BHOPAL. मध्यप्रदेश में बीजेपी और कांग्रेस ने विधानसभा चुनाव के लिए अपनी तैयारियां शुरू कर दी हैं। इसी के साथ एक बार फिर यह सवाल उठ खड़ा हुआ है कि चुनावी अखाड़े में कोई तीसरा पहलवान भी उतरेगा या फिर यही दोनों लड़ेंगे। एक सवाल यह भी है कि क्या वोट काटने के लिए कोई तीसरा और चौथा खिलाड़ी भी मैदान में उतारा जाएगा?
मध्यप्रदेश का चुनाव 2 पार्टियों तक ही सीमित
मध्यप्रदेश देश के उन राज्यों में से एक है जो मुख्य रूप से दो पार्टियों तक ही सीमित रहे हैं। ज्यादातर राज्यों में मुकाबला बीजेपी और कांग्रेस में ही होता रहा है। कुछ राज्यों में क्षेत्रीय दलों ने कथित राष्ट्रीय दलों को राज्य की राजनीति से कमोवेश बाहर ही कर दिया है। जहां तक मध्यप्रदेश का सवाल है, राज्य के गठन से लेकर अब तक यहां कांग्रेस और बीजेपी में ही मुकाबला रहा है। एक बार संविद सरकार का प्रयोग हुआ, लेकिन वह भी कांग्रेस की ही उपज था। इस राज्य में आज तक कोई तीसरा दल अपनी जगह नहीं बना पाया है। न ही यूपी, बिहार, महाराष्ट्र और कर्नाटक की तरह यहां मल्टी पार्टी व्यवस्था बन पाई है।
मध्यप्रदेश में जमीन तैयार नहीं कर पाए अन्य दल
ऐसा नहीं है कि एमपी में इन दोनों दलों के अलावा कोई दल अपनी मौजूदगी दर्ज नहीं करा पाया है। तीन दशक पहले तक समाजवादी और वामपंथी यहां काफी मजबूत स्थिति में थे। अविभाजित मध्यप्रदेश में सभी दलों की मौजूदगी थी। मामा बालेश्वर दयाल, पुरुषोत्तम कौशिक, यमुना प्रसाद शास्त्री और एच.वी. कामथ जैसे दिग्गज समाजवादियों का कार्य क्षेत्र एमपी ही था। होमी दाजी, शाकिर अली और रामलखन शर्मा जैसे वामपंथी नेताओं ने भी इस राज्य में अपने झंडे गाड़े थे, लेकिन इनके दल या फिर बाद के सालों में आसपास के राज्यों में बने नए दल एमपी में अपनी जमीन तैयार नहीं कर पाए हैं। आपातकाल के बाद यहां भी जनता सरकार बनी थी। जनता दल के एक धड़े से जुड़े समाजवादी नेता शरद यादव एमपी के ही थे, लेकिन सत्ता में हिस्सा बटाने की स्थिति में वे कभी नही रहे।
सपा और बसपा ने की पांव जमाने की कोशिश
यूपी के सियासी मैदान के अहम खिलाड़ी सपा और बसपा ने यहां पांव जमाने की कोशिश की। उन्हें थोड़ी बहुत सफलता भी मिली, लेकिन बाद में उनके एमएलए या तो बिक गए या फिर बिखर गए। 1993 में जब विधानसभा चुनाव हुए थे तब कांग्रेस ने बड़ा उलटफेर किया था। बीजेपी की सुंदरलाल पटवा सरकार को बाबरी मस्जिद गिराए जाने की वजह से बर्खास्त किया गया था। इसलिए यह माना जा रहा था कि मध्यावधि चुनाव में जीत बीजेपी की ही होगी, लेकिन जीत कांग्रेस की हुई। दिग्विजय सिंह मुख्यमंत्री बने। उस समय बसपा तीसरी ताकत के रूप में उभरी थी। उसके एक दर्जन विधायक जीते थे। इनमें 2 छत्तीसगढ़ के थे। बाकी बिंध्य और ग्वालियर चंबल संभाग से जीतकर आए थे। तब यह माना गया था कि बसपा एमपी में तीसरी ताकत बनेगी, लेकिन कुछ समय बाद उसके विधायक बिखर गए। कुछ कांग्रेस में चले गए। एक ने अलग पार्टी बना ली। 1996 के लोकसभा चुनाव में उसके दो सांसद, रीवा और सतना से जीते थे। सतना में तो बसपा के अनजाने प्रत्याशी ने दिग्गज नेता अर्जुन सिंह को हराकर इतिहास रच दिया था। 1991 में लोकसभा में उसका खाता भी एमपी की रीवा सीट से ही खुला था।
बसपा लगातार बिखरती गई
इसके बाद के चुनावों बसपा लगातार बिखरती गई। आज भी उसके दो विधायक हैं, लेकिन दोनों सत्ता के साथ ही हैं। वह चाहे कांग्रेस की हो या बीजेपी की। 1998 के विधानसभा चुनाव में सपा के प्रत्याशी भी जीते थे, लेकिन वे भी अन्य दलों में चले गए। 2003 के विधानसभा चुनाव में यूपी में मुलायम की सरकार थी। इस वजह से कांग्रेस के कई नेताओं ने साइकिल की सवारी की, लेकिन एकाध को छोड़ कोई भी विधानसभा नही पहुंचा। जो पहुंचे वे भी बाद के सालों में कांग्रेस या बीजेपी में चले गए। अभी भी सपा का एक विधायक है, लेकिन वह भी सत्ता के साथ है। जब तक कांग्रेस थी तब तक कांग्रेस के साथ था। बीजेपी आ गई तो अब उसके साथ है। एक सच यह भी है कि अब तक किसी भी अन्य दल ने पूरी ताकत से कोई भी चुनाव एमपी में नही लड़ा है। शुरुआती जीत के बाद बसपा अन्य दलों के नेताओं का अड्डा और वोट काटू पार्टी बनकर रह गई। सपा तो उस स्थिति में भी नहीं पहुंच पाई।
