Gwalior. गुना से बीजेपी सांसद डॉ. केपी यादव इस समय अपने संसदीय क्षेत्र में अफसरों के खिलाफ एक अनूठा और गांधीवादी आंदोलन छेड़े हुए हैं। वे हर बड़े अफसर से मिलकर भारत के संविधान की एक प्रति भेंट करते हैं। इसके जरिए वे बताते हैं कि जनप्रतिनिधि के साथ कैसा व्यवहार करें। असल में उनका आरोप है कि अफसर उन्हें बैठकों और सरकारी आयोजनों में बुलाते तक नहीं हैं। हालांकि वे कहते कुछ नहीं लेकिन उनका इशारा केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया की तरफ रहता है कि ये सब उनके इशारे पर हो रहा है।
कौन हैं केपी यादव
आखिर ये केपी यादव हैं कौन ? आखिर वे बड़ी आंखों की किरकिरी क्यों बने हुए हैं ? इसका सच जानने के लिए हमें 2019 में हुए लोकसभा चुनावों के परिणामों के समय को याद करना होगा। उन दिनों गूगल पर सबसे ज्यादा सर्च उन्हीं का नाम किया जा रहा था क्योंकि इस अनजान नाम के व्यक्ति ने सियासत में एक अविश्वसनीय इतिहास लिख दिया था। उसने सिंधिया राज परिवार के मुखिया ज्योतिरादित्य सिंधिया को हरा दिया था। केपी यादव सिंधिया परिवार के पुराने समर्थक कांग्रेस कार्यकर्ता थे। वे उनकी एक झलक पाने को धक्के खाते थे और विधानसभा का टिकट चाहते थे लेकिन सिन्धिया की कोटरी में पहुंचकर अपनी बात कहने का मौका ही नहीं मिला बल्कि कभी-कभी बदनामी भी मिली।
बीजेपी में पहुंचे केपी यादव
असल में बीजेपी के लिए गुना जीत पाना तो दूर सिंधिया के खिलाफ प्रत्याशी की जुगाड़ कर पाना मुश्किल होता था। कभी दतिया से ले जाकर लड़ाना पड़ता था तो कभी ग्वालियर से जयभान सिंह पवैया को। इस बीच केपी यादव बीजेपी के संपर्क में आए। बीजेपी ने सिंधिया के खिलाफ उनके ही एक अदने समर्थक को मैदान में उतार दिया। ये सीट स्वतंत्रता के बाद से ही सिंधिया परिवार के प्रभाव वाली थी, बल्कि उनके परिवार का अभेद गढ़ भी। फिर माधवराव हों या ज्योतिरादित्य कभी हारे नहीं थे। सब ओवर कॉन्फिडेंट थे लेकिन परिणामों ने सबको चौंका दिया। ज्योतिरादित्य सिंधिया को पराजय मिली। कांग्रेस को महज एक सीट मिली छिंदवाड़ा। यहां से नकुलनाथ जीत गए। 1977 में जब कांग्रेस पूरे उत्तर भारत में हार गई थी, तब भी गुना (निर्दलीय माधवराव सिंधिया) और छिंदवाड़ा (गार्गीशंकर मिश्रा कांग्रेस) जीते थे लेकिन 2019 में ये मिथक भी टूट गया कि सिंधिया अपराजेय हैं। केपी यादव अचानक हीरो बन गए थे और बीजेपी की आंखों के तारे भी। पीएम मोदी से लेकर गृह मंत्री अमित शाह तक सबने उन्हें मिलने बुलाया था।
फिर केपी के बुरे दिन
कहते हैं सियासत में पल-पल आपका कद बदलता है। यही केपी यादव के साथ हुआ। प्रदेश में सियासी पारा पलटा। ज्योतिरादित्य सिंधिया ने अपने समर्थकों के इस्तीफे दिलाकर कमलनाथ के नेतृत्व वाली अपनी ही कांग्रेसी सरकार गिरा दी। खुद बीजेपी में हाईप्रोफाइल ढंग से शामिल हो गए। एमपी बीजेपी में भी वे कांग्रेस जैसी सियासी हैसियत में आ गए। उनके मन में हार की कसक थी। एमपी में सरकार तो शिवराज सिंह के नेतृत्व में बीजेपी की ही बनी लेकिन सिंधिया रियासत में संतरी से लेकर मंत्री तक सिंधिया ही तय करने लगे। नतीजतन ग्वालियर से गुना तक संभाग के सभी जिलों में सिंधियानिष्ठ अफसरों की तैनाती हुई तो उन्होंने सांसद केपी यादव को हाशिए पर डाल दिया। वहां सिंधिया समर्थक मंत्री भी केपी यादव की उपेक्षा करते। अब तो मंत्री ने सार्वजनिक रूप से ये भी कह दिया कि गुना जिले की जनता ने पिछले चुनाव में गलती की। इन मामलों को लेकर यादव हाईकमान से शिकायत भी कर चुके हैं। जब वहां से कोई मदद नहीं मिली तो उन्होंने प्रतीकात्मक ढंग से अपनी लड़ाई खुद लड़ना तय कर लिया। अब वे अपने साथ लेकर संविधान की प्रतियां लेकर चलते हैं।
राजनीतिक और प्रशासनिक उपेक्षा से बेचैन केपी
सांसद केपी यादव लगातार अपने ही संसदीय क्षेत्र में राजनीतिक और प्रशासनिक उपेक्षा के चलते बेचैन हैं। ये उपेक्षा आगे भी न हो, इसलिए उन्होंने गुना और अशोकनगर के जिलाधीशों को संविधान की प्रतियां भी भेंट कीं। जिससे वे यदि निर्वाचित सांसद के महत्व और प्रोटोकॉल से अनभिज्ञ हों तो ज्ञान प्राप्त कर लें। संविधान की इस प्रति में उन्होंने उन बिंदुओं को रेखांकित भी कर दिया है जो सांसद की गरिमा बनाए रखने के दायित्व याद रखने के लिए जिला कलेक्टरों को इंगित करते हैं। केपी यादव का आरोप है कि उन्हें अपने ही संसदीय क्षेत्र के जिला कलेक्टर न तो सरकारी कार्यक्रमों की सूचना देते हैं और न ही शिलान्यास और लोकार्पण के शिलापट्ट में उनका नाम लिखा जाता है। इसलिए लोकसभा सदस्य की भूमिका और प्रशासन के दायित्वों के प्रति स्मरण कराए रखने के लिए संविधान की प्रति कलेक्टरों को भेंट की है।