Indore. इंदौर नगर निगम चुनाव में बरसों बाद भाजपा मेयर पद के उम्मीवार को लेकर संशय में है। कांग्रेस संजय शुक्ला को डेढ़ साल पहले ही उम्मीदवार बनाकर बढ़त हासिल कर चुकी है। रमेश मेंदोला के रूप में पार्टी के पास इसके 'जवाबी हमले' का अस्त्र है लेकिन पार्टी का एक तबका इस अस्त्र के इस्तेमाल से सहमत होगा इसकी गुंजाइश कम है। फिर कौन। पार्टी के पासदावेदार तो कई हैं लेकिन उम्मीदवार कौन हो यह सवाल भाजपा की बैचेन किए है।
बीते करीब तीस सालों में चाहे लोकसभा हो या मेयर का चुनाव, भाजपा इंदौर को लेकर हमेशा बेफिक्र रहती आई है क्योंकि कांग्रेस के पास न तो भाजपा के स्तर का संगठन रहा, न कभी कोई लहर कभी बनी जिसके सहारे वो इस पार से उस पार पहुंच सके। यही कारण है कि नौ लोकसभा चुनावों से यहां कांग्रेस हार रही है। मेयर के चुनाव में साल 2000 में कैलाश विजयवर्गीय (kailash vijayvergiya) की बड़ी जीत के बाद 'बेफिक्री' की जो बुनियाद भाजपा ने रखी थी वो बीस साल से खड़ी है। पिछला चुनाव मालिनी गौड़ ने भी 'आराम से' जीता था। हां, दो चुनावों में जरूर कांग्रेस ने भाजपा को जमकर दौड़ लगवाई थी। इस बार भी अभी तक तो लग रहा है भाजपा के लिए आलम बेफिक्री का तो नहीं ही है।
कांग्रेस ने किया बैचेन
उम्मीदवारी की घोषणा में अमूमन कांग्रेस आखिरी समय तक गुटबाजी और 'तेरा आदमी-मेरा आदमी' में लगी रहती है। साल 2000 के चुनाव में यह तेरा-मेरा इतने चरम पर था कि कांग्रेस पंजे पर कोई उम्मीदवार खड़ा ही नहीं कर पाई। पुराने मेयर, पुराने मंत्री कांग्रेस नेता सुरेश सेठ (Suresh Seth) को विजयवर्गीय के सामने निर्दलीय उतरना पड़ा। उसके बाद भी कांग्रेस एक नहीं हुई। कांग्रेस का एक तबका सुरेश सेठ को घोषित समर्थन देना चाहता था, जबकि तब के बड़े नेता महेश जोशी इसके विरोध में थे। नतीजा हुआ कि उस साल देश में इंदौर में कांग्रेस का मेयर सबसे ज्यादा वोटों ( 1 लाख 6 हजार) से हारा। शोभा ओझा, पंकज संघवी, अर्चना जायसवाल की उम्मीदवारी को भी कांग्रेस अंतिम दिनों तक ले गई थी। नतीजा यह हुआ कि उम्मीदवार को चुनावी जमावट का वक्त ही नहीं मिला। कार्यकर्ता भी असमंजस में रहे ।
उम्मीदवारी में कांग्रेस बढ़त पर
इस बार कांग्रेस गुटबाजी की पुरानी व्याधि से मुक्त होकर एक सुर, एक पल में संजय शुक्ला को डेढ़ साल पहले ही उम्मीदवार घोषित कर चुकी है। इससे कांग्रेस को चौतरफा फायदा हुआ। एक तो कार्यकर्ता और जनता के सामने कांग्रेस का मेयर का चेहरा स्पष्ट हो गया। दूसरा संजय शुक्ला को तैयारी का भरपूर मौका मिल गया। तीसरा कांग्रेस की परंपरानुसार जो असंतुष्ट जन्मे थे, उन्हें प्यार और सम्मान देने का पर्याप्त अवसर संजय को मिल गया। इस कवायद के बाद एक बार फिर इंदौर में कांग्रेस मेयर की लड़ाई में नजर आ रही है।
निगाहें भाजपा पर
कांग्रेस ने जितनी जल्दी उम्मीदवार घोषित किया, भाजपा में उतनी ही देरी हो रही है। सबसे बड़ी चुनौती संजय के मुकाबले का नेता चयन की है। संजय धनबल के धनी हैं। एक नंबर का कठिन चुनाव आसानी से जीतकर उन्होंने कांग्रेस और खुद के लिए एक जनबल भी तैयार कर लिया है। भाजपा को इसी शक्ति संतुलन वाले उम्मीदवार की तलाश है। आम भाजपाई के दिल पर हाथ रखें तो वो इस मुकाबले के लिए रमेश मेंदोला के हक में हाथ उठाएगा लेकिन जब पार्टी के गुटीय समीकरण पर नजर डालेंगे तो एक तबका विरोध के लिए तुरंत भोपाल-दिल्ली एक कर देगा । विरोधियों की यही दौड़-भाग इस बार भाजपा को बैचेन किए है। जो संजय से बराबरी से लड़ सकता है, उस नाम पर आम सहमति की मुश्किल है और जिन नामों की चर्चा हो रही है वे जीत की गारंटी नहीं हैं।
मेयर आसान नहीं रहा भाजपा के लिए
यूं भले ही भाजपा बीस सालों से मेयर कुर्सी कब्जे में किए हैं लेकिन इन चार चुनावों में से दो चुनावों में पार्टी को भारी परिश्रम और डर से गुजरना पड़ा है। कैलाश विजयवर्गीय और मालिनी गौड़ (Malini Gaur) का चुनाव जहां भाजपा के लिए आसान रहा वहीं शोभी ओझा (भाजपा से उमा शशि शर्मा) और पंकज संघवी (भाजपा से कृष्ण मुरारी मोघे) ने भाजपा को खूब छकाया। पंकज संघवी जहां महज साढ़े तीन हजार वोटों से हारे वहीं ओझा भले ही 22 हजार से हारी हों लेकिन उन्होंने दो नंबर और चार नंबर विधानसभा को छोड़ अधिकांश विधानसभा में उमाशशि पर खासी बढ़त बनाई थी। तब तो उमाशशि अपने निवासरत वार्ड (रघुवंशी कॉलोनी) तक से चुनाव हार गईं थीं। ये दोनों चुनाव कहीं न कहीं भाजपा के जेहन में होंगे ही इसलिए भाजपा कोई जोखिम लेना नहीं चाहती। आगामी चुनाव का नतीजा जो भी हो लेकिन फिलहाल तो संजय की फुर्तीली उम्मीदवारी ने भाजपा के प्रत्याशी चयन को जटिल बना दिया है यह तय है।