने वाले भक्तों में बड़ी संख्या सर्पदंश के शिकार लोगों और उनके परिजनों की भी रहती है। 

विंध्य पर्वतमाला पर स्थित है यह मंदिर 

यह मंदिर विंध्य पर्वतमाला की चोटी पर स्थित है जिसके एक तरफ ग्वालियर की सीमा लगती है और दूसरी तरफ दतिया की।  दोनों ही तरफ से यहां पहुंचा जा सकता है लेकिन यह स्थान है दतिया जिले में स्थित। ऊपर खुआ समान और नीचे हरीतिमा की चादर बिछी इस पर्वत श्रंखला पर मौजूद इस मंदिर को देखकर ऐसा लगता है मानो रतनगढ़ माता का यह मंदिर इस पर मुकुट की तरह माहे पर लगा हो। इसके पूर्व से सिंध नदी प्रवाहित होती है यह इसके आसपास ऐसे सर्पाकार घूमती लगता है मानो यह मुड़ - मुड़कर माता के दर्शन करने को ब्याकुल और आतुर है। घनघोर वनखण्ड में एक अलग तरह की आध्यात्मिक शांति पसरी दिखती है लेकिन भय और आशंका रंच मात्र भी नहीं रहती। 

माता और कुंवर बाबा के मंदिर है 

रतनगढ़ ,विंध्य पर्वत श्रृंखला की उत्तरी छोर पर स्थित है। यहाँ  स्थित पहाड़ की चोटी के एक ओर देवी माता का मंदिर तथा दूसरे छोर पर कुंवर महाराज का मंदिर है स्थापित है। यहाँ दीपावली की भाई दूज के दिन लख्खी मेला लगता है।

खिलजी ने किया था यहां आक्रमण 

इस क्षेत्र में पदस्थ एडिशनल कलेक्टर और ग्वालियर -चम्बल अंचल के इतिहास पर व्यापक शोध कार्य करने वाली रूपेश उपाध्याय बताते हैं कि  इस मेले का भाई दौज के दिन आयोजन के संदर्भ ऐतिहासिक है। तेरहवी शताब्दी में आरम्भ में जब अलाउद्दीन खिलजी ने इटावा होकर बुन्देलखण्ड पर आक्रमण किया उस समय रतनगढ़ में राजा रतनसेंन परमार थे। 


उनके एक पुत्री मांडुला तथा अवयस्क पुत्र कुंवर थे। राजकुमारी मांडुला अनिध्य सुंदरी थी। इस बात का पता जब खिल जी को चला तो उसने इटावा से अपनी सेना रतनगढ़ की तरफ मोड़ दी और इस रियासत पर आक्रमण कर दिया।अलाउद्दीन खिल जी केरतन गढ़ पर हमले का एकमात्र मकसद था राजकुमारी मंडला को हासिल करना । दोनो सेनाओं में भयंकर युद्ध हुआ।  राजा रतन सेन  और उनकी सेना बहादुरी से लड़े , पर परास्त होकर वीरगति को प्रप्त हुए । लेकिन खिलजी के मसूबे सबको पता चल चुके थे तो राज्य की हिन्दू महिलाओं ने सामूहिक रुप से जौहर व्रत में आत्मोसर्ग किया। जहाँ रतनसेन का अनेक योद्धाओं के साथ दाह संस्कार हुआ उसे आज चिताई कहते है। राजकुमारी मांडुला तथा राजकुमार कुंअर ने भी घास की ढेरी में आग प्रज्वलित कर स्वयं के प्राण त्याग दिये। 

समर्थ रामदास ने यहाँ मढ़िया में की थी मूर्ति स्थापना 

कालान्तर में यह राज कन्या और राज कुंअर देव सदृश पूजे जाने लगे। उपाध्याय बताते हैं कि तब यह स्थान निर्जन था और यहाँ समर्थ रामदास जी तपस्या करने आये और उन्होंने ही यहाँ एक मढ़िया में मूर्ति स्थापित कराई इसके बाद से ही  यह स्थान रतनगढ़ की माता के नाम से प्रसिद्ध  हुआ।