देश का पहला राज्य जिसने थर्ड जेंडर को विधानसभा भेजा
ऐसा नहीं है कि एमपी की जनता ने प्रयोग नहीं किए हैं। एमपी देश का पहला राज्य है जिसने थर्ड जेंडर की शबनम मौसी को विधानसभा में भेजा था। शबनम ने उपचुनाव में जयसिंहनगर से निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में जीत हासिल की थी। 1999 में हुए इस अनोखे चुनाव को कांग्रेस के दिग्गज नेता बिसाहुलाल सिंह की नैतिक हार माना गया था। बिसाहू इस समय बीजेपी में हैं। उस समय कटनी और सागर के महापौर भी थर्ड जेंडर के ही थे। कई नगर पालिकाओं में पार्षद भी इसी वर्ग के लोग बने थे।
मध्यप्रदेश में तीसरी ताकत बनने की कोशिश जारी
एमपी में तीसरी ताकत बनने की कोशिश अभी भी चल रही है। आम आदमी पार्टी पिछले कई साल से इसी जुगाड़ में लगी है। दिल्ली के बाद पंजाब की ऐतिहासिक जीत ने उसका हौसला बहुत बढ़ा दिया है। पिछले दिनों हुए पालिका चुनावों में उसका एक मेयर और कुछ पार्षद जीते भी हैं। आप के साथ पहले नर्मदा बचाओ आंदोलन से जुड़े लोग बड़ी संख्या में जुड़े थे। अन्ना की वजह से भी कुछ लोग उसके साथ आए थे, लेकिन लोकसभा और विधानसभा चुनाव में उसे जनसमर्थन नहीं मिला। पिछले दिनों आप ने अपनी मध्यप्रदेश इकाई को बदला है। उसका ऐलान है कि वह प्रदेश की सभी सीटों पर चुनाव लड़ेगी। पंजाब की जीत के बाद उसने गुजरात और हिमाचल में पूरा जोर लगाया था, लेकिन उसे उम्मीद के मुताबिक सफलता नहीं मिली।
आप के चुनाव में उतरने से कांग्रेस को सीधा नुकसान
इतना साफ है कि अगर आप मध्यप्रदेश के विधानसभा चुनाव में उतरेगी तो उसका सीधा नुकसान कांग्रेस को ही होगा। अभी तक वह यही करती रही है। आप के अलावा यूपी में दलितों को एकजुट करने की कोशिश में लगे चंद्रशेखर आजाद रावण भी एमपी में अपनी जमीन तलाश रहे हैं। पिछले दिनों भोपाल में वे अपनी ताकत दिखा चुके हैं। यूपी में मायावती के विकल्प के रूप में देखे जा रहे रावण एमपी में क्या कर पाएंगे यह तो भविष्य बताएगा, लेकिन अगर उन्होंने एमपी की चुनावी राजनीति में उतरने का फैसला किया तो उन्हें बहुत मेहनत करनी होगी। क्योंकि बीएसपी को पहला लोकसभा सदस्य देने वाले इस राज्य में दलित नेतृत्व संगठित होकर खड़ा नहीं हो पाया है। ज्यादातर नेता अपने हित के लिए बीजेपी और कांग्रेस की छतरी के नीचे खड़े दिखाई देते रहे हैं। रावण के लिए मैदान तो खुला है पर इस पर दौड़ना और दौड़कर टिके रहना उनके लिए बहुत कठिन होगा।
वर्तमान में कांग्रेस-बीजेपी में 50-50 का मुकाबला
एमपी में अन्य राज्यों के क्षेत्रीय दलों और जातीय आधार पर बने स्थानीय दलों ने भी पांव जमाने की कोशिश समय-समय पर की है, लेकिन जनता ने उन्हें समर्थन नहीं दिया। सरकार के सवर्ण कर्मचारियों के सहयोग से बने दल सपाक्स से पिछले चुनाव में काफी उम्मीद लगाई गई थी, लेकिन जनता ने उसे पूरी तरह नकार दिया था। एक बार फिर चुनावी चौसर बिछने लगी है। बीजेपी और कांग्रेस दोनों ने ही अपनी तैयारी युद्धस्तर पर शुरू कर दी है। इसी के साथ यह सवाल भी उठने लगा है कि क्या कोई तीसरा दल भी एमपी के अखाड़े में उतरेगा? महाराष्ट्र, यूपी, बिहार और बंगाल की तरह यहां भी "मल्टी एंगल इलेक्शन" की कोई संभावना है? फिलहाल ऐसा लग तो नहीं रहा है, लेकिन अभी 9 महीने का समय है। हो सकता है कि इस दौरान कोई नया समीकरण बन जाए, फिर भी लड़ाई तो बीजेपी और कांग्रेस में ही होनी है। वर्तमान परिदृश्य में इन दोनों दलों में 50-50 का मुकाबला नजर आ रहा है।