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प्रवीण शर्मा, Bhopal. देश ने आज एक आदिवासी महिला को अपना प्रथम नागरिक और राष्ट्राध्यक्ष बनाने का गौरव हासिल कर लिया। झारखंड की पूर्व राज्यपाल द्रौपदी मुर्मू ने आज 15 वें राष्ट्रपति के रूप में शपथ ग्रहण की। श्रीमती मुर्मू द्वारा नामांकन जमा करने के साथ ही बीजेपी पूरे मध्यप्रदेश में जश्न मना रही है। हर जिले में आदिवासी थीम पर जश्न मनाया जा रहा है। मगर एक दौर वह भी था, जब प्रदेश में आजादी के बाद हुए पहले चुनाव में आदिवासी वर्ग से प्रत्याशी ही ढूंढे नहीं मिल रहे थे। संयुक्त मध्यप्रदेश यानी मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के जिलों को मिलाकर कुल नौ सीटें अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित थीं, इनमें महिलाओं की कल्पना तो दूर की कौड़ी थी, पुरूष प्रत्याशी भी कांग्रेस तक को नहीं मिल पा रहे थे। नौ में से चार सीटों पर जिसने फार्म भर दिया, वही विधायक बनकर विधानसभा में पहुंच गया था।
मध्यप्रदेश में पहला चुनाव आजादी के बाद 1951-52 में हुआ था। इस चुनाव में आदिवासी वर्ग से कुल नौ विधायक चुने गए थे। एसटी के लिए आरक्षित इन नौ सीटों में से आठ सीटें छत्तीसगढ़ थीं तो मध्यप्रदेश की केवल चचोली सीट ही थी। इस पहले चुनाव में प्रदेश में अजीबोगरीब स्थिति बन गई थी। खासकर आदिवासियों के आरक्षित सीटों से चुनाव लड़ाने के लिए कांग्रेस, जनसंघ, कम्युनिस्ट पार्टी सहित किसी भी दल प्रत्याशी तक नहीं मिल रहे थे। हालत यह हुई कि नौ सीटों पर केवल 21 प्रत्याशी ही आदिवासी वर्ग के मिल सके थे। इसमें से भी केवल सामरी सीट पर ही छह प्रत्याशी चुनाव लड़ रहे थे। चार सीटों चचोली, नारायणपुर, सुकमा और केसल में एक-एक प्रत्याशियों के ही नामांकन जमा हुए थे। इनमें से दो कांग्रेस के दो प्रत्याशी थे। साथ ही दो निर्दलीय विधायक चुने गए थे। चारों प्रत्याशी बिना चुनाव लड़े ही विधायक चुनकर विधानसभा पहुंचे थे।
पहली विधानसभा में नहीं थी एक भी महिला विधायक
कुल 232 सदस्यों वाली संयुक्त प्रदेश की पहली विधानसभा सारे सदस्य पुरूष ही थे। इसमें एक भी महिला विधायक नहीं थी। इतना ही नहीं, एक भी महिला ने किसी भी सीट से नामांकन तक नहीं भरा था। अनुसूचित जाति के लिए कोई सीट आरक्षित नहीं थी। दूसरी विधानसभा के लिए हुए चुनाव में ही महिलाएं और अनुसूचित जाति के विधायक प्रदेश को मिल सके थे।
48 सीटों पर चुने जाते थे दो-दो विधायक
पहले चुनाव में प्रदेश में कुल 184 सीटें होती थीं। इनमें से 132 सीटों पर एक-एक ही विधायक चुने जाते थे तो 48 सीटें दो सदस्यों वाली होती थी। यानी नाम एक ही होता था, लेकिन दोनों का क्षेत्र अलग-अलग होता था। अगले यानी दूसरे चुनाव में सिंगल सदस्य वाली सीटें बढ़कर 149 हो गईं तो डबल सदस्यीय सीटों की संख्या भी बढ़कर 69 हो गईं। इस तरह 1957 में हुए दूसरे चुनाव में कुल 212 सदस्य विधानसभा पहुंचे। इनमें अनुसूचित जनजाति के 53 विधायक चुने गए थे।
यह थे प्रदेश के पहले आदिवासी एमएलए
नाम |
राजा महाराजा बनते थे विधायक
पहले चुनाव में मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के कई राजा-महाराजाओं को कांग्रेस सहित अधिकांश दलों ने अपना प्रत्याशी बनाया था। इनमें से अधिकांश जीतकर विधायक बन गए थे। इन्हीं में से एक थे सारंगगढ़ रियासत के राजा नरेशचंद्र सिंह। वैसे तो यह आदिवासी वर्ग से थे, लेकिन राज परिवार का होने के कारण जनरल सीट से जीतकर आते थे।वे 1967 में 13 दिनों के लिए अविभाजित मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री भी बने थे। राजा नरेशचंद्र सिंह की बेटियां भी राजनीति में आईं और मंत्री, विधायक तथा सांसद बनीं। राजा नरेशचंद्र सिंह के अलावा छत्तीसगढ़ से ही राजा वीरेन्द्र बहादुर सिंह खैरागढ़ से उनकी पत्नी रानी पद्मावती देवी बोरी देवकर से, सरगुजा के राजा रामानुज शरण सिंह देव अंबिकापुर से, जशपुर राजघराने से विजय भूषणसिंह देव जशपुर नगर से, रायगढ़ के राजा ललित कुमार सिंह घरघोड़ा से, धर्मजयगढ़ से वहां के राजा चंद्रचूड़ प्रसाद सिंहदेव, पंडरिया से पद्म राज सिंह, कांकेर से महाराजा अधिराज बीपी देव चुने गए थे। रविशंकर शुक्ल मंत्रिमंडल में वीरेन्द्र बहादुर सिंह और उनकी पत्नी पद्मावती देवी दोनों ही एक साथ मंत्री बने।
पहले लोकसभा चुनाव में जीते चार आदिवासी
पहले विधानसभा चुनावों के साथ ही पहले लोकसभा चुनावों में भी मध्यप्रदेश से चार आदिवासी वर्ग के सांसद चुनाव जीतकर संसद में पहुंचे थे। इनमें झाबुआ के अमर सिंह डामर, बस्तर के सुरती किश्तैया व मुचाकी कोसा, शहडोल के कमल नारायण सिंह, सरगुजा के बाबूनाथ सिंह और मंडला के मंगरू गानू उइके थे। लोकसभा चुनावों में भी शहडोल, सरगुजा, बस्तर, बिलासपुर, रायपुर और दुर्ग लोकसभा से दो.दो संसद सदस्य चुने गए थे।