आस्था का बड़ा कुम्भ 

रतनगढ़ मंदिर पर हर दीवाली की दौज को लगने वाले इस मेले में सदैव से ही लाखों लोगों की भीड़ जुटती है इसलिए यह मेला शताब्दियों से लक्खी मेले के नाम से ही प्रसिद्ध है और भाई  - बहिन  के प्राणोत्सर्ग की स्मृति में लगने वाले इस लक्खी मेले में हर वर्ष  बीस से तीस लाख लोग आते हैं। यह अंचल में आस्था का बड़ा कुम्भ है। 

सर्पदंश के शिकार भी पहुँचते है 

इस मेले में देशभर में सर्पदंश या अन्य बिषैले जीव और जंतुओं के शिकार हो चुके लोग भी हजारों की संख्या में यहाँ पहुँचते है। मान्यता है कि शर्पदंश के बात कुंवर बाबा और रतनगढ़ माता का नाम लेकर काटने के सत्ता ने पास बंध बाँध दिया जाए तो इसका जहर ऊपर नहीं चढ़ता लेकिन वह बांध खोने के लिए दीवाली की दौज पर यहाँ पहुंचना पड़ता है। एक चमत्कारिक बात ये है कि सर्पदंश का शिकार व्यक्ति जैसे ही रतनगढ़ पहाड़ी के नीचे पहुंचता है वैसे ही मूर्छित  जाता है। फिर उसे कुंवर बाबा के सामने पेश किया जाता है जहाँ बांध काटा जाता है और फिर वह पूरी तरह स्वस्थ होकर परिक्रमा और माता के दर्शन करता है। 

पशुओं को लेकर भी पहुँचते हैं लोग 

ख़ास बात ये है कि लोग अपने सर्पदंश के शिकार और बांध लगे पशुओं को लेकर भी यहाँ पहुँचते है और फिर उन्हें ख़ुशी -ख़ुशी अपने घर वापिस लेकर जाते हैं। उपाध्याय कहके थे हैं कि अब प्रशासन ने यहाँ साढ़े तीन हजार से ज्यादा स्ट्रेचर की भी व्यवस्था की है क्योंकि मूर्छित लोगों को ऊंचे पहाड़ पर उठाकर ले जाना बूत ही मुश्किल काम है। अब जिन लोगों के साथ पर्याप्त सहयोगी नहीं होते वे स्ट्रेचर पर उन्हें कुंवर बाबा के स्थान तक लेकर चले जाते हैं।आस्था और विश्वास के इस महाकुंभ  में कोई खाली हाथ नही जाता  ।

कभी डकैतों का सबसे बड़ा शरणगाह था रतनगढ़ 

रतनगढ़ का इलाका एक तो एमपी और यूपी के अनेक जिलों की सीमाओं का स्पर्श करता है। इसके आसपास विंध्य की दुर्गम पर्वत शंखला और घना जंगल है लिहाजा नब्बे के दशक तक यह इलाका चम्बल के डकैतों का बड़ा संरक्षक रहा है। दस्यु उन्मूलन के मामले में एक्सपर्ट रहे ,राष्ट्रपति के वीरता पदक विजेता केडी सोनकिया कहते हैं कि मान सिंह से लेकर ,रूपा ,लाखन ,पुतली बाई ,मोहर सिंह और माधोसिंह और फिर मलखान सिंह की गेंग ही नहीं यूपी के छविराम और राजस्थान के कई गेंग यहाँ शरण पाते थे। वे यहाँ घंटा चढाने भी आते थे लेकिन उन्होंने उस क्षेत्र में कभी किसी भी भक्त या ग्रामीण को छुआ तक नहीं जो रतनगढ़ जा रहा हो। एक दशक अफ्ले हरिबाबा ने मुखबिरी के संदेह में कुछ साधों की हत्या जरूर की थी लेकिन उसके बाद ही वह भी मुठभेड़ में मारा गया। 

रतनगढ़ में भगदड़ में गयीं थी सैकड़ों लोगों की जान 

14 अक्टूबर 2013  को लगे लक्खी मेले में पुल टूटने की अफवाह फ़ैल जाने के कारण भगदड़ मच गयी थी इस हादसे में सैकड़ों की संख्या में श्रद्धालुओं की मौत हो गयी थी।  अनेक लोग जान बचाने के लिए नदी में कूद गए थे जिन्हकी मौत बहकर पानी में हो गयी थी। 

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