Gwalior. 7 मई का दिन पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के लिए तो बहुत खास है ही लेकिन वह केवल उनके लिए नहीं बल्कि राघोगढ़ के पूरे खींची राजघराने के लिए खास ही नहीं ऐतिहासिक भी है। जिस दिन की प्रतीक्षा में खींची राजघराने की कई पीढ़ियां अतृप्त ही काल के गाल में समा गईं उस असंभव को लोकतंत्र में राघोगढ़ का एक राजा संभव करने जा रहा है।
सिंधिया के गढ़ में कांग्रेस की बैठक लेंगे दिग्विजय सिंह
पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह 7 मई को ग्वालियर में सिंधिया के राजमहल जयविलास पैलेस से महज कुछ फर्लांग दूर पूरे संभाग के कांग्रेस नेताओं की पूरे ठसक से बैठक लेंगे, वह भी पूरी स्वतंत्रता के साथ। यूं तो यह कांग्रेस की एक सामान्य बैठक है जिसमें अगले साल होने वाले चुनाव में सत्ता में वापिसी की तैयारियों की रणनीति बनना है लेकिन दिग्विजय सिंह, खींची राजवंश और राघोगढ़ के लिए इसके और मायने भी हैं। बहुत बड़े और गर्व से भरे हुए मायने।
पहले बैठक की बात
दिग्विजय सिंह कांग्रेस के अपने पुराने नेता और सरकार गिराकर बीजेपी में शामिल हुए सिंधिया राज परिवार के चश्मों-चिराग ज्योतिरादित्य सिंधिया के गढ़ में उन्हें ही मात देने की रणनीति बनाने आ रहे हैं। पहले सिंधिया के मुखर विरोधी डॉ. गोविंद सिंह को नेता प्रतिपक्ष की कमान सौंपने और फिर 7 मई को दिग्विजय सिंह के नेतृत्व में संभाग भर के नेताओं की वृहद बैठक आहूत कर कांग्रेस ने संकेत दे दिए हैं कि अगले चुनाव की बिसात कांग्रेस कैसे बिछाने जा रही है। वह सत्ता वापिसी का रास्ता भी वहीं खोलने को आतुर है जहां से सत्ता गई है। संकेत साफ है कि अब कांग्रेस के निशाने पर ग्वालियर के महाराज ही रहेंगे और और मोर्चा संभालेंगे राजा यानी दिग्विजय सिंह।
कांग्रेस के मुताबिक इस बैठक में ग्वालियर-चंबल संभाग के शहर अध्यक्ष, जिला अध्यक्ष, मंत्री, पूर्व मंत्री, विधायक, पूर्व विधायक और प्रदेश पदाधिकारियों को आमंत्रित किया गया है। बैठक सेन्ट्रल पार्क होटल में आयोजित की गई है। जिसमें पीसीसी चीफ कमलनाथ के निर्देश पर कांग्रेस के महासचिव और राज्यसभा सदस्य दिग्विजय सिंह अध्यक्षता करेंगे।
ग्वालियर-चंबल में खुद को कमजोर मान रही कांग्रेस
गौरतलब है कि मध्यप्रदेश में कमलनाथ की सरकार सिंधिया सहित समर्थक मंत्रियों और विधायकों के भाजपा में शामिल होने के बाद गिर गई थी। वर्तमान राजनीतिक हालातों में कांग्रेस अपने आप को चंबल ग्वालियर संभाग में सबसे ज्यादा कमजोर मान रही है। यहां सिंधिया परिवार का एकक्षत्र राज रहा। जो चंबल में कांग्रेस को भी मजबूती प्रदान करता था। सिंधिया के भाजपा में जाने के बाद कांग्रेस को ग्वालियर चंबल में एक बड़े क्षत्रप की दरकार है। गोविन्द सिंह ने नेता प्रतिपक्ष घोषित होते ही सबसे बड़ा मोर्चा सिंधिया के खिलाफ खोला। यहां इस बात का उल्लेख कर दें कि भारतीय जनता पार्टी में भी सिंधिया को दिए जा रहे महत्व से भाजपा के कई दिग्गज नेता भी अपने भविष्य को लेकर आशंकित हैं। इधर गोविंद सिंह के भी भाजपा के कई दिग्गज नेताओं से दोस्ताना जगजाहिर है। ऐसे में सिंधिया के खिलाफ बड़ा मोर्चा खोलने में गोविन्द सिंह को बड़ी आसानी होगी। संभावना है कि चंबल ग्वालियर संभाग में गोविन्द सिंह को आगे रखकर कांग्रेस अपनी बड़ी रणनीति को अंजाम दे।
महाराजा बनाम राजा
इतिहास बताता है कि सिंधिया राज परिवार का सिक्का विदिशा और उज्जैन से लेकर रतलाम, धार और समूचे ग्वालियर-चम्बल संभाग तक चलता था लेकिन रियासत का हिस्सा होने के बावजूद राघोगढ़ का खींची राजपरिवार अपनी अलग ही सियासत चलाता था। इनके बीच सदैव असामान्य संबंध ही रहे। स्वतंत्रता पूर्व जब सिंधिया के विदेशी सेनापति ने श्योपुर पर हमला कर वहां सत्ता पर कब्जा कर लिया तो खींची राजा सत्ताच्युत क्षत्रीय राजा की मदद करने बगैर बुलाए स्वयं ही अपनी सेना लेकर वहां पहुंच गए। वहां युद्ध कर सिंधिया की सेना से छीनकर फिर सत्ता पर काबिज कराया और लंबे समय तक सुरक्षा भी की। हालांकि बाद में यह इलाका फिर सिंधिया के कब्जे में चला गया। इसके बाद भी राघोगढ़ गाहे-बगाहे अपने तेवर बदलता ही रहा।
कांग्रेस में चंद्रमा दायां और बायां
देश आजाद होने के बाद कहने को दोनों राजघराने एक ही यानी कांग्रेस पार्टी में शामिल हुए लेकिन चंद्रमा दायां और बायां ही रहा। तब तो अखाड़ा ग्वालियर नहीं बल्कि गुना जिला ही रहता था। सिंधिया परिवार वही से चुनाव लड़ता था। ज्योतिरादित्य सिंधिया के पिता माधवराव सिंधिया जब 1977 में जनसंघ छोड़कर कांग्रेस में गए तो दिग्विजय सिंह छोटे नेता थे जबकि माधव राव सिंधिया इंदिरागांधी के सामने ग्रांड एंट्री के जरिए कांग्रेस में पहुंचे तब वे संसद में सबसे कम उम्र के सांसद के रूप में एंट्री ले चुके थे। सिंधिया दिल्ली की राजनीति में ध्रुव तारे से चमकते गए लेकिन उन्हें अहसास ही नहीं हुआ कि क्षेत्रीय क्षत्रप अर्जुन सिंह यहां एक और नेता को दीक्षित करने में लगे रहे जो माधव राव को चुनौती दे सके।
अर्जुन, वोरा और सिंधिया
माधव राव कभी भी अर्जुन सिंह को पसंद नहीं करते थे लेकिन 1972 के बाद कांग्रेस में इंदिरा गांधी को चुनौती देने के लिए बनी सिंडिकेट में शुक्ल बंधु अर्थात श्यामा चरण चले गए तो विंध्य की एक छोटी रियासत चुरहट का किलेदार अर्जुन सिंह नेता प्रतिपक्ष बन गया। 1980 में हालांकि माधव राव सिंधिया ने कांग्रेस जॉइन कर ली लेकिन तब तक वे निर्णायक नहीं बन सके थे। सो जब कांग्रेस सत्ता में लौटी तो अर्जुन सिंह निरापद परिस्थितियों में सीएम बन गए। लेकिन पांच साल में सिंधिया समझ गए कि उन्हें पीछे धकेलने की कोशिश हो रही है। सो उन्होंने अपनी बिसात बिछाना शुरू कर दी लेकिन तब तक अर्जुन सिंह महाराज को उनके गढ़ में चुनौती देने के लिए राघोगढ़ में राजा के लाव लश्कर को तैयार कर चुके थे। हालांकि गुना से सिंधिया समर्थक महेंद्र सिंह कालूखेड़ा और शिव प्रताप सिंह को मंत्री पद मिला था। ये भी क्रमशः छोटी रियासतों अर्थात कालूखेड़ा और उमरी के राजा ही थे लेकिन वे सिर्फ जय जयकार में लगे रहे और दिग्विजय अपने मिशन में लगकर ग्वालियर-चम्बल में अपनी अंदरूनी जड़ें जमाने मे लगे रहे। 1984 में अर्जुन सिंह कुछ दिनों के लिए दूसरी बार सीएम बन गए लेकिन चुरहट लटरी कांड उछलने पर इंदिरा गांधी ने उन्हें हटा दिया तो सिंधिया ने चतुराई से पांसा खेला और मोतीलाल वोरा सीएम बन गए। मध्यप्रदेश में मोती-माधव एक्सप्रेस दौड़ने लगी। अर्जुन सिंह को पंजाब भेज दिया गया लेकिन दिग्विजय सिंह ने अर्जुन की सेना को एकजुट रखने में ताकत खपाई और आखिरकार 1993 में जब कांग्रेस की सत्ता लौटी तो अर्जुन सिंह ने सिंधिया को मात देकर उन्हीं की रियासत के राजा को सीएम की शपथ दिलाकर जो चुनौती पेश की तो वह चलती ही रही। तब तक कि जब तक महाराज कांग्रेस छोड़कर बीजेपी में शामिल नहीं हो गए।
पूरा सिंधिया परिवार
पहला मौका है जब पूरा सिंधिया परिवार अब एक ही पार्टी में है। सिंधिया समर्थक इस दलबदल की वजह भी दिग्गी राजा को बताते हैं, लेकिन यह भी सत्य है कि दिग्विजय सिंह कितने भी ताकतवर रहे हों लेकिन ग्वालियर अंचल में सिंधिया के आगे उनका कद बौना ही रहता था। संभाग के टिकटों का वितरण हो, सत्ता या संगठन के पद बांटने का मौका फैसले सिंधिया ही करते थे। यहां तक कि वे कांग्रेस नेताओं की बैठक तक नहीं बुला सकते थे क्योंकि संभाग के कोई अध्यक्ष महाराज की मर्जी के बगैर राजा से मिल भी नहीं सकता था। दिग्विजय सिंह पार्टी के महासचिव थे। वे ग्वालियर आते तो जिला अध्यक्ष तक उन्हें रिसीव करने नहीं आता था। न ही वे कांग्रेस नेताओं की बैठक बुला सकते थे। वे खून का घूंट पीकर अपने समर्थक अशोक सिंह के घर या होटल में अपने लोगों से मिलकर लौट जाते थे।
बैठक का वेन्यू का भी अपना अर्थ है
दिग्विजय सिंह ने अपनी बैठक का वेन्यू भी अपनी पीड़ा के दिनों का गवाह रहे स्थल को बनाया। वे सेंट्रल पार्क में ही संभागीय बैठक करेंगे। दरअसल यह होटल अशोक सिंह का है। प्रदेश में कमलनाथ की सरकार गिरने और महाराज की ताकत से शिवराज सरकार बनने के बाद सरकार के निशाने पर यही होटल रहा। इसके कुछ हिस्से तोड़े गए और रोज इसके टूटने की अटकलें लगती रहीं।
कौन हैं अशोक सिंह
अशोक सिंह वर्तमान में प्रदेश कांग्रेस कमेटी के कोषाध्यक्ष हैं। उनके दादा कक्का डोंगर सिंह ने सिंधिया राजशाही के खिलाफ आंदोलन किए सो स्वतंत्रता सेनानी रहे। दिग्विजय सिंह शुरू से ही उनके पैर छूते थे। अशोक सिंह के पिता भी सामंतवाद विरोधी नेता रहे। वे इंदिरा जी के खास रहे और सिंधिया के विरोधी सो यह परिवार शुरू से ही महल की आंखों में खटकता रहा। राजेन्द्र सिंह 1972 में विधायक बने और पहली बार में ही उन्हें मंत्री भी बनाया गया लेकिन 1980 में माधवराव सिंधिया की कांग्रेस में एंट्री के बाद से इन परिवार के सितारे गर्दिश में आ गए। इसके बाद जब कांग्रेस सांसद रामसेवक सिंह गुर्जर सांसद ऑपरेशन दुर्योधन में फंसे और उनकी लोकसभा की सदस्यता जाती रही तो दिग्विजय सिंह ने जोर मारकर अशोक सिंह को कांग्रेस टिकट दिलवाया। सामने भाजपा प्रत्याशी यशोधरा राजे थीं। वे हारते-हारते जीतीं महज 26 हजार वोटों से। तब एमपी के कांग्रेस प्रभारी नारायण सामी ने हाईकमान को अपनी रिपोर्ट दी उसमें सिंधिया पर कांग्रेस को हराने का सीधा आरोप लगाया। इसके बाद भी कांग्रेस ने लगातार तीन और बार अशोक सिंह को टिकट दिया। इनमें दो बार तो वे मामूली अंतर से हारे लेकिन पिछले चुनाव में मोदी लहर के चलते उन्हें करारी पराजय मिली लेकिन वे खुश थे क्योंकि इस चुनाव में सिंधिया परिवार भी अपना अपराजेय गढ़ गंवा चुका था। ज्योतिरादित्य सिंधिया गुना में अपने ही एक पुराने सामान्य कार्यकर्ता डॉ. केपी सिंह यादव के सामने सवा लाख से ज्यादा मतों से पराजित हो चुके थे। उनके समर्थक कहते हैं कि उनकी हार की अनेक क्षेपक कथाएं इसी सेंट्रल पार्क में लिखी गईं।
कांग्रेस में सबके खास अशोक सिंह
अशोक सिंह बची हुई कांग्रेस में सबके नजदीक हैं। कमलनाथ, दिग्विजय सिंह, राहुल भैया, अरुण यादव या फिर सुरेश पचौरी अशोक सिंह सबके खास हैं। वजह है उनका विनम्र और लो प्रोफाइल रहना। कमलनाथ ने जब सीएम पद की शपथ ली तो पहली नियुक्ति अशोक सिंह की ही की। उन्हें एपेक्स बैंक का प्रशासक बनाया गया। यह उनके बढ़ते कद का प्रतीक था और जाहिर है यह निर्णय सिंधिया के एकाधिकार को चुनौती देने वाला भी था। अब जब सिंधिया से मुक्त कांग्रेस हुई है तो ग्वालियर में कांग्रेस अशोक सिंह के होटल में कांग्रेस के नए क्षत्रप के नाम का संकेत भी देना चाहती है। ये बैठक कांग्रेस दफ्तर की जगह होटल सेंट्रल पार्क में होने के ये भी सियासी मायने हो सकते है।