सागर. होली यानी रंग, गुलाल, मस्ती, धूम-धड़ाका...। सागर जिले में एक ऐसा गांव है, जहां होलिका दहन की रात सन्नाटा रहता है। ना जाने कब से इस गांव में होलिका दहन नहीं हो रहा। ये गांव सागर जिला मुख्यालय से 55 किमी दूर देवरी की ग्राम पंचायत चिरचिरा का आदिवासी बाहुल्य हथखोय है।
ग्रामीणों ने कभी होलिका दहन नहीं देखा: मान्यता है कि कई साल पहले हथखोय गांव में होलिका दहन के दिन भयंकर आग लगी थी, जो लगातार बढ़ती जा रही थी। तब लोग गांव की आराध्य देवी मां झारखंडन के दरबार पहुंचे और जान, माल की सुरक्षा की कामना की। इसके बाद आग पर काबू पाया गया। तभी से इस गांव में होलिका दहन नहीं होता। लोगों का मानना है कि होलिका दहन करने से झारखंडन माता नाराज हो सकती हैं। इसे आस्था कहें या अंधविश्वास, लेकिन गांव में होलिका दहन नहीं होता।
तीन पीढ़ियों से होलिका दहन नहीं: सरपंच चंद्रभान लोधी के मुताबिक, हमने तीन पीढ़ियों से गांव में होलिका दहन होते नहीं देखा। बुजुर्गों ने बताया था कि जब गांव बसा था, उस समय होली पर होलिका दहन की तैयारी हुई। पूरे गांव के लोग होलिका दहन करने गए। तभी गांव के घरों (झोपड़ियों) में अचानक आग लग गई। ग्रामीण गांव में स्थित मां झारखंडन के मंदिर में पहुंचे और सुरक्षा की कामना की। तब जाकर आग बुझी। झारखंडन माता के प्रति अटूट आस्था और भक्ति के कारण ग्रामीण गांव में होलिका दहन नहीं करते।
पड़ोसी गांवों में निभाते हैं रस्म: गांव के 60 वर्षीय सुखराम आदिवासी बताते हैं कि होलिका दहन की रात गांव में आम रातों की तरह ही बीतती है। ऐसे में पड़ोसी गांव गोपालपुरा, चिरचिरा, मुर्रैई से होलिका दहन का बुलावा देते हैं। हथखोय गांव के लोग सोवत (गाना-बाजा पार्टी) लेकर पड़ोसी गांव में जाते हैं, जहां फाग गाते हुए होलिका दहन कराते हैं।
धुलेंडी से रंगपंचमी तक होता है रंग-गुलाल: गांव के ही एक व्यक्ति का कहना है कि धुलेंडी से रंगपंचमी (3 दिन) तक होली खेली जाती है। धुलेंडी के दिन गांव के सभी लोग पहले माता झारखंडन को गुलाल लगाते हैं। उसके बाद एक-दूसरे को रंग-गुलाल लगाकर होली की बधाई और शुभकामनाएं देते हैं।
गांव में झारखंडन माता का मंदिर है। मां झारखंडन कई परिवारों की कुलदेवी हैं। मंदिर जंगल के बीच में है। यहां चैत्र नवरात्र पर मेला लगता है। दूर-दूर से लोग आकर मन्नत मांगते हैं।