हरीश दिवेकर, Bhopal. 2018 में दो विधानसभा चुनाव में हार का बीजेपी को बहुत गहरा जख्म लगा है। डेढ़ साल बाद फिर चुनाव है। अब बीजेपी उन चुनावों के जरिए पुराने जख्म भरने की कोशिश में हैं। ये जख्म बीजेपी को आदिवासियों ने दिए थे। अब कोशिश है कि ये आदिवासी ही उस जख्म पर मरहम लगाएं। इसलिए अमित शाह खुद मध्यप्रदेश आ रहे हैं। नजर मध्यप्रदेश के चुनावों पर है। लेकिन निशाना दूसरे राज्य पर भी है। जीत का फॉर्मूला कुछ ऐसा बनाया गया है कि मंत्र एक ही राज्य में फूंका जाएगा उसका असर खुद ब खुद पड़ोसी राज्य पर दिखाई देने लगेगा। अमित शाह भी सियासत के चाणक्य यूं ही नहीं कहे जाते। अगर मध्यप्रदेश आ रहे हैं तो मकसद बहुत बड़ा होगा ही। इस एक विजिट के जरिए दो राज्यों की तकरीबन 90 विधानसभा सीटों को बीजेपी के झोली में वापस लाने की बड़ी कोशिश है।
अगले साल के चुनावों के लिए बीजेपी की तैयारी शुरू
मध्यप्रदेश समेत पांच राज्यों में अगले साल होने वाले चुनाव से पहले बीजेपी गियरअप हो चुकी है। वैसे तो बीजेपी यूपी विधानसभा चुनाव से ही चुनावी मोड में है। फिलहाल गुजरात चुनाव सिर पर है। लेकिन गुजरात की वजह उन प्रदेशों की अनदेखी नहीं की जा रही जिनमें अगले साल नवंबर में चुनाव हो सकते हैं। इन्हीं चुनावों के मद्देनजर बीजेपी हर तबके की झोली इतनी भर देना चाहती है कि वोटर चाहकर भी दूसरी पार्टी का रुख न कर सके। हर तबके को साधने की इसी कोशिश के तहत बीजेपी के आला नेता अमित शाह 22 अप्रैल को मध्यप्रदेश आ रहे हैं। इस दौरान वे राजधानी भोपाल में होंगे। यहां वे तेंदूपत्ता संग्राहकों के सम्मेलन का हिस्सा बनेंगे। इस आयोजन की तैयारियां जोरों पर हैं। भोपाल के जम्बूरी मैदान में बड़े-बड़े डोम बनना शुरू हो चुके हैं। बड़ा मंच और बड़ा पंडाल बन रहा है। बड़ी-बड़ी एलईडी स्क्रीन के जरिए सम्मेलन में आए लोग अमित शाह को नजदीक से देख और सुन सकेंगे। इस कार्यक्रम में एक लाख से ज्यादा तेंदूपत्ता संग्राहकों के शामिल होने की भी उम्मीद जताई जा रही है।
7 महीने में मध्यप्रदेश में अमित शाह का दूसरा दौरा
सात महीने में ये अमित शाह का दूसरा मध्यप्रदेश दौरा है। शाह ही क्यों आदिवासियों की खातिर यूपी चुनाव से वक्त निकालकर पीएम नरेंद्र मोदी भी एमपी आए थे। आदिवासी बीजेपी के लिए क्यों और कितने जरूरी हैं ये हम कई बार बता चुके हैं। एक बार फिर बताएंगे। लेकिन उससे पहले ये जान लीजिए कि एक तीर से शाह कैसे दो निशाने लगा लेंगे। शाह माइक पर जो भी बोलेंगे, उसकी गूंज मध्यप्रदेश की सरहदों को लांघती हुई छत्तीसगढ़ तक जाएगी। जहां आदिवासियों पर वो फिलहाल सीधे डोरे नहीं डाल सकते। लेकिन मध्यप्रदेश के रास्ते ये मैसेज जरूर भेज सकते हैं कि बीजेपी की वापसी हुई तो कैसे उनके वारे न्यारे हो जाएंगे। सीटों का ये समीकरण मध्यप्रदेश में जितना फैला हुआ है उतना ही अहम छत्तीसगढ़ में भी है।
बीजेपी ने 2018 की हार पर किया विचार
साल 2018 के चुनावी नतीजे याद कीजिए। मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान, राजनीति के दृष्टि से तीन बड़े राज्य। तीनों में ही चुनाव से पहले बीजेपी की ही सरकार थी। लेकिन बीजेपी का तख्ता कुछ यूं डगमगाया कि तीनों प्रदेशों में कांग्रेस काबिज हो गई। ये बात अलग है कि कुछ चालें सही पड़ीं और मध्यप्रदेश में फिर बीजेपी को मौका मिल गया। लेकिन छत्तीसगढ़ और राजस्थान में कोई जुगत काम नहीं आई। इस हार के बाद बीजेपी ने पूरी गंभीरता से चुनाव परिणामों का आंकलन किया। नतीजा यही निकला कि इस बार आदिवासी वोट बैंक बीजेपी से कन्नी काट गया। जिसकी वजह से दो प्रदेशों की सत्ता गंवानी पड़ी।
चुनाव से पहले आदिवासियों को साधने की कोशिश
अब इसी आदिवासी वोट बैंक को लाने के लिए बीजेपी के दिग्गज एड़ी चोटी का जोर लगा रहे हैं। पीएम नरेद्र मोदी ने बिरसा मुंडा की जयंती पर इसी वोट बैंक को बीजेपी के पाले में लाने की कोशिश की। अब बारी अमित शाह की है। बीजेपी को पूरा यकीन है कि अमित शाह जैसे नेता आदिवासियों से रूबरू होंगे तो उसका असर चुनावों पर जरूर पड़ेगा और छिटका हुआ आदिवासी वोट बैंक वापस बीजेपी की झोली में आ गिरेगा। यही उम्मीद शायद छत्तीसगढ़ बीजेपी को भी हो। जो चार साल से तो सत्ता से दूर है। जिसकी वजह भी यही आदिवासी वोटर्स हैं। 2018 में बीजेपी ने तीन प्रदेशों में जो हार देखी उसकी सबसे बड़ी वजह आदिवासी वोटर्स ही रहे। कम से कम मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में आदिवासी सीटों पर बीजेपी को भारी नुकसान हुआ। आदिवासी जनजातीय गौरव दिवस और अब तेंदुपत्ता संग्राहकों को रिझा कर बीजेपी उन वोटों का खामियाजा पूरा करना चाहती है। वैसे बीजेपी और उसके नेता रूठे वोटर्स को मनाने में अच्छी खासी स्किल डेवलेप कर ही चुके हैं।
मध्यप्रदेश के आदिवासियों को अपना बनाना चाहती है बीजेपी
मध्यप्रदेश में आदिवासियों की आबादी दो करोड़ से ज्यादा है। जो मध्यप्रदेश की 84 विधानसभा सीटों पर सीधे सीधे असर डालती है। 2018 के चुनाव में प्रदेश की 230 में से 82 सीटें आरक्षित थीं। इसमें से बीजेपी 34 सीट ही जीत सकीं। 25 सीटों पर बीजेपी को हार का मुंह देखना पड़ा। अनुसूचित जाति की 47 सीटों में से 30 पर वर्तमान में कांग्रेस काबिज है और 17 पर बीजेपी। अब बीजेपी कांग्रेस के खाते वाली 30 सीटों पर कब्जा जमाना चाहती है।
छत्तीसगढ़ में आदिवासियों का गणित समझिए
छत्तीसगढ़ की कहानी भी कुछ ऐसी ही है। यहां सत्ता की चाबी आदिवासी विधायकों के हाथ में मानी जा रही है। प्रदेश में भाजपा की तीनों सरकार में बस्तर की 12 विधानसभा सीट ने महत्वूपर्ण भूमिका निभाई थी। यही कारण है कि भाजपा सरकार में बस्तर के दो विधायकों को मंत्री पद से नवाजा गया था। पिछले विधानसभा चुनाव में बस्तर और सरगुजा में पहली बार भाजपा पूरी तरह से साफ हो गई। बस्तर की 12 में से 11 विधानसभा सीट आदिवासी वर्ग के लिए आरक्षित हैं। इसमें से सिर्फ एक सीट दंतेवाड़ा में भाजपा को जीत मिली थी। नक्सली हमले में दंतेवाड़ा विधायक भीमा मंडावी की मौत के बाद हुए उपचुनाव में यह सीट भी भाजपा के हाथ से चली गई। यही नहीं पूरे प्रदेश में जब मोदी लहर पर सवार होकर लोकसभा में भाजपा उम्मीदवारों की जीत हुई, उस दौर में बस्तर के लोगों ने कांग्रेस का साथ दिया और 15 साल बाद कांग्रेस का सांसद चुना गया। हालांकि कांग्रेस भी आदिवासी वोट बैंक पर पकड़ मजबूत रखने के लिए आदिवासी वर्ग और तेंदूपत्ता संग्राहकों के लिए अलग-अलग योजनाएं बनाती रही है और ऐलान भी करती रही है।
मध्यप्रदेश के रास्ते छत्तीसगढ़ का किला भेदने की जद्दोजहद
बीजेपी की मजबूरी ये है कि वो सिर्फ मध्यप्रदेश में ऐसा भव्य कार्यक्रम कर सकती है। जहां सरकार उनकी है। अपने ऐलान को जमीन पर उतारना यहां मुश्किल नहीं होगा। लेकिन छत्तीसगढ़ में भारी भरकम कार्यक्रम के बाद भी बात बनना आसान नहीं है। लिहाजा छत्तीसगढ़ में कांग्रेस का किला भेदने के लिए एमपी का ही सहारा या लिया जा रहा है। बीजेपी यहां जो भी ऐलान करेगी उसकी एक कॉपी छत्तीसगढ़ के लिए भी रखेगी। दावा ये करने में भी देर नहीं होगी कि जो एमपी के आदिवासियों को मिलने वाला है वही छत्तीसगढ़ के आदिवासियों को भी मिलेगा। बस उन्हें बीजेपी का साथ देना होगा। अब ये तीर कितने निशाने पर लगता है ये जानने के लिए बीजेपी को भी चुनावों तक सब्र करना ही होगा